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RSS के कार्यक्रम में प्रणब मुखर्जी के जाने का विरोध करना लोकतंत्र पर हमला: संघ विचारक

कार्यक्रम में शामिल होने के उनके फैसले और लोकतंत्र के प्रति उनकी सच्ची भावना का हम स्वागत करते हैं.

Manmohan Vaidya

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को लेकर इस वक्त पूरे देश में हंगामा है, जो नि:संदेह बड़ा ग़ैर-वाजिब सा है. मुद्दा नागपुर में होने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कार्यक्रम में उनके शामिल होने को लेकर है, जिस पर एक खास राजनीतिक वर्ग नाराज है.

मुखर्जी बड़े परिपक्व राजनेता रहे हैं, जिनका सार्वजनिक जीवन का अनुभव दशकों पुराना है. सामाजिक और राष्ट्रीय महत्व के कई मुद्दों पर उनके विचार काफी परिपक्व रहे हैं. उन्हें नागपुर आने का आमंत्रण इसलिए दिया गया था कि इस बहाने कई मुद्दों पर उनके बेशकीमती विचार लोगों को जानने को मिलेंगे. साथ ही मुखर्जी को भी संघ के विचारों को जानने का सीधा-सीधा मौका मिलेगा.


इसलिए जहां इस तरह से विचारों का ये आदान-प्रदान संवाद की भारतीय परंपरा की मूलभूत धारा के जैसा है. वहीं ये आमंत्रण और इसे स्वीकार करना, दोनों उस लोकतांत्रिक परंपरा को भी आगे बढ़ाते हैं, जो हमारे सांस्कृतिक चरित्र में रची-बसी है. और अगर ऐसा है तो मुखर्जी के इस दौरे पर इतना हंगामा क्यों बरपा है ? एकदूसरे को सुनने और समझने की इस कोशिश पर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है ?

प्रणब दा के इस फैसले के विरोध ने भले ही लोगों को चौंकाया हो, लेकिन इसकी वजह जानने की कोशिश करेंगे, तो राजनीतिक दलों की कलई खुलती मिलेगी. इस दौरे के विरोध में जिन बुद्धिजीवियों का शोर सुनाई दे रहा है, वे उस विचारधारा से प्रेरित हैं, जो भारत के लिए विदेशी तो है ही, पूरी दुनिया में उसे नकारा भी जा चुका है. जबरदस्त असहिष्णुता और हिंसा के जरिये समानता के दावे करने वाली इस सोच को दुनिया वामपंथ कहती है. ‘विचारों की सहमति’ का उनका सलीका उन्हें ये सब करने पर मजबूर करता है. ये तरीका अलग-अलग सोच वाले लोगों को साथ लेकर चलने के संस्कार से न केवल बिल्कुल अलग है बल्कि उसके एकदम उलट भी है.

आलम ये कि अब आमतौर पर ये मान लिया जाता है कि अगर आप एक खास तरह की तथाकथित वामपंथी विचारधारा के नहीं है, तो आप ‘दक्षिणपंथी’ या हिंदूवादी सोच के हैं. यानी सिद्धांतों को लेकर उनकी दुनिया बस ये जानती है कि अगर आप उनकी सोच के नहीं है, तो न सिर्फ आप धिक्कारे जाने योग्य हैं, बल्कि सार्वजनिक तौर पर तिरस्कृत किए जाने के लायक भी हैं. वो मानते हैं कि चूंकि आप उनकी विचारधारा के साथ नहीं है, इसलिए आप आलोचना के पात्र हैं. यही है वामपंथ की परंपरा. विडंबना ये कि असहिष्णुता के इस लगातार प्रदर्शन के बावजूद उनका दावा है कि वे मानवाधिकारों के सबसे बड़े वकील हैं और अभिव्यक्ति की आजादी के महान समर्थक भी.

कुछ बरस पहले संघ के इसी कार्यक्रम में मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता और मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अभय बांग को भी बुलाया गया था. उस समय भी महाराष्ट्र में वामपंथी झुकाव वाले बड़े-बड़े नेता और समाजवादी सोच के लोगों ने भी ऐसे ही आवाज उठाई थी कि क्यों अभय बांग ने संघ का आमंत्रण स्वीकार कर लिया. अभय बांग पर समारोह में न जाने का दबाव बनाने के लिए इन लोगों ने अपनी मराठी साप्ताहिक पत्रिका साधना में जम कर लेख छापे. इन कोशिशों का जवाब बांग ने ये कह कर दिया कि वे तो इस समारोह में केवल अपने विचार रखने जा रहे हैं, तो इसका इतना विरोध क्यों?

बांग यहीं नहीं रुके, उन्होंने संघ की उदारवादी सोच की तारीफ भी की कि ये जानते हुए भी कि विभिन्न मुद्दों पर उनकी राय संघ से बिलकुल मुख्तलिफ है, संघ ने उन्हें इस कार्यक्रम में अतिथि बनाया, जो एक बड़ी बात है. दूसरी ओर वामपंथी, दावे चाहे जो करते रहे हों, इस मुद्दे पर उन्होंने जम कर असहिष्णुता दिखाई. बांग आरएसएस के समारोह में भाग लेने के अपने फैसले पर न सिर्फ अडिग रहे बल्कि साधना में छपने के लिए अपना वो भाषण भी भेज दिया, जो उन्हें नागपुर में देना था. मजेदार बात ये कि खुद को अभिव्यक्ति की आजादी का अगुवा कहने वाली इस पत्रिका ने बांग का वह लेख छापने से इनकार कर दिया. ये तब हुआ जब कि अजय बांग के लेख भी इस पत्रिका में पहले से छपते रहे थे.

2010 में मेरी मुलाकात सीपीएम के एक ट्रेड यूनियन नेता केशवन नायर से हुई. वे केरल के कोल्लम से थे और उन्हे सीपीएम ने इसलिए पार्टी से निकाल दिया था कि उन्होंने एक स्थानीय अख़बार में 'वेदों में विज्ञान' विषय पर दो लेख लिखे थे. इस पाखंड से दुखी नायर ने वामपंथियों पर लिखने का फैसला किया और बाद में एक किताब ‘ बियॉन्ड रेड ’ लिखी भी और मुझे भेंट भी की. पुस्तक के प्राकथ्थन में उन्होंने किताब से एक वाक्य कोट भी किया –'वामपंथी आपको सिर्फ एक बात की आजादी देते हैं, और वो है उनकी तारीफ करने की.'

जब पश्चिम बंगाल में वामपंथ का राज था, प्रचार प्रमुख की हैसियत से एक बार मुझे कोलकाता जाना पड़ा. आरएसएस की स्थानीय शाखा ने स्टेट्समैन, इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ इंडिया, वर्तमान और एक वामपंथी सोच वाले अखबार के संपादकों के साथ मेरी मुलाकात रखी. वामपंथी विचारधारा वाले अखबार को छोड़कर सबने मुझे वक्त दिया. उस अखबार के संपादक ने ये कहते हुए वक्त देने से मना कर दिया कि वे अपना वक्त खराब करना नहीं चाहते. ये है उनका लोकतांत्रिक स्वभाव और विचारों की अभिव्यक्ति को लेकर उनकी प्रतिबद्धता का सच.

खैर बाकी संपादकों के साथ मुलाकातें बहुत बढ़िया रहीं. हमें तो उम्मीद भी नहीं थी कि हर मुद्दे पर वे संघ की सोच से सहमत होंगे. बल्कि सारे के सारे, संघ के विचारों को समझने और उन पर बातचीत के लिए तैयार भी दिखे. उधर, मैंने स्थानीय कार्यकर्ताओं से कहा कि मैं जब भी कोलकाता आऊं, उस वामपंथी सोच वाले अखबार के संपादक के साथ मेरी मुलाकात के लिए वक्त मांगना न भूलें.

कुछ साल पहले एक और वाकया हुआ. दत्तात्रेय होसबोले और मुझे जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल में बोलने का न्योता दिया गया. हमें विभिन्न सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों पर संघ के क्या विचार हैं इसपर एक पत्रकार के साथ चर्चा करनी थी. हमने आमंत्रण स्वीकार किया और चर्चा में शरीक भी हुए. हमें मालूम था कि इस लिटफेस्ट में वामपंथियों का विरोध झेलना पड़ेगा, फिर भी हम गए. और वामपंथियों को देखिये.

सीताराम येचुरी और एम ए बेबी जैसे नेताओं ने ये कह कर फेस्टिवल में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया कि चूंकि वहां आरएसएस को भी मंच पर मौका दिया रहा है, वे इसका बॉयकॉट करेंगे. ऐसा उन्होंने ये जानते हुए किया कि भारत भर में संघ की स्वाकार्यता धीरे-धीरे बढ़ रही है. अभिव्यक्ति की आजादी की उनकी परिभाषा के तहत किसी संस्था को समझने की कोशिश तक भी जायज नहीं मानी जाती. लेकिन इस नाजायज विरोध के मायने क्या हैं. क्या उन्हें ये डर है कि अगर आरएसएस को लोगों तक पहुंचने दिया गया, तो लोगों को संघ के बारे में फैलाई गई झूठी बातों पर से पर्दा उठ जाएगा और लोगो को असलियत पता चल जाएगी ? दरअसल, यही उनका सबसे बड़ा डर है.

वामपंथी विचारधारा और बोलने की आज़ादी का ऐसा विरोध दरअसल भारतीय सोच के एकदम उलट है. एक और उदाहरण है, जो इन सब बातों से एकदम उलट है. कुछ बरस पहले चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का एक प्रतिनिधिमंडल भारत दौरे पर आया. वे आरएसएस के लोगों से मिलना चाहते थे और इसलिए दिल्ली में संघ मुख्यालय केशवकुंज में उन्हें आमंत्रित किया गया. मैं उस वक्त दिल्ली में ही था और मैंने ही उस प्रतिनिधमंडल का स्वागत किया. उन्होंने भी मुझे एक सुंदर सा स्मृतिचिन्ह भेंट किया, जिसमें चीन की दीवार की तस्वीर बनी हुई थी. उनकी आरएसएस में रुचि क्योंकर है, मैं ये जानने को खासा उत्सुक था. एक राजनीतिक दल होने के नाते चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों का यहां राजनैतिक दलों से मिलना तो समझ में आता था लेकिन संघ से मिलने के इच्छुक क्यों थे, ये मैं जानना चाहता था.

उनका जवाब था कि चूंकि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी काडर बेस्ड है और आरएसएस भी काडर बेस्ड संस्था है, इसलिए विचारों के आदान-प्रदान के लिए वे संघ से मिलना चाहते थे. मैंने कहा, 'ये सही है, लेकिन हम दोनों में एक मूलभूत अंतर है. सीपीसी यानी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना, सत्ता के जरिये राज्यसत्ता के लिए काम करती है जबकि संघ लोगों के समर्थन के जरिये सीधे समाज के बीच काम करता है.' इस साफ अंतर के बावजूद मुलाकात बहुत बढ़िया रही. हमने उनसे मिलने से इनकार नहीं किया, क्योंकि विचारों का आदान-प्रदान भारतीय सोच का आधार है. मतांतर चाहे जितने हों, बात तो की ही जा सकती है.

भारत के बुद्धिजीवियों की दुनिया में ऐसे लोग ज्यादा हैं जिन पर वामपंथी रंग चढ़ा हुआ है. हो सकता है ये इसलिए भी हुआ हो कि भारत में कांग्रेस या दूसरी पार्टियों में ओरिजिनल थिंकर्स यानी मौलिक सोच वाले नेताओं की कमी रही. इनमें वे पार्टियां भी हैं जो व्यक्तिपरक रहीं, परिवारवाद के सहारे बढ़ीं या जातिगत पहचान को लेकर आगे बढ़ीं. इन्होंने राजनीतिक विचारधारा के नाम पर उन लोगों को प्रश्रय दिया जिनका झुकाव वामपंथ की ओर था. हालांकि वे उदारवाद, लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी की खूब बात तो करते हैं, लेकिन अक्सर सैद्धांतिक असहिष्णुता, बौद्धिक छुआछूत और बहिष्कार का खुलेआम प्रदर्शन भी करते रहते हैं. आरएसएस के समारोह में भाग लेने के प्रणब दा के फैसले से ऐसे लोगों के पाखंड की पोल खुल गई है.

चौथे सरसंघचालक रज्जू भइया की, उत्तर प्रदेश के एक बड़े कांग्रेस नेता से बड़ी गहरी दोस्ती थी. एक बार जब उन्हें प्रयाग के दौरे पर जाना था, तो शहर के खास लोगों के साथ कांग्रेस नेता को भी चाय पर मुलाकात और बातचीत के लिए आमंत्रित किया गया. लेकिन उस कांग्रेस नेता ने ये कहकर आमंत्रण ठुकरा दिया कि वे चाहते तो हैं कि इस आयोजन में शरीक हों, लेकिन चूंकि इससे उनकी पार्टी में बेवजह कानाफूसी होगी और उनके ही सहयोगी इसे विवाद का मुद्दा बना देंगे, इसलिए वे माफी चाहते हैं.

रज्जू भइया को इस बात से बड़ा अचरज हुआ और उन्होंने अपने मित्र से पूछा कि क्या सचमुच इस मुलाकात को इतना बड़ा मुद्दा बना दिया जाएगा, उनके मित्र ने जवाब दिया कि आप को अभी पता नहीं है कि कांग्रेस में कैसी राजनीति चलती है. रज्जू भइया ने उन्हें बताया कि संघ में तो तस्वीर एकदम उलट है. अगर स्वयंसेवकों ने उन दोनों को मिलते हुए देख भी लिया, तो मंशा पर बिलकुल शक नहीं करेंगे. वो सोचेंगे कि जरूर रज्जू भइया उन कांग्रेस नेता को संघ के बारे में समझा रहे होंगे. कैसे कांग्रेसी नेता अपने ही एक बहुत बड़े नेता पर शक कर सकते हैं ?

आज जब कांग्रेस के एक बहुत बड़े नेता पर, जो इस देश के राष्ट्रपति भी रहे हैं, कांग्रेस के छुटभैये नेताओं की तरफ से सवाल उठाए जा रहे हैं, इतिहास बरसों बाद खुद को दोहराता हुआ दिखाई दे रहा है. दुख की बात है कि इन फुटकर नेताओं में वे भी शामिल हैं जिनकी छवि तो बहुत खराब रही ही है, उनका राजनीतिक अनुभव प्रणब दा का आधा भी नहीं है.

आखिर किसी स्वयंसेवक ने ये सवाल क्यों नहीं उठाया कि पूर्व राष्ट्रपति और एक वक्त के बड़े कांग्रेसी नेता प्रणब मुखर्जी को संघ के कार्यक्रम में क्यों बुलाया गया. यही फर्क है संघ और उन लोगों की की सोच में जो दावा करते हैं कि वे अभिव्यक्ति की आजादी के चैम्पियन हैं. भिन्न-भिन्न सोच वाले लोगों के साथ बैठकर विचार-विमर्श करना भारतीय परंपरा रही है. इसका तिरस्कार या विरोध करना भारतीयता के खिलाफ तो है ही, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, उसकी संस्कृति और हमारी लोकतांत्रिक परंपराओं पर चोट भी है.

बहरहाल, संघ के इस कार्यक्रम में प्रणब दा की मौजूदगी पर जो हंगामा खड़ा हुआ है, वो उन लोगों का असल चेहरा दिखाता है, जो खुद को बोलने की आज़ादी के सबसे बड़े पैरोकार मानते आए हैं. प्रणब दा ने भी ये कह कर कि अब वे नागपुर में अपने भाषण में सारे सवालों के जवाब देंगे, एक शालीन और सधे हुए राजनेता होने का परिचय दिया है. कार्यक्रम में शामिल होने के उनके फैसले और लोकतंत्र के प्रति उनकी सच्ची भावना का हम स्वागत करते हैं.

(लेखक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ज्वाइंट जनरल सेक्रेटरी हैं)