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यूपी चुनाव 2017: चार पार्टियों में हुआ मुकाबला तो जीतेगी बीजेपी?

यूपी चुनाव नतीजों में बीजेपी को अगर 200 से कम सीटें आती हैं तो इसका मतलब होगा कि 2014 में उसे वोट देने वालों ने इस बार अपना पाला बदल लिया है

Praveen Chakravarty

चुनावी नजरिए से, 2017 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का साल है. विशेषज्ञ देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य के चुनाव को बीजेपी के लिए काफी महत्वपूर्ण मान रहे हैं.

जैसा कि कहा जा रहा था, 4 जनवरी 2017 को चुनाव की तारीखों की घोषणा कर दी गई. लेकिन यूपी पर शासन कर रही समाजवादी पार्टी में पिता-पुत्र के बीच सियासी ड्रामा जारी है. इससे पार्टी दोफाड़ होने के कगार पर पहुंच चुकी है.


बड़ी बात यह है कि 2017 का यूपी चुनाव आम चुनाव 2019 की आहट है. इस चुनाव में केवल बीजेपी की हार ही सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक बात होगी.

इसे ऐसे समझते हैं.

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 403 विधानसभा सीटों में से 328 (81 फीसदी) पर जीत हासिल कर 71 संसदीय सीटों पर जीत दर्ज की.

यूपी के हाल के चुनावी इतिहास में ये काफी अचंभित करने वाला है. इसके संदर्भ में अगर देखें तो, अंतिम बार किसी राजनीतिक दल ने 1977 में यूपी की 80 फीसदी विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की थी. जब इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी ने यहां की 80 फीसदी सीटें जीत ली थीं.

बीजेपी ने यूपी के चुनावों में हमेशा से हिंदुत्व की राजनीति का सहारा लिया है  (पीटीआई)

2014 में बीजेपी ने न सिर्फ 81 फीसदी सीटें जीतीं. बल्कि उसे काफी बड़े अंतर से जीत हासिल की.

चार राजनीतिक पार्टियों में मुख्य लड़ाई

यूपी के दंगल में चार राजनीतिक पार्टियां के बीच मुख्य लड़ाई है. वर्तमान में सरकार चला रही समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी), कांग्रेस और बीजेपी. इन पार्टियों के यूपी चुनाव अकेले लड़ने का इतिहास है.

चौकोणीय लड़ाई में जीतने वाली पार्टी को हर विधानसभा क्षेत्र में केवल 25-30 फीसदी वोटों की जरूरत होगी.

2014 के चुनाव में बीजेपी ने 403 सीटों में से 253 पर 40 फीसदी से ज्यादा अंतर से जीत दर्ज की थी. ये बताता है कि, अगर विपक्ष एकजुट भी होता तब भी बीजेपी आधे से अधिक सीटों पर विजयी होती.

आगे बढ़ें तो, बीजेपी ने 94 विधानसभा क्षेत्रों में आधे से ज्यादा वोट हासिल किया. पिछले कुछ सालों में किसी भी दूसरी पार्टी ने यूपी में इतने बड़े अंतर से इतनी ज्यादा सीटें नहीं जीती हैं.

ये यूपी में मिली जीत थी जिसने बीजेपी को 1984 के बाद से अकेली ऐसी पार्टी बनाया. जिसने लोकसभा चुनाव पूर्ण बहुमत से जीता.

केवल तीन साल पहले बीजेपी को यूपी में मिली जबरदस्त जीत को ध्यान में रखें तो 2017 का केवल एक ही नतीजा होगा- बीजेपी की बहुमत से जीत.

हालांकि, चुनाव के नतीजे अलग होने को लेकर भी कयास लगाए जा रहे हैं.

कामकाज चार गुना खराब होना चाहिए

बीजेपी के लिए 200 सीट से कम पाकर यूपी हार जाना, उसके लिए 2014 की तुलना में अपने लगभग 40 फीसदी सीटें गंवाने जैसा होगा. ऐसा होने के लिए, 2014 में बीजेपी को वोट देने वाले वोटरों में से 15 फीसदी के पाला बदल लेने जैसा होगा.

इसके संदर्भ में कहें तो, 2014 में जीत के बावजूद बीजेपी, 2015 का बिहार चुनाव हार गई. ऐसा उसके केवल 4 फीसदी वोटरों ने अपना पाला बदलने से हुआ.

2014 में बीजेपी को यूपी में मिली बड़ी जीत को देखते हुए. वहां चुनाव हारने के लिए उसका कामकाज बिहार की तुलना में चार गुना खराब होना चाहिए.

अगर कोई दो विपक्षी पार्टियां का गठबंधन होता है, तो भी यूपी चुनाव हारने के लिए बीजेपी को अपने 10 फीसदी से ज्यादा वोटरों को गंवाना होगा.

चुनावी आंकड़े को किसी भी तरह देखें, 2017 के चुनाव में बीजेपी को हारने के लिए उसके 2014 के वोटरों को बड़े पैमाने पर अपना पाला बदलना होगा.

वोटिंग का पैटर्न काफी अलग

आम तर्क दिया जाएगा कि, 2017 का यूपी चुनाव, एक राज्य का चुनाव है. जबकि, 2014 का चुनाव आम चुनाव था, जिसमें वोटिंग का पैटर्न काफी अलग था.

चुनावों के बारे में लंबे समय से माना जाता है कि, विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में मतदाता अलग-अलग तरीके से वोट करते हैं. हालांकि, इसके कम ही सबूत हैं.

इसे लेकर होने वाले बहस में एक तर्क आम दिया जाता है कि, केंद्र और राज्य के चुनाव अलग-अलग समयकाल में होते हैं.

इस दौरान होने वाले बदलावों का वोटर पर अलग-अलग असर पड़ता है, जब वो विधानसभा या लोकसभा के चुनावों में अपना वोट डालने जाता है.

2014 में दिल्ली में क्लीन स्वीप करने के बाद 2015 में आम आदमी पार्टी के हाथों बीजेपी की हुई हार को. इसके एक और प्रचलित उदाहरण के तौर पर पेश किया जाता है.

तथ्यों से अलग शुरुआती तौर पर ये कांग्रेस के वोट शेयर का शिफ्ट होना था जिसने आप की जीत को पक्की बना दी.

राज्य और केंद्र के बीच फर्क नहीं

इससे उलट, मेरी रिसर्च बताती है कि जब विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक समय में होते हैं. 77 फीसदी वोटर एक ही पार्टी को चुनते हैं. वो राज्य और केंद्र के बीच फर्क नहीं करते.

आगे देखें तो, 2002 के बाद से यूपी में हुए 6 में से 5 विधानसभा और लोकसभा चुनावों में दोनों क्षेत्रीय पार्टियों ने मिलकर दोनों राष्ट्रीय पार्टियों, बीजेपी और कांग्रेस से ज्यादा वोट हासिल किया.

हालांकि, 2014 के नतीजों में ऐसा नहीं हुआ. समाजवादी पार्टी ने 2002 में यूपी विधानसभा चुनाव जीता. इसके बाद उसने यहां 2004 का आम चुनाव भी जीता.

बहुजन समाज पार्टी ने 2007 में विधानसभा चुनाव जीता. और 2009 के आम चुनावों में यूपी में वो सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी

अगर बीजेपी हारी, तो चुनावी इतिहास होगा

इस सब के बावजूद, अगर कोई ये मानना चाहे कि लोकसभा चुनाव की तुलना में विधानसभा चुनाव में वोटर कुछ अलग तरीके से वोट करते हैं. तो भी अकेले इस दलील से यूपी चुनाव में बीजेपी की हार (अगर होती है) को समझा नहीं जा सकता.

2014 में यूपी में बीजेपी का प्रदर्शन दूसरी पार्टियों से काफी आगे है. 2017 में भारी बहुमत से जीत मिलने पर ही बीजेपी पहले के बराबर पहुंच पाएगी. ये भी एक कारण है कि, प्रधानमंत्री के नोटबंदी पहल को आने वाले यूपी चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है. जो शायद गलत है.

2017 के यूपी चुनाव में अगर बीजेपी को 200 से कम सीटें आती हैं. तो इसका केवल एक ही मतलब होगा, 2014 में बीजेपी को वोट देने वाले यूपी के ज्यादातर वोटरों ने इस बार अपना मन बदल लिया है.

इसके साथ ही भारत के चुनावी इतिहास में वोट शेयर स्विंग का ये सबसे बड़ा उदाहरण होगा.

केवल इसी सूरत में, 2017 यूपी चुनाव के नतीजे सही मायने में 2019, लोकसभा चुनाव की आहट देने वाले साबित हो सकते हैं. इसके अलावा औ कुछ नहीं.