क्या जाति तलवार है जो लोगों को लड़ाने और भिड़ाने का एक औजार है? अगर नहीं तो क्या जाति ढाल है, जिसे खानदान और कुल का वजन अटूट कर देता है और इंसान को उसे उठाकर चलने पर मजबूर कर देता है. जाति भिड़ाती भी है, जाति लड़ाती भी है.
लक्ष्मी नंदा की अपनी जाति से जंग तब शुरू हुई जब उनकी शादी राजस्थान के टोंक जिले के एक वाल्मीकि शूद्र लड़के से करवा दी गई. वो कहती हैं, ‘शादी के बाद मुझे पहली बार अछूत होने का एहसास हुआ. जब मुझे जजमानों के घर आशीर्वाद दिलवाने ले जाया गया तो वह पीछे हटे और मुझपर हंसे.’ लक्ष्मी कहती हैं तब मुझे अपने दुल्हन होने पर नहीं, इंसान होने पर शर्म आई.
‘मेरी सास ने मुझे लोगों के घरों में मैला साफ करना सिखाया. मैला ढोने वालों को कोई हाथ नहीं लगाता, उन्हें हैंडपंप इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं होती. हमारे बच्चों के साथ स्कूल में बैठकर आज भी दूसरे बच्चे खाना नहीं चाहते.’ लक्ष्मी अपनी तकलीफें बताती हैं.
लेकिन लक्ष्मी अकेली नहीं हैं. एनएचआरसी के मुताबिक़, आज 37 प्रतिशत दलित गरीबी रेखा के नीचे हैं और उनमे से लगभग 54 प्रतिशत कुपोषित हैं और आज भी भारत में 1000 दलित बच्चे पैदा होने के एक साल में ही मर जाते हैं.
2011 के सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना में ये दर्ज है कि लगभग एक लाख 67 हजार घरों में आज भी एक इंसान मेहतर है. चार साल पहले, स्वच्छता को समाज कल्याण का एक अहम मुद्दा बनाने वाली एक अंतरराष्ट्रीय संस्था सुलभ इंटरनेशनल ने लक्ष्मी के गांव में दो घड़े वाले टॉयलेट बनवा के उसे मैला ढोने के काम से आजाद कर दिया.
इस टॉयलेट को डॉ बिंदेश्वर पाठक की संस्था सुलभ इंटरनेशनल ने बनाया है. इसमें केवल एक बार में एक लीटर पानी डालकर टॉयलेट को मेन्टेन किया जा सकता है. न तो किसी को मिट्टी डालने की जरूरत है और न ही ज्यादा पानी बर्बाद होता है.
आज लक्ष्मी जैसी कई महिलाएं सुलभ द्वारा स्थापित कम्युनिटी सेंटरों में सिलाई, ब्यूटी पार्लर के काम और कंप्यूटर भी सीख रहीं हैं.
डॉ. पाठक कहते हैं, 'यह औरतें अब पीले कपड़े पहनकर श्लोक भी पड़ती हैं. ब्राह्मण होने का अहसास इनके खोये हुए सम्मान को लौटाता है. गांव में गर्व से सिर उठाकर चलना इनके लिए बड़ा मायने रखता है.
उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दांव पेच भी जाति प्रथा की जड़ों से जुडे हैं. सपा यादवों को संस्थागत कर उन्हें प्रबल बनाती है, तो मायावती दलितों का मान बनाने और बढ़ाने के दावे करती हैं और रालोद जाटों को भावुक कर उनका समर्थन जीत लेती है. हाल कुछ ऐसा है के फूलों से सजे आलीशान मंचों पर विकास और नीति के डंके भी निजी तुष्टिकरण के बाद ही बजते हैं.
बसपा ने दिया नारा-' ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी आगे जाएगा'
उदाहारण के तौर पर, बसपा का यह नारा: ' ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी आगे जाएगा' दलितों और ब्राह्मणों का ऐसा अनोखा गठजोड़ है जोशोषण की आंधी में केवल कुछ देर के लिए,सामाजिक पक्षपात को मिटा देता है.
ये भाव 2012 के विधान सभा चुनाव में सपा की साइकिल तले दब गया था. 2014 के लोक सभा चुनाव में उठी मोदी की लहर में घुलकर गुम हो गया था. लेकिन इस बार फिर मैदान में उतारा गया है. बसपा के ब्राह्मण चेहरे सतीश चंद्र मिश्र भाईचारा सम्मेल्लन आयोजित करके उत्तर प्रदेश विधान सभा की 85 आरक्षित सीटों को जीतने की तैयारी में हैं.
इस प्रदेश की लगभग 20 करोड़ की की जनसंख्या में लगभग 11 फीसदी ब्राह्मण हैं. 1990-91 में राम मंदिर मूवमेंट के बाद, ब्राह्मणों का झुकाव कांग्रेस से भाजपा की ओर मुड़ गया है.
सूत्रों के अनुसार, इस बार कांग्रेस ने भी लगभग 20,000 ब्राह्मण नेताओं को अलग-अलग जिलों में संगठित करने की कोशिश की है. पार्टी के योजनाकारों का यह मानना है कि ब्राह्मणों अगर आगे आकर पार्टी का समर्थन करेंगे तो मुस्लिम भी उनकी ओर खिंचे चले आएंगे. उनका यह तरीका भाजपा को नहीं डरा रहा. वो आज भी यादवों के इलावा बाकी नीची जातियों पर अपनी आस लगाए बैठे हैं.
महत्वपूर्ण बात ये है कि आज भी भारत में जाति बेहद महत्वपूर्ण मसला है. कोई किसी की जाति बदलकर कल्याण कर रहा है, कोई किसी की जाति मजबूत कर राजनीति कर रहा है. जाति आज भी अंतहीन है, उसके अर्थों में आज भी यह देश बंटा हुआ है. जहां गरीबी है वहां निखरकर जहां प्रगति हैं वहां छिपकर जाति आज भी आस-पास ही रहती है.