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तीन मूर्ति भवन विवाद: BJP को सही मुद्दे पर घेर रहे हैं मनमोहन सिंह

जब सत्ता का लीवर संघ के हाथ में है, वह चाहता है कि नेहरू को उनकी मौत के बाद ही सही, खत्म कर दिया जाए

Ajaz Ashraf

तीन मूर्ति भवन की आत्मा और उसका चरित्र बदलने की कोशिशों पर, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जो चिट्ठी लिखी है, उसके कई आयाम हैं. मनमोहन सिंह ने मोदी सरकार पर बड़ा गंभीर आरोप लगाया है कि मोदी सरकार आधुनिक भारत को बनाने और राष्ट्रीय आंदोलन में पंडित नेहरू की भूमिका को मिटाने की खतरनाक प्रवृत्ति की ओर बढ़ रही है.

1930 में बना तीनमूर्ति भवन ब्रिटिश भारत की सेना के कमांडर-इन-चीफ का निवास हुआ करता था. प्रधानमंत्री बनते ही पंडित नेहरू ने सबसे पहले जो काम किए, उनमें से एक ये था कि उन्होंने कमांडर-इन-चीफ को आदेश दिया कि वे तुरंत इसे खाली करें क्योंकि अब उसे प्रधानमंत्री आवास बनाने का फैसला किया गया है. उसके बाद अपनी मृत्यु तक यानी 27 मई 1964 तक पंडित नेहरू इसी घर में रहे.


नेहरू ने दिए थे कई प्रतीकात्मक संदेश

इस घर में नेहरू के रहने के कई ज़बर्दस्त प्रतीकात्मक संदेश थे. स्टीव विल्किंसन ने अपनी किताब, ‘आर्मी एंड नेशन’ में लिखा है कि ये सेना की जगह नागरिक सत्ता के सर्वोच्च पद पर काबिज़ होने का प्रतीक था. पं नेहरू ने इसके बाद कई ऐसे कदम उठाए, जिससे भारतीय लोकतंत्र पर सेना हावी न हो पाए, जैसा कि बाद में पाकिस्तान में होता देखा गया.

पिछले महीने पाकिस्तान में हुए आम चुनाव से पहले पाकिस्तानी वैज्ञानिक और अखबारों में कॉलम लिखने वाले परवेज़ हूदभॉय ने मुझे दिए एक इंटरव्यू में कहा, 'भारत को, नेहरू को इस बात का श्रेय देना चाहिए कि उन्होंने सेना को अपने नियंत्रण से बाहर नहीं जाने दिया.' हूदभॉय ने भी तीन मूर्ति भवन में नेहरू के आकर रहने के महत्व को रेखांकित किया. 'इस कदम का प्रतीकात्मक महत्व बहुत बड़ा था. इस फैसले ने बता दिया कि असल में अब बॉस कौन है.' स्वतंत्रता आंदोलन में नेहरू के योगदान को देखते हुए तीनमूर्ति भवन को नेहरू की मृत्यु के दिन ही राष्ट्रीय संग्रहालय बना दिया गया.

फैसला ये भी किया गया कि इसके कैंपस में एक लाइब्रेरी बनाई जाए जो आधुनिक भारत के इतिहास का अध्ययन करने वालों के लिए जानकारी का एक बड़ा स्रोत बने. इसीलिए तीन मूर्ति कॉम्प्लेक्स को अब नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम और लाइब्रेरी के नाम से जाना जाता है.

धड़ों में बंटी राजनीति को साथ लेकर चले थे नेहरू

सचमुच, नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री होने के अलावा बहुत कुछ और भी थे. भारतीय लोकतंत्र के उद्भव और विकास में उनका योगदान है. उस वक्त जब उन्होंने सत्ता संभाली, उनके लिए तानाशाह बन जाना बहुत आसान था. बजाय इसके वे धड़ों में बंटी भारतीय राजनीति को, जो कि जाति, धर्म और भाषा को लेकर विभाजित थी, लेकर चले.

नेहरू की शख्सियत के इस पक्ष की तारीफ तुर्की पत्रकार अहमद एमान यलमान ने भी की है. यलमान ने 1951-52 में हुए पहले आम चुनाव के वक्त भारत का दौरा किया था और देश में उभरती लोकतांत्रिक राजनीति पर टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख भी लिखा था.

बाद में रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में इस लेख को उद्धृत करते हुए लिखा भी, 'यलमान नेहरू की उस नीति के मुरीद थे, जिसके चलते उन्होंने दूसरे एशियाई देशों का अनुसरण नहीं किया और तानाशाही और सत्ता के केंद्रीकरण जैसी व्यवस्थाओं को पास फटकने भी नहीं दिया. साथ ही ऐसा माहौल बनाने में मदद की, जिसमें विरोध और आलोचना के प्रति असहिष्णुता न पनप पाए. प्रधानमंत्री नेहरू ने बड़ी सूझबूझ से इन बुराइयों से खुद को दूर रखा.'

यलमान की सोच आज के युग में बस विडंबना लग सकती है, जब सत्ता का केंद्रीकरण और विरोध और आलोचना के प्रति असहिष्णुता को ऐसे नेतृत्व की पहचान माना जाने लगा है, जो भारत को महाशक्ति बना सकता है. सत्ता के केंद्रीकरण की संस्कृति का सूचक, मोदी सरकार का हाल का फैसला है, जिसके तहत तीन मूर्ति भवन में अब बाकी के सारे पूर्व प्रधानमंत्रियों का भी म्यूज़ियम बनाया जाएगा. यानी तीन मूर्ति भवन अब सिर्फ नेहरू स्मारक या म्यूज़ियम नहीं रहेगा.

नेहरू म्यूजियम की वो अद्वितीयता नहीं रह जाएगी

निश्चित रूप से नया म्यूज़ियम बना, तो तीन मूर्ति कॉम्प्लेक्स में नेहरू म्यूज़ियम की वह ‘अद्वितीयता’ नहीं रह जाएगी, जो अभी है. लोग ये कह सकते हैं कि जब लोकतंत्र के सच्चे मसीहा नेहरू ने लोगों को राजनीति में जगह देने से गुरेज़ नहीं किया, तो मनमोहन सिंह को इस बात पर क्यों आपत्ति हो रही है कि उस विशाल काम्प्लेक्स के एक हिस्से में बाकी के पूर्व प्रधानमंत्रियों को भी कुछ जगह दे दी जाए.

दरअसल मनमोहन सिंह के पास, मोदी सरकार पर ये शक करने के लिए खासी वजहें हैं कि तीन मूर्ति कॉम्प्लेक्स का हुलिया और चरित्र बदल देने की साज़िश चल रही है. पहली वजह तो यही है कि बीजेपी प्रतीकों की राजनीति करने में माहिर है. ध्यान देने वाली बात है कि अब तक कई सार्वजनिक जगहों के नाम बीजेपी बदलवा चुकी है और पार्टी के बड़े और सम्माननीय नेताओं के नाम करवा चुकी है. जैसे, बीजेपी उन वीर सावरकर को असाधारण महत्व दिलवा चुकी है, जिनके द्वारा अंग्रेज़ों से माफी मांगने का साक्ष्य ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में है और जिनके लेख घृणा के ज़हर से भरे पड़े हैं.

मुगलसराय जंक्शन का नाम बदलने का उदाहरण ही ले लीजिए, जिसका नाम अब पं दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन कर दिया गया है. वही दीनदयाल उपाध्याय, जिनके जटिल लेखों के बारे में आज भी लोग नहीं जानते हैं. इनकी कोशिश ये है कि लोगों में उत्सुकता जगे और लोग अब उनके बारे में प़ढ़ने की और ज़्यादा जानने की कोशिश करें.

एक मिसाल और लीजिए. गुजरात के वड़ोदरा में 597 फीट ऊंची सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति का निर्माण किया जा रहा है. नेहरू को तो भूल जाइए, बीजेपी ने महात्मा गांधी या देश के दूसरे बड़े नेताओं की मूर्ति निर्माण के बारे में भी नहीं सोचा. ऐसा इसलिए कि दूसरे नेताओं की मूर्तियां बनतीं, तो पटेल की मूर्ति का प्रतीकात्मक महत्व नहीं रह जाता.

नेहरू का कद छोटा करना उनके योगदान को मिटाने के बराबर

इस नज़रिये से देखें तो तीन मूर्ति कॉम्प्लेक्स में हो रहे बदलावों से नेहरू का कद छोटा हो जाएगा. यह उनके योगदान को छोटा करना होगा, जैसा कि प्रख्यात लेखक नीरद सी चौधरी ने लिखा था, 'नेहरू ने सरकारी मशीनरी और लोगों के बाच सहयोग ही सुनिश्चित नहीं करवाया, बल्कि कई सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक विवादों से देश को बचाया. महात्मा गांधी का नेतृत्व भी अगर होता, तो शायद वे वह नहीं कर पाते, जो नेहरू कर गुज़रे.'

अपनी चिट्ठी में मनमोहन सिंह ने लिखा है कि नेहरू का कद छोटा करना दरअसल उनके योगदान को मिटाने की तरह है. कई लोग मनमोहन सिंह पर अतिशयोक्ति का आरोप भी लगाएंगे. लेकिन मनमोहन सिंह के आरोप हवा में नहीं लगाए गए हैं. दो ताज़ा उदाहरण इसकी तस्दीक करते हैं कि बीजेपी आमूलचूल बदलाव की कोशिश में है. जुलाई 2017 में अपने पहले भाषण में राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने नेहरू का ज़िक्र तक नहीं किया, जबकि उनके समकालीन बी आर अंबेडकर और पटेल का नाम लिया. इसके बाद भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ पर मोदी ने अपने भाषण में नेहरू का नाम तक नहीं लिया. निश्चित तौर पर ये एक चौंका देने वाली और ऐतिहासिक घटना थी.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मन में पहले से ही नेहरू के प्रति नापसंदगी जगज़ाहिर है. ऐसा इसलिए कि नेहरू आरएसएस की उस योजना के खिलाफ दीवार बन कर खड़े हो गए थे, जिसके तहत भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना ही उसका ध्येय था. ये नापसंदगी तब सामने आई, जब महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर लगाया गया प्रतिबंध जुलाई 1949 में हटा लिया गया.

हिंदू पुनर्जागरण को खतरा मानते थे नेहरू

उस वक्त आरएसएस के सरसंघचालक एम एस गोलवलकर ने पटेल को चिट्ठी लिखकर सलाह दी थी कि कांग्रेस और संघ को मिलकर कम्युनिस्टों का मुकाबला करना चाहिए. पटेल तो इस सोच के हामी थे, लेकिन नेहरू इसके खिलाफ थे, क्योंकि वे मानते थे कि देश के लिए साम्यवाद से बड़ा ख़तरा हिंदू पुनर्जागरण का है.

इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक लेख में रामचंद्र गुहा ने गोलवलकर और नेहरू की दो मुलाकातों का बड़ा मज़ेदार ज़िक्र किया है. पहली बार दोनों की मुलाकात 30 अगस्त 1949 को तीन मूर्ति भवन में 20 मिनट चली. मुलाकात के बाद आरएसएस के मुखपत्र ‘द ऑर्गेनाइज़र’ में लीड स्टोरी छपी, ‘टू मेन ऑफ डेस्टिनी मीट: अ हैप्पी ऑगरी फॉर द फ्यूचर ऑफ भारत.’ खबर में इस मुलाकात को एक संत और एक कुशल राजनेता के बीच की मुलाकात बताया गया. बड़े उत्साह के साथ आगे खबर में ये बताया गया कि कांग्रेस और संघ दोनों मिलकर राष्ट्र को सर्वोपरि मानने वाली ताकतों को देशभर में एक करेंगे, जो इस वक्त की मांग है. नेहरू और गोलवलकर की कुछ हफ्तों बाद फिर मुलाकात हुई. ‘द ऑर्गेनाइज़र’ ने इस बार फिर ग़लत खबर छापी और दावा किया कि संघ और कांग्रेस के उद्देश्य एक हैं. अक्टूबर 1949 में नेहरू अमेरिका के दौरे पर गए, तो उनकी अनुपस्थिति में एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने ये बयान दे डाला कि वे आरएसएस के लोगों को कांग्रेस में शामिल होने की इजाज़त दे सकते हैं. ‘द ऑर्गेनाइज़र’ ने फिर खबर छापी और लिखा कि अगर ऐसा हुआ कि संघ के लोग कांग्रेस में शामिल हो पाए, तो इस मुश्किल घड़ी में ये कदम राष्ट्रीय एकता की गारंटी साबित होगा.

लेकिन जैसे ही नेहरू, अमेरिका के दौरे से वापस लौटे, संघ की उम्मीदें धूल-धूसरित हो गईं. नेहरू ने उस वरिष्ठ कांग्रेसी नेता के बयान का खंडन कर दिया. रामचंद्र गुहा कहते हैं, 'एम एस गोलवलकर दरअसल नेहरू के राजगुरू बनने की जुगत में थे और चाहते थे कि संघ के लोग कांग्रेस मे शामिल होकर देश की प्राथमिकताओं को आकार देने का काम करें. सौभाग्य से महात्मा गांधी के उत्तराधिकारियों ने ऐसा कुछ नहीं होने दिया. नेहरू जानते थे कि संघ, सार्वभौमिक मताधिकार, महिलाओं और दलितों को समान अधिकार, अल्पसंख्यकों को समान अधिकार और आधुनिक विज्ञान के हमेशा खिलाफ खड़ा होगा.'

ऐसा नहीं है कि नेहरू हमेशा कम्युनिस्टों के पक्ष में ही रहते थे या उनका झुकाव हमेशा साम्यवाद की ही तरफ रहता था. मशहूर इतिहासकार इरफान हबीब ने बहुत पहले मुझे एक वाकया सुनाया था, जब उन्हें ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी में दाखिला मिला था. ये बात 1954-55 की है. उनकी पासपोर्ट की अर्ज़ी खारिज़ कर दी गई और पासपोर्ट नहीं दिया गया. लिहाज़ा, हबीब ने सीधे नेहरू जी को चिट्ठी लिख दी.

कुछ दिनों बाद, नेहरू जी की तरफ से हबीब को दिल्ली आकर मिलने का न्योता भेजा गया. हबीब साहब याद करते हैं, 'नेहरू ने मुझे कम्युनिस्ट होने के लिए खूब डांटा और कहा कि कम्युनिस्ट संवैधानिकता को नहीं मानते. नेहरू जी ने रूस और चीन की जमकर आलोचना की. हाल ही में वे वहां के दौरे से लौटे थे.' खैर, हबीब साहब को दो दिन में उनका पासपोर्ट मिल गया.

दक्षिणपंथी खुद के हाशिए पर जाने के लिए नेहरू को माफ नहीं किया

वामपंथ के बिलकुल विपरीत, हिंदू दक्षिणपंथियों ने खुद को हाशिए पर किए जाने के लिए और कांग्रेस में हिंदू दक्षिणपंथियों की सेंध लगाकर देश के लोकतंत्र का धर्मनिरपेक्ष चेहरा उलटने की कोशिश को बेकार करने के लिए नेहरू को कभी माफ नहीं किया. और तब संघ ने नेहरू के बारे में बहुत सी अनर्गल अफवाहें फैलाईं, जिनमें से एक ये भी था कि नेहरू बीफ खाते थे.

अक्षय मुकुल अपनी किताब, ‘गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया’ में लिखते हैं कि गो-वध रोकने के लिए जब हिंदू नेताओं का एक दल नेहरू से मिला, तो पहले तो नेहरू ने उन्हें बड़े धैर्यपूर्वक सुना फिर पूछा, 'आप लोग मेरे बारे में ये अफवाह क्यों फैलाते हैं कि मैं बीफ खाता हूं? प्रतिनिधि मंडल ने इस बात से इनकार किया कि उन्होंने कभी ऐसा कुछ किया है. लेकिन नेहरू को सलाह दे डाली कि इन अफवाहों को खत्म करने का सीधा सा तरीका ये है कि गो-वध पर प्रतिबंध लगा दिया जाए.'

खैर, अफवाहें नेहरू के प्रति लोगों के स्नेह को कम नहीं कर सकीं और न ही तीन पीढ़ियों ने उनके बारे में जानना, उन्हें पढ़ना और उनके विचारों को आत्मसात करना छोड़ दिया.

अब, जब सत्ता का लीवर संघ के हाथ में है, वह चाहता है कि नेहरू को उनकी मौत के बाद ही सही, खत्म कर दिया जाए. संघ का सबसे कारगर तरीका है प्रतीकात्मक रूप से नेहरू की वैचारिक उपस्थिति खत्म करे और नेहरूवियन विचारधारा को कमतर करे. इसीलिए 86 बरस के मनमोहन सिंह का, तीन मूर्ति के मुद्दे पर बीजेपी को घेरना, दरअसल ये बताता है कि हमें क्यों नेहरू और इतिहास के लिए लड़ना चाहिए.