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बीजेपी के साथ टीडीपी का रिश्ता खत्म तो होना ही था!

2014 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद आंध्रप्रदेश की जिस तरह अनदेखी हुई है, उससे बीजेपी के साथ टीडीपी का बने रहना मुश्किल था

Dinesh Akula

लोकसभा चुनावों से ठीक पहले अप्रैल 2014 में जब बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व आंध्र प्रदेश में तेलगु देशम पार्टी से चुनाव पूर्व गठबंधन करने के नजदीक था तो उस वक़्त श्रीकाकुलम के पार्टी कैडरों ने इस संभावित गठबंधन का जोरदार विरोध किया. उनका तर्क था कि गठबंधन के बाद उनके जिले में तेलगु देशम पार्टी का प्रभाव बढ़ेगा जो की उन्हें स्वीकार नहीं है. चार साल के बाद जब बुधवार की रात आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने मोदी सरकार से बाहर होने की घोषणा की तो श्रीकाकुलम के बीजेपी कैडरों के चेहरे पर एक बार फिर मुस्कान तैर गई.

आंध्र प्रदेश की बीजेपी इकाई टीडीपी के साथ कभी भी सहज नहीं रही थी क्योंकि उनके फैलाव और मजबूती पर टीडीपी ने ब्रेक लगा दिया था. नायडू के सरकार से बाहर जाने के फैसले ने टीडीपी और बीजेपी दोनों के कैम्पों में राहत पहुंचा दी है क्योंकि टीडीपी और बीजेपी की राज्य इकाई के बीच पिछले चार सालों से संबंध तनावपूर्ण थे.


कब शुरू हुआ था तनाव?

टीडीपी और केंद्र सरकार के संबंधों के बीच तनाव की पृष्ठभूमि दो साल पहले उसी वक्त तैयार होनी शुरू हो गयी थी जब मोदी सरकार ने टीडीपी की उन सभी मांगों पर किसी तरह की प्रतिक्रिया देना बंद कर दिया जो उन्हें केंद्र सरकार ने 2014 में आंध्र प्रदेश के बंटवारे के बाद देने का भरोसा दिलाया था. राजनीतिक मजबूरियों की वजह से केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने टीडीपी की ओर एक बार फिर से ये भरोसा दिलाते हुए हाथ बढ़ाया कि सरकार आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य की जगह विशेष पैकेज देगी.

नायडू ने जेटली की इस बात को स्वीकार कर लिया और दोनों दलों के बीच तनाव कम हो गया. दोनों दलों के बीच फिर मामला बिगड़ा 2018-19 के बजट के दौरान जब केंद्र सरकार ने टीडीपी की किसी भी मांग को मानने से इंकार कर दिया इससे चंद्रबाबू नायडू नाराज हो गए.

बीजेपी ने भी तेलंगाना से 2014 में अलग होने बाद राजस्व में कमी,अमरावती को राजधानी के रूप में विकसित करने के लिए वित्तीय मदद और पोलावरम प्रोजेक्ट के लिए मदद करने की बात से अपने हाथ पीछे खींच लिए. इसके बाद विशेष राज्य के दर्जे की मांग मुख्य मुद्दे के रूप में उभर गया क्योंकि ये मांग आंध्र प्रदेश के लोगों से भावनात्मक रूप से जुड़ी हुई थी.

ये मुद्दा धीरे धीरे आम लोगों के लिए भावनात्मक बनता गया और हैदराबाद के तेलंगाना की राजधानी के रूप में छिनने के बाद लोगों का इस मांग के प्रति समर्थन बढ़ने लगा. वहां के नेताओं के लिए भी ये मुद्दा प्रतिष्ठा का सवाल बन गया.

आग में घी का काम

चंद्रबाबू नायडू के मुख्य विरोधी YSR कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष जगन मोहन रेड्डी की राज्य में विशेष राज्य के दर्जे की मांग को लेकर की गयी पदयात्रा ने इस मामले आग में घी की तरह काम किया. राजनीति के चतुर खिलाड़ी चंद्रबाबू ने इस मुददे की गंभीरता और लोगों की जनभावना को अच्छी तरह से पकड़ लिया जो समझ रहे थे की केंद्र सरकार

इस मुद्दे को लेकर केवल टालमटोल का रवैया अपना कर आंध्र प्रदेश के लोगों के साथ विश्वासघात कर रही है. राज्य में अगले साल होने वाले विधानसभा के चुनावों को देखते हुए नायडू ने अपने सभी विकल्पों पर जोड़ घटाव करके ये तय कर लिया कि उन्हें NDA सरकार से दूरी चुनावों में ज्यादा फायदा पहुंचा सकती है. नायडू ने केंद्र सरकार और बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को इस संबंध में संकेत भेजना शुरू कर दिया लेकिन उनकी मांग पर किसी ने कान देना उचित नहीं समझा.

राजनीतिक दबाव को देखते हुए टीडीपी के पास अपने शक्ति प्रदर्शन के सिवाय कोई चारा नहीं बचा था. पिछले 48 घंटों में दिल्ली में पार्टी के सांसदों और अमरावती में मौजूद पार्टी के विधायकों ने नायडू के सरकार से बाहर आने के फैसले को पूरा समर्थन दिया. हालांकि राजनीति के माहिर खिलाड़ी नायडू केंद्र के साथ मोलभाव करने में विशेषज्ञ रहे है और वो जानते हैं कि अचानक समर्थन वापस लेने का क्या हश्र हो सकता है.

लेकिन मुख्यमंत्री नायडू इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर पीएम मोदी उनके या उनकी मांगों के प्रति स्नेह प्रदर्शित क्यों नहीं कर रहे. पिछले चार सालों में नायडू 29 बार मदद के लिए दिल्ली का चक्कर लगा आए लेकिन पीएम मोदी से मुलाकात महज कुछ बार ही हो सकी.

कभी किंगमेकर अब मुश्किल में

1996-98 तक किंगमेकर रहे और 1998 के बाद से बीजेपी के मुख्य सहयोगी रहे नायडू इस बार मुश्किल में हैं. कभी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कथित रूप से इंतज़ार करवाने वाले नायडू 2016-18 के दो सालों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से महज़ दो बार मिल सके हैं. नायडू की दो मुलाकातों का अंतर 20 महीने का है जिससे नायडू नाराज हैं.

चुनाव प्रचार के दौरान मोदी नायडू और आंध्र प्रदेश के पक्ष में पूरी तरह से थे. यहां तक की तिरुपति रैली में मोदी ने इनको समर्थन और पूरी तरह सहयोग करने की बात कही थी. मोदी आंध्र प्रदेश की नई राजधानी अमरावती के स्थापना कार्यक्रम में मुख्य अतिथि भी बने.

मोदी अपने लोकसभा क्षेत्र वाराणसी से अपने साथ वहां की मिट्टी और पानी भी कार्यक्रम में लेकर पहुंचे और वहां से उन्होंने ये सन्देश दिया कि आंध्र प्रदेश का भविष्य एनडीए सरकार के साथ उज्जवल है और उसे प्रगति के पथ पर बढ़ने के लिए हर संभव सहायता दी जाएगी.

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार नायडू इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि उनके राजनीतिक विरोधी जगनमोहन रेड्डी के खिलाफ ईडी के मुकदमों में तेजी आएगी जिससे उनकी और उनकी पार्टी की कमर टूट जाएगी.

ऐसा हुआ नहीं उल्टे जगन की नजदीकियां मोदी के साथ बढ़ गई. नायडू इस घटना को लेकर सचेत हो गए. आंध्र प्रदेश विधानसभा की सीटें न बढ़ाए जाने से भी वो नाराज थे और विशेष राज्य का दर्जा देने से इंकार, वो आखरी वजह बन गयी जिसने नायडू को मोदी सरकार के साथ अपने संबंधों की समीक्षा को बाध्य कर दिया.

ब्रांड बनने की तैयारी में नायडू 

अब जबकि लोकसभा और राज्य के विधानसभा चुनावों में केवल एक साल का वक़्त बचा है नायडू खुद को एक नए ब्रांड के रूप में पेभ करने में जुटे हैं. ऐसे में इस मुकाम पर वो ऐसा कुछ भी नकारात्मक नहीं करना चाहते है जिससे उनके सपनों पर असर पड़े.

टीडीपी को पता है एनडीए सरकार कि नीतियों कि वजह से समाज के कई वर्ग नाखुश हैं खास करके किसान. गुजरात विधान सभा चुनावों में बीजेपी की घटी लोकप्रियता और राजस्थान उपचुनावों में पार्टी की करारी हार इस ओर इशारा भी कर रही है. हालांकि नार्थ ईस्ट राज्यों में बीजेपी के अच्छे प्रदर्शन से नायडू को फैसला लेने थोड़ा वक़्त लगा लेकिन पूरा गणित लगाने के बाद आखिरकार नायडू ने फैसला ले ही लिया.

इस फैसले के दो और पहलू है, पहला- बीजेपी राज्य में नहीं बढ़ रही है और ये टीडीपी के लिए कम से कम सत्ता के लिए तो फिलहाल कोई चुनौती नहीं है और दूसरा बीजेपी से दूरी उसे मुसलमानों के करीब ले जाएगी जैसा की नंदयाल उपचुनावों में देखने को मिला था ऐसे में बीजेपी को टीडीपी के पीछे भागने चाहिए न की टीडीपी को बीजेपी के पीछे

अब जबकि मोदी सरकार से टीडीपी के मंत्री बाहर हो रहे हैं सबकी नजरें नायडू के अगले कदम पर टिकीं हैं कि कब वो NDA से बाहर आने का फैसला लेते हैं. वो इस फैसले के लिए समय ले सकते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि किसी भी क्रिया के प्रति कभी भी प्रतिक्रिया हो सकती है और राजनीति में तो कुछ भी असंभव नहीं है.

(ये तेलगु के प्रतिष्ठित चैनल TV5 के संपादक हैं)