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टीडीपी का महासम्मेलन: राष्ट्रीय फलक पर चमकने का चंद्रबाबू का सपना 'मिशन इंपॉसिबल' है

आंध्र प्रदेश के सीएम चंद्रबाबू नायडू ने दावा किया है कि 2019 में केंद्र में सरकार बनाने में टीडीपी का अहम रोल रहेगा.

K Nageshwar

आंध्र प्रदेश के सीएम चंद्रबाबू नायडू ने दावा किया है कि 2019 में केंद्र में सरकार बनाने में टीडीपी का अहम रोल रहेगा. उन्होंने ये दावा अपनी पार्टी के महासम्मेलन या महानाडु में किया. लेकिन केंद्र और राज्य की राजनीति उस दौर से बहुत आगे निकल चुकी है, जब यूनाइटेड फ्रंट बना था या जब एनडीए-1 सत्ता में आया था. तब से अब की राजनीति में बहुत बदलाव आ चुका है. ऐसे में नायडू का ये मिशन असंभव सा लग रहा है.

वैसे चंद्रबाबू नायडू के लिए ऐसा दावा करना मजबूरी थी. क्योंकि उन्हें अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाना था. चंद्रबाबू नायडू लंबे वक्त के बाद चार साल पहले सत्ता में लौटे थे. इसमें राष्ट्रीय राजनीति में उनके दांव ने भी अहम रोल निभाया था.


इस लेखक ने 'इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली' पत्रिका में लिखे अपने लेख में नायडू की वापसी को विस्तार से समझाया था, 'सीमांध्र के लोग खुद को मजबूर और असहाय महसूस कर रहे हैं. राज्य में इसकी वजह से ऐसा माहौल बना कि सीमांध्र को अपने विकास के लिए केंद्र से मदद की सख्त दरकार है. चंद्रबाबू नायडू ने सियासी कौशल का परिचय देते हुए नरेंद्र मोदी से चुनाव से पहले ही तालमेल बिठा लिया. इस तरह नायडू ने एक खतरे को मौके में तब्दील कर दिया. पूरे देश में मोदी लहर के चलते सीमांध्र के वोटर को भी ये लगा कि चंद्रबाबू नायडू ने बीजेपी के साथ मिलकर केंद्र की राजनीति के लिए जो गठबंधन बनाया है, उसकी मदद से वो बचे-खुचे बिना राजधानी वाले आंध्र प्रदेश के लिए मदद जुटा सकते हैं'.

अब टीडीपी, केंद्र में सरकार चला रही बीजेपी के साथ नहीं है. आज भी सियासी फायदे के लिए सीमांध्र के वोटर को असहाय होने का एहसास कराया जा रहा है. अब चंद्रबाबू नायडू को वोटर को ये समझाना है कि बीजेपी से नाता तोड़ने के बाद भी आंध्र प्रदेश को कोई नुकसान नहीं होगा. यही वजह है कि नायडू ये दावा कर रहे हैं कि 2019 में केंद्र में सरकार बनाने में टीडीपी का अहम रोल रहेगा. लेकिन आज के सियासी हालात टीडीपी की महत्वाकांक्षा और चंद्रबाबू नायडू के दावे से इतर हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि केंद्र में संयुक्त मोर्चे और राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार बनाने में टीडीपी ने बहुत अहम भूमिका अदा की थी. कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बनाने वाले संयुक्त मोर्चे के संयोजक चंद्रबाबू नायडू थे. इसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार को बने रहने के लिए चंद्रबाबू नायडू की पार्टी के समर्थन की सख्त दरकार रही थी.

लेकिन अब के सियासी हालात ऐसे हैं कि टीडीपी की राह आसान नहीं दिखती. संयुक्त मोर्चे और राष्ट्रीय मोर्चे के दौर में केंद्र में कांग्रेस का बोलबाला था. वहीं दूसरी पार्टियां कांग्रेस से कमतर थीं. कांग्रेस की सत्ता को चुनौती देने वाला कोई नहीं था. बीजेपी का उभार तब शुरू ही हुआ था. ऐसे में किसी गैर-कांग्रेसी राष्ट्रीय पार्टी की नामौजूदगी को टीडीपी जैसे क्षेत्रीय दल पूरा कर रहे थे. वो कांग्रेस विरोध की राजनीति के अगुवा थे.

1980 और 1990 के दशक में बहुत से क्षेत्रीय दल भी नहीं थे. लेकिन अब बड़ी तादाद में क्षेत्रीय दल बन गए हैं, जिनकी अपने इलाकों में अच्छी-खासी ताकत है. जैसे कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी आज टीडीपी के मुकाबले ज्यादा मजबूत क्षेत्रीय दल हैं. ऐसे में आज टीडीपी की क्षेत्रीय दलों के बीच वो हैसियत नहीं रह गई है, जो 90 के दशक में थी.

इस बीच आंध्र प्रदेश के बंटवारे की वजह से तेलुगू पार्टियों का सियासी कद घट गया है. संयुक्त आंध्र प्रदेश में लोकसभा की 42 सीटें थीं. ऐसे में अपने अच्छे दिनों में टीडीपी इनमें से ज़्यादा सीटें जीतकर अपनी राजनीतिक हैसियत और बढ़ा सकती थी. लेकिन बचे-खुचे आंध्र प्रदेश में अब केवल 25 लोकसभा सीटें हैं. इस वजह से भी टीडीपी की ताकत घट गई है. आज टीडीपी की लोकप्रियता भी इतनी नहीं है कि वो राज्य की सभी सीटें जीत ले. या, 25 में से ज्यादा सीटें जीत ले.

राज्य की राजनीति में भी काफी बदलाव आ गया है. संयुक्त आंध्र प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस और टीडीपी आमने-सामने हुआ करते थे. ऐसे में कांग्रेस विरोधी खेमे में टीडीपी का कद बड़ा हुआ करता था. लेकिन आज बचे हुए आंध्र प्रदेश की राजनीति में टीडीपी को वायएसआर कांग्रेस कड़ी टक्कर दे रही है, जिसकी अगुवाई वाय एस जगनमोहन रेड्डी के हाथ में है.

आज की तारीख में राष्ट्रीय दलों के पास विकल्प है कि वो अपने क्षेत्रीय साथी बदल लें. यही वजह है कि टीडीपी के साथ छोड़ने से बीजेपी को फर्क नहीं पड़ा. एनडीए के नेता कई बार ये बात कह चुके हैं कि तमाम ऐसे दल हैं, जो टीडीपी के अलग होने के बाद उनके साथ आना चाहते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि चंद्रबाबू नायडू एक असरदार क्षेत्रीय नेता हैं. लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में उनका कद इसी आधार पर तय होगा कि उनके पास कितनी सीटें हैं. समाजवादी पार्टी, बीएसपी, टीएमसी या फिर तमिल पार्टियों की हैसियत टीडीपी से ज्यादा है. इसलिए राष्ट्रीय दलों की दिलचस्पी नायडू से ज्यादा दूसरे दलों में है.

इधर, आज टीडीपी के लिए 2014 में जीती सीटें बचाना भी मुश्किल हो रहा है. बीजेपी और अभिनेता पवन कल्याण ने टीडीपी का साथ छोड़ दिया है. इसके अलावा चार साल से सरकार चला रहे नायडू के खिलाफ लोगों में नाराजगी भी है. ऐसे में टीडीपी के लिए 2014 में जीती सीटें बचाना ही मुश्किल होगा. नई सीटें जीतना तो दूर की बात है.

आज राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों की वो हैसियत नहीं रह गई है, जो कभी हुआ करती थी. इसके बाद क्षेत्रीय दलों का कभी इस खेमे में आना, कभी उस पाले में जाना भी उनके खिलाफ गया है. टीडीपी ने भी कई बार केंद्र की राजनीति में खेमे बदले हैं. इसी वजह से नायडू और उनकी पार्टी की विश्वसनीयता भी सवालों के घेरे में है.

ऐसा नहीं है कि चंद्रबाबू नायडू को इन बातों का एहसास नहीं. फिर भी उन्होंने ये दावा कर दिया कि राष्ट्रीय राजनीति में टीडीपी का अहम रोल रहेगा. ये कोई खयाली पुलाव नहीं, बल्कि एक चतुर सियासी दांव है. ताकि वोटरों को लुभाया जा सके. आज आंध्र प्रदेश के लोगों की नजर में ये बात बहुत अहम है कि राज्य के विकास के लिए केंद्र की मदद जरूरी है. ताकि वो बंटवारे से लगे आर्थिक झटके से उबर सके.