बदनाम सन्निपात बुखार इसी लिए लाइलाज समझा जाता था क्योंकि एक लक्षण के आधार निदान कर पर रोगी का इलाज असंभव होता था. कई प्रकार के दोषों के असंतुलन से ही इसका प्रकोप भयंकर होता था.
आज ऐसा ही कुछ तमिलनाडु में देखने को मिल रहा है.
निश्चय ही स्थिति सामान्य होने के साथ राज्यपाल की भूमिका अौर विधानसभा अध्यक्ष की निष्पक्षता से जुड़ी बहस ठंडी पड़ जाएगी. जयललिता के आकस्मिक निधन से तमिलनाडु की राजनीति में न केवल एक प्रकट शून्य की पूर्ति भी केंद्रीय मुद्दा नहीं रहेगी लेकिन जो जटिल संवैधानिक सवाल भी हमारे सामने खड़े हो गए हैं उनका समाधान सहज नहीं अौर नही इनका असर तमिलनाडु तक सीमित रहने वाला है.
किसी नामजद उत्तराधिकारी की गैरमौजूदगी में एआइएडीएमके में सत्ता का हस्तांतरण आसानी से होगा इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी. तब भी जिस तरह के अभद्र दृश्य विधानसभा में अौर उसके बाहर देखने को मिले हैं, वह तमिलनाडु की फिल्मी राजनीति की परंपरा में भी अभूतपूर्व हैं.
न तो सदन में धक्कामुक्की पहली बार हुई अौर न ही मेजें पहली बार टूटीं. कमीजें पहले भी फाड़ी जा चुकी हैं अौर धोतियां इससे पहले भी खुली हैं.
चिंता का विषय यह है कि हम इस तरह सदन की गरिमा के क्षय अौर अवमानना के आदी होते जा रहे हैं. विपक्ष में कोई भी दल हो, वह अपनी कोई संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं समझता. संघर्ष को सदन से सड़क पर ले जाने की जिद या न्यायालय के निर्णय को जनतसा की अदालत में चुनौती देने का लालच हमें अराजकता के कगार तक पहुंचा चुका है.
जलीकट्टू आंदोलन में सरकार के नरम पड़ने ने अोवैसी को तिहरे तलाक के बारे में भी अल्पसंख्यक समुदाय की जनभावनाअों को देश के कानून अौर मानवाधिकारों से ऊपर रखने की भड़काऊ मांग करने को प्रोत्साहित किया.
शशिकला की मांग थी कि उनके समर्थकों की गिनती कर राज्यपाल उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवाएं. राज्यपाल ने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया.
संवैधानिक मामलों के जानकारों के बहुमत के अनुसार राज्यपाल के पास कोई विकल्प नहीं था सिवाय सदन में बहुमत के दावे के परीक्षण के. अपने विवेक के अनुसार वह इस मांग को विचाराधीन रख अनियत काल तक टाल नहीं सकते.
विडंबना यह है कि सोली सोराबजी सरीखे प्रतिष्ठित विधिवेत्ता यह सुझा रहे थे कि चूंकि शशिकला भ्रष्टाचार के मामले में आरोपी हैं अौर उनकी याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला जल्दी ही आने वाला है, इसलिए राज्य को बारंबार उथल पुथल से बचाने के लिए राज्यपाल ‘कुछ समय तक’ अपना निर्णय स्थगित रख सकते हैं.
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में अभियुक्त शशिकला को अपराधी करार दिया अौर चार साल के कारावास का दंड सुनाया लेकिन इस फैसले के आलोक में राज्यपाल के विलंब को जायज नहीं ठहराया जा सकता.
विधानसभा (या संसद) में स्पष्ट बहुमत को प्रमाणित करने के लिए न्यायपालिका के हस्तक्षेप को आमंत्रित करना निश्चय ही खतरनाक प्रवृत्ति है. आपराधिक मामले में न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा या इसके पूर्वानुमान के आधार पर ‘विवेकानुसार’ निर्णय को टालना तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता. दुर्भाग्य से तमिलनाडु में उत्तराखंड अौर अरुणाचल प्रदेश के दुखद अनुभव की ही पुनरावृत्ति हुई है.
राज्यपाल की चेन्नई से गैरहाजिरी ने एक अौर संकट को जन्म दिया. जब ताजपोशी की रस्साकशी जारी थी तब तमिलनाडु की नौकरशाही के लिए यह संकट पैदा हो गया था कि वह किसका आदेश मानें? कार्यवाहक मुख्यमंत्री होने का दावा करने वाले पन्नीरसेल्वम का या बहुमत संपन्न पार्टी के नेता भावी मुख्य मंत्री का? अब तक राज्य में नौकरशाहों की जमात जयललिता के चहेते अफसरों अौर डीएमके के राज में सत्तासुख भोगने वाले अधिकारियों में बंटी थी.
व्यक्तिगत स्वामिभक्ति को योग्यता से कहीं अधिक महत्व दिया जाता रहा है. जयललिता के निधन के बाद यह बिरादरी असंजस की स्थिति में है. इस बात की संभावना प्रबल है कि भविष्य में त्रिशंकुवत् अधर में लटके नेता अखिल भारतीय सेवाअों के अधिकारियों के लिए ऐसा ही धर्म संकट पैदा कर सकते हैं. जिसे अौपनिवेशिक शासन काल में सरकार के इकबाल को बुलंद रखने वाला इस्पाती ढांचा कहा जाता था उसे आज जंग खा चुका है.
नाममात्र को संघलोक सेवा आयोग अौर गृह मंत्रालय के कार्मिक विभाग द्वारा नियंत्रित आला अफसर यह बात भली-भांति जानते हैं कि तेजी से ऊपर उठने अौर समकालीनों को पछाड कर आगे बढ़ने का रास्ता राज्य सरकार के आका ही प्रशस्त करते हैं. उत्तर प्रदेश हो या हरियाणा, दिल्ली हो या पश्चिम बंगाल अथवा गुजरात सभी जगह किसी न किसी नेता के नाक का बाल ही सरकार चलाता नजर आता है.