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सुरेश प्रभु : बीजेपी पार्टी तोड़कर लाई, वो उम्मीदें तोड़ कर चल दिए

अपने पहले कैबिनेट विस्तार में बीजेपी सुरेश प्रभु को बहुत उम्मीदों से लेकर आई थी

Vivek Anand

सुरेश प्रभु से लोगों को बड़ी उम्मीदें थीं. उसकी वजह शायद यही है कि भारतीय रेल आम लोगों की जिंदगी से जुड़ी है. रेल का किराया, उसका देरी से चलना, रेलवे की सुविधाएं एक बड़े वर्ग पर असर डालती हैं. इसी वजह से तकरीबन हर सरकार में रेल मंत्रालय की जिम्मेदारी अहम मानी गई.

सुरेश प्रभु को जब रेल मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई उस वक्त राजनीतिक परिस्थितियां कुछ ऐसी बन गई थी, जिसने सीधे तौर पर आम भारतीय जनमानस को उम्मीदों से भर दिया था. ऐसा लगने लगा था कि शायद रेल मंत्रालय के काया कल्प का वक्त नजदीक है और अब रेलवे की हालत पहले जैसी नहीं रह जाएगी.


2014 में मोदी सरकार अपने शानदार बहुमत के साथ अस्तित्व में आई. पहले कैबिनेट विस्तार में रेलवे की जिम्मेदारी सुरेश प्रभु को दी गई. सुरेश प्रभु अचानक से लाइम लाइट में इसलिए आ गए क्योंकि शिवसेना अपने कोटे से उन्हें मोदी कैबिनेट में शामिल करवाने को राजी नहीं थी.

उस वक्त बीजेपी शिवसेना के रिश्ते अच्छे नहीं चल रहे थे. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले शिवसेना के साथ खटपट के बावजूद बीजेपी सुरेश प्रभु को किसी भी तरीके से मोदी सरकार की आसमान छूती आशाओं से भरी नई कैबिनेट में शामिल करवाना चाहती थी.

बीजेपी की इस कवायद का संदेश ये जा रहा था कि एक काबिल शख्स को रेलवे की जिम्मेदारी देने के लिए बीजेपी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को तिलांजली दे रही है. रेलवे के अच्छे दिनों की आस में लगी जनता को बीजेपी मोरल ग्राउंड पर एक अच्छा संदेश देने में कामयाब रही.

सुरेश प्रभु को रेल मंत्रालय का प्रभार देना था. लेकिन शिवसेना ने अड़चन पैदा कर रखी थी. आखिर में कैबिनेट विस्तार से पहले सुरेश प्रभु बीजेपी में शामिल हो गए. बीजेपी ने यूपी से उन्हें राज्यसभा में भेज दिया और भारतीय रेल को बतौर रेलमंत्री सुरेश प्रभु मिले. उस वक्त मोदी कैबिनेट के दो मंत्रियों को सबसे ज्यादा मीडिया फुटेज मिली थी.

पहले गोवा के सीएम पद से निकालकर लाए गए मनोहर पर्रिकर, जिनके सीएम होते हुए भी स्कूटर से चलने से लेकर साधारण कपड़े लत्ते पहनने की सादगी चर्चा में थी. तो दूसरे सुरेश प्रभु, जिन्हें बीजेपी ने रेलमंत्री बनाने के लिए उनकी पार्टी ही बदलवा दी थी.

मनोहर पर्रिकर की ही तरह सुरेश प्रभु की छवि एक सीधे सादे सादगी पसंद नेता की थी, जिन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रालय में कई अहम जिम्मेदारियां निभाई थीं.

2015 के रेल बजट में सुरेश प्रभु ने एक भी नई ट्रेन का ऐलान नहीं किया. इस रेल बजट के बाद अच्छे खासे विशेषज्ञों को ये नहीं सूझ रहा था कि इसका विश्लेषण किस तरह से किया जाए.

दरअसल इस रेल बजट में कुछ था ही नहीं. फिर भी जनता में अच्छा संदेश गया. बजट को ऐसे पेश किया गया कि इस बार पुरानी सरकारों की लीक से हटकर रेल बजट पेश किया गया है.

ये बताया गया कि लोकलुभावन रेल बजट के बजाय सरकार का जोर रेल की सुरक्षा और सुविधाओं पर है. इसी में बुलेट ट्रेन का सुनहरा ख्वाब भी था, जो सरकारी कागजों में कुंलाचें भरते हुए मोदी सरकार के अच्छे दिनों के वादे को जमीन पर उतारने की कोशिश करता दिख रहा था.

कुछ बिंदुओं में 2015 के रेल बजट में ऐलान था कि यात्री रेल किराया और माल भाड़ा नहीं बढ़ेगा. 60 दिन के बजाय अब 120 दिन पहले टिकट की बुकिंग की जा सकेगी. पेपरलेस टिकटिंग पर जोर होगा. राजधानी और शताब्दी समेत सभी ट्रेनों की औसत स्पीड बढ़ाई जाएगी. भीड़भाड़ वाली ट्रेनों में और डिब्बे जोड़े जाएंगे. वरिष्ठ नागरिकों के लिए लोअर बर्थ की सीटें अधिक आरक्षित होंगी. 400 रेलवे स्टेशनों पर वाई-फाई सुविधा होगी. 10 सैटेलाइट रेलवे स्टेशन विकसित होंगे.

2015 के रेल बजट में जनता को कुछ भी नहीं मिला. वो बस सुरक्षा और सुविधा के वायदे में ही खुश थी. जनता खुशफहमी में थी कि नए ट्रेनों पर जोर न होने से अब शायद पुरानी ट्रेनों के दिन ही बदल जाएं. गाड़ियां समय पर चलने लगे. ट्रेन एक्सीडेंट कम हो जाए. हालांकि एक साल बीत जाने के बाद भी रेल की हालत नहीं बदली और एक और रेल बजट आ गया.

2016 के रेल बजट में सुरेश प्रभु ने फिर रेल किराए में कोई बढ़ोतरी नहीं की. हालांकि कुछ नए ट्रेनों को चलाने का ऐलान जरूर किया. कुछ अहम घोषणाएं ये रहीं कि रेलवे ने चार नई कैटेगरी में ट्रेनों की घोषणा की.

ट्रेनों के हर क्लास में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण मिला, 2020 तक 95 फीसदी ट्रेनों के सही समय पर चलाने का एलान हुआ, हर कोच में जीपीएस लगाए जाने की घोषणा हुई. अहमदबाद- मुंबई के बीच हाई स्पीड ट्रेन चलाने का वादा किया. 2020 तक लोगों को जब चाहे तब टिकट मिलने का दावा हुआ.

सुरेश प्रभु के इस बजट में भी ठोस बातों का अभाव दिखा. लेकिन उम्मीद बस इस बात से बंधी थी कि रेलवे को घाटे से निकालने और इतने सालों से ठप पड़े सिस्टम में जान लाने के लिए शायद नई घोषणाओं से ज्यादा कामकाज को सुधारने पर जोर देकर सरकार एक अच्छा कदम उठा रही है.

इस बीच हुआ ये कि रेलवे चालाकी भरे कुछ फैसले लेकर जनता की जेब पर चोरी-छिपे पैसे निकालने में जरूर लग गई. बजट में किराया न बढ़ाने का ऐलान तो हुआ. लेकिन बजट के बाद घुमा-फिराकर किराया बढ़ाया जाने लगा.

राजधानी जैसी ट्रेनों में फ्लेक्सी फेयर सिस्टम के जरिए किराया बढ़ने लगा, टिकट कैंसिलेशन पर पैसे वापसी कम हो गए, रिर्जवेशन के कुछ नियम कायदे बदलकर रेलवे अपना पैसा बचाने लग गया.

2017 में रेल बजट को आम बजट में मिला दिया गया. मोदी सरकार के इस ऐतिहासिक फैसले ने रेल बजट से रही सही उम्मीद को भी खत्म कर दिया. क्योंकि अब फोकस में कहीं रेल बजट रहा ही नहीं.

2017 में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ही जो कुछ जरूरी घोषणाएं कीं उनमें यात्रियों की सुरक्षा पर एक लाख करोड़ रुपए खर्च करना, आईआरसीटीसी के जरिए ई-टिकट बुकिंग्स के दौरान अलग से सर्विस चार्ज नहीं लगना, रेलवे की तीन बड़ी कंपनियां- आईआरसीटीसी, आईआरएफसी और इरकॉन का शेयर बाजार में उतारने का एलान, 1.31 लाख करोड़ रेलवे के विकास पर खर्च किए जाने का ऐलान शामिल था. इस बार भी रेलवे का मुख्य फोकस- यात्री सुरक्षा, सफाई और विकास पर रखने की घोषणा हुई.

करीब 3 साल के अपने कार्यकाल में सुरेश प्रभु का हर बार फोकस सुरक्षा और सुविधा पर ही रहा. लेकिन भारतीय रेलों में इसका रत्तीभर भी असर नहीं दिखा. न ट्रेनों का लेट से चलना कम हुआ, न ट्रेन दुर्घटनाएं कम हुईं, न सुरक्षा चूक में कमी आई, न ट्रेनों के खाने-पीने की व्यवस्था ठीक हुईं. कैग की रिपोर्ट में ट्रेनों के खाने को इंसानों के खाने लायक तक नहीं माना गया.

हादसे पर हादसे होते रहे. सिर्फ कानपुर रूट में कई बड़ी ट्रेन दुर्घटनाएं हुईं. अब सुरेश प्रभु ने इस्तीफे का एलान किया है. सुरेश प्रभु रेलवे के कायाकल्प की उम्मीद से भरी जनता के सपने समेट कर जा रहे हैं. अफसोस होता है कि चलता है  का जमाना अब भी जारी है, पता नहीं बदल गया  का जमाना कब आएगा.