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सुप्रीम कोर्ट जस्टिस मामला: सरकार की चुप्पी और विपक्ष के लिए मौका

डी राजा की मुलाकात ने पूरे मामले को राजनीतिक रंग दे दिया है.

Sanjay Singh

शुक्रवार को जब चार सबसे सीनियर जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर भारत के चीफ जस्टिस (सीजेआई) दीपक मिश्रा के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद कर भारत के न्यायिक इतिहास में एक सनसनीखेज अध्याय लिखा तो ऐसा लगा कि भले ही न्यायपालिका के सर्वोच्च केंद्र के प्रशासन में बहुत बड़ा संकट खड़ा हो गया है, मुख्यधारा के राजनीतिक दल ऐसे गंभीर मुद्दे का राजनीतिकरण करने की कोशिश नहीं करेंगे.

लेकिन देर शाम कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर जस्टिस बी.एच. लोया की मौत के मामले की जांच सबसे वरिष्ठ जज से कराने की मांग करने और चार जजों द्वारा उठाए गए मुद्दे कि भारतीय लोकतंत्र खतरे में है की “पड़ताल” करने की मांग ने पूरे विवाद को राजनीतिक रंग दे दिया. यहां बता दें कि सोहराबुद्दीन शेख केस में अमित शाह की कथित संलिप्तता के मामले की सुनवाई कर रहे जज लोया की हार्ट अटैक से मौत हो गई थी. हालांकि यह घोषित किया गया था कि उनकी मौत कार्डियक अरेस्ट से हुई थी, कांग्रेस ने चार जजों द्वारा चीफ जस्टिस पर किए हमले का सिरा थामते हुए मांग की है कि इस मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ जज द्वारा की जाए.


यह कह कर कि मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ जज से कराई जाए, कांग्रेस ने व्यावहारिक रूप से यह कहा है कि मामले की जांच इन्हीं चार जजों से कराई जानी चाहिए- जो चीफ जस्टिस के साथ ही सबसे वरिष्ठ जज हैं और जिन्होंने विद्रोह का परचम उठाया है. यह तथ्य ध्यान में रखते हुए कि राहुल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस से पहले वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम, कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, मनीष तिवारी (ये सभी वकील से अपनी पार्टी में राजनेता बने हैं) और अहमद पटेल के साथ लंबी बैठक के बाद की, पता चलता है कि जजों की सार्वजनिक नाराजगी को वह और उनकी पार्टी कितनी गंभीरता से ले रही है. कांग्रेस को इस मुद्दे को राजनीतिक बनाने में कोई गुरेज नहीं है, जिसे कि अन्यथा न्यायपालिका को खुद सुलझा लेने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए था.

राहुल गांधी की प्रेस कॉन्फ्रेंस और उसके बाद की घटनाएं इशारा देती हैं कि कांग्रेस और इसके कुछ राजनीतिक साझीदार हमारे सर्वोच्च न्यायिक प्रशासन के इस संकट से राजनीतिक फायदा उठाने की तैयारी कर रहे हैं. विचार कीजिए कि कांग्रेस के, इसकी जितनी क्षमता है के साथ, मैदान में कूदने से पहले क्या हुआ. (एआईसीसी मुख्यालय पर राहुल मंच पर और पी. चिदंबरम, अहमद पटेल, कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, मनीष तिवारी व अन्य लोग दर्शकों में). इसके संकेत कि यह राजनीतिक मुद्दा बन चुका है, पहले ही मिल गए थे.

अपनी शिकायतों के साथ जनता के बीच जाने और अपनी बात रखने में जस्टिस चेलमेश्वर ने तीन साथी जजों की अगुवाई की, उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के राज्यसभा सांसद डी. राजा को अपने घर पर बुलाया और उन्हें बताया कि आजकल उन्हें कौन सी बात व्यथित कर रही है. इस तथ्य ने कि राजा जस्टिस चेल्मेश्वर के सरकारी आवास पर गए थे और उनसे दरवाजे पर हाथ मिलाकर विदा हो रहे हैं, इस दृश्य को कुछ चैनलों ने रेकॉर्ड किया है,  पूरे घटनाक्रम को एक राजनीतिक रंग दे दिया है.

डी राजा

अपनी कई मीडिया ब्रीफिंग में डी.राजा ने कहा कि, “मैंने प्रेस कॉन्फ्रेस देखी. मैंने चेलमेश्वर को फोन किया कि उन्हें क्या चीज परेशान कर रही है. उन्होंने कहा अगर आप आसपास ही कहीं तो यहां आ जाइए.” राजा यहीं नहीं रुके. उन्होंने यहां तक बताया कि इस मुद्दे पर क्यों संसद में चर्चा किया जाना जरूरी है. उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायपालिका में भरोसे के संकट का समाधान ढूंढने की जिम्मेदारी संसद पर है.

“क्या आप समझते हैं कि एक राजनीतिक शख्सियत के तौर पर हमें खामोश रहना चाहिए? एक राजनीतिक शख्सियत होने, देश में राजनीतिक पार्टी का प्रतिनिधित्व करने और लोकतंत्र के भविष्य की हिफाजत के लिए क्या हमें यह नहीं करना चाहिए?

सवाल है कि: क्या सुप्रीम कोर्ट के दूसरे सबसे सीनियर जज को विपक्ष में बैठे वामपंथी संगठन, जो कि कांग्रेस की सहयोगी भी है, के सदस्य से मिलना चाहिए था और भारत के चीफ जस्टिस के खिलाफ कुछ जजों के मतभेदों पर चर्चा करनी चाहिए थी?

न्यायपालिका के मामले में राजनीतिक दखल की सख्ती से मनाही है, चाहे वो उच्चतर न्यायपालिका हो या निचली न्यायपालिका. राजा और जस्टिस चेलमेश्वर की मुलाकात ने इस अलंघनीय नियम को तोड़ दिया है. इस मुलाकात ने ऐसा आभास दिया कि विपक्षी दलों के कुछ धड़े सीजेआई के खिलाफ लड़ाई में चार जजों की तरफ हैं. यह बहुत अच्छी स्थिति नहीं है. इससे जजों और संबंधित पार्टियों के लिए ढेर सारे सवाल खड़े हो जाते हैं. ध्यान रखें कि सुप्रीम कोर्ट ना सिर्फ संविधान और कानून का संरक्षक है, बल्कि ऐसी संस्था है जिसमें भारत के लोगों ने भरोसा और आस्था का भी निवेश किया है. प्रेस कॉन्फ्रेंस और राजा की सीनियर जज से मुलाकात के बाद व्यथित करने वाले वह सारे सवाल जो उठ रहे हैं, सर्वोच्च न्यायपालिका में आम जन के भरोसे को चोट पहुंचा रहे हैं.

जज से मुलाकात पर अपना पक्ष रखते हुए राजा ने रिपब्लिक टीवी से कहा, वह वहां “जज की नाराजगी की वजह जानने” गए थे, क्योंकि मैं “संसद का प्रतिनिधित्व करता हूं.” राजा का संसद का प्रतिनिधित्व का बयान इतना बड़ा है कि इसकी अनदेखी करना मुश्किल है. वह खुद की तरफ से काम कर रहे थे. उन्हें संसद के दोनों सदनों- लोक सभा स्पीकर या राज्यसभा चेयरमैन-  में से किसी ने जिम्मेदारी नहीं सौंपी थी. राजा राज्यसभा में (वह तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे. जयललिता के समर्थन से चुने गए थे) सिर्फ सीपीआई का प्रतिनिधित्व करते हैं. राज्यों में सीपीआई का इतना संख्या बल भी नहीं है कि वह अकेले दम पर एक भी राज्यसभा सदस्य को चुनाव जिता सके. लोकसभा में भी सीपीआई का सिर्फ एक सांसद है.

लेकिन फिर, राजा एक समझदार वरिष्ठ नेता हैं और इस कारण राजनीति में, खासकर विपक्षी दलों में, उनका असर संसद या संसद के बाहर उनकी पार्टी की ताकत से काफी अलग है. इस मुद्दे पर सीपीआई नेता की सक्रियता के उलट मोदी सरकार पूरे विवाद से अलग रहने का फैसला लिया और इसे न्यायपालिका को ही निपटाने के लिए छोड़ दिया. सिर्फ बीजेपी के संबित पात्रा ने एएनआई से बात करते हुए कहा कि, “यह सुप्रीम कोर्ट का आंतरिक मामला है, अटार्नी जनरल ने बयान दे दिया है. कोई राजनीति नहीं खेली चाहिए. मुझे आश्चर्य और दुख है कि जिस कांग्रेस पार्टी को चुनावों में कई बार जनता ने खारिज कर दिया है, इससे राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश कर रही है. इसने खुद को एक्सपोज कर दिया है.”