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सुकमा नक्सली हमला: आईएस से ज्यादा खतरनाक क्यों हैं वामपंथी आतंकवादी

नक्सल प्रभावित सुकमा जिले में हाल ही में हुआ ये दूसरा बड़ा हमला है

Sreemoy Talukdar

छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 25 जवानों की शहादत से पूरा देश सदमे में है.

लोग सरकार की आंतरिक सुरक्षा नीति पर सवाल उठा रहे हैं. ये सवाल उठने वाजिब हैं. लेकिन, सुकमा में नक्सली हमले में कई मुद्दे मिला दिए गए हैं.


नक्सल प्रभावित सुकमा जिले में हाल ही में हुआ ये दूसरा बड़ा हमला है. इससे पहले 11 मार्च को हुए नक्सली हमले में 12 जवान शहीद हो गए थे.

ये हमला इंजेराम-भेजी इलाके में हुआ था. सोमवार को बुर्कापल इलाके में हुआ हमला इस जगह से करीब साठ किलोमीटर दूर हुआ. ये नक्सलों का गढ़ माना जाता है. 2010 में इसी इलाके में सीआरपीएफ के 76 जवानों को नक्सलियों ने मार डाला था.

क्या टल सकता था यह हमला?

नक्सली हमले पर तीन तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं. सोशल मीडिया पर लोग सरकार पर भयंकर नाराजगी जता रहे हैं. हमलावरों को सख्त सजा देने की मांग कर रहे हैं.

दूसरी बात ये कही जा रही है कि अगर सीआरपीएफ के जवानों ने प्रक्रिया का पालन किया होता, यानी स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर अपनाया होता, तो ये हमला टाला जा सकता था.

कहा जा रहा है कि सीआरपीएफ की टोली ने आगे का रास्ता सुरक्षित करने के दौरान पहले से तय प्रक्रिया का पालन नहीं किया. इसलिए जवानों की शहादत के लिए सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.

मोदी सरकार पर लग रहा है आरोप

इस हमले को लेकर तीसरी प्रतिकिया विशुद्ध रूप से राजनैतिक है. विपक्षी दल आरोप लगा रहे हैं कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार, माओवादी हिंसा को रोकने में पूरी तरह नाकाम रही है.

विरोधी दलों के अलावा ये बात कहने वालों में तथाकथित 'लिबरल जमात' भी शामिल है. ये वही लोग हैं जो अक्सर वामपंथी हिंसा का बचाव करते रहे हैं. तथाकथित तरक्कीपसंदों की ये जमात जवानों के हवाले से मोदी सरकार पर लगातार हमले करती रही है. कुछ वामपंथी नेताओं ने भी इस हिंसक घटना की निंदा की है.

इनके बरक्स, वामपंथियों के छुपे हुए हिमायती हमेशा की तरह इस हमले को जायज ठहराने में लगे हैं. ये लोग मीडिया में भी हैं. सियासी दलों के भीतर भी और समाज की मुख्यधारा में भी हैं. ये जवानों की निर्मम हत्या को किसी तरह से वाजिब बताने में जुटे हैं.

माओवादी नहीं ये आतंकी हैं

इस मुद्दे पर आगे चर्चा करने से पहले हमें ये साफ करना होगा कि इन हमलावरों को वामपंथी उग्रवादी कहना ठीक नहीं.

ये आतंकवादी हैं. इन्हें माओवादी या नक्सली कहने पर इनके कुकर्मों को कुछ लोग जायज ठहराने लगते हैं. इनके समर्थक इसे विचारधारा की लड़ाई बताने लगते हैं. ये ठीक नहीं.

क्यों जरूरी है सही नामकरण?

नामकरण का सही होना जरूरी है. वामपंथी उग्रवादी गरीबों के हितैषी नहीं हैं. ये हिंसा करने वाले लोग हैं. इनका समाज में बराबरी लाने का कोई इरादा नहीं.

ये आतंकवादी हैं, जो विचारधारा की आड़ में लोगों का शोषण करते हैं. हिंसा करते हैं. ये गरीबों की हत्या भी करते हैं. इनकी हिंसा को किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता.

विचारधारा की आड़ में ये बेरहमी करते हैं. इसीलिए जब सरकार ग्रामीण इलाकों में, जंगलों में बुनियादी ढांचे का विकास करती है.

सड़कें बनाती है. तो ये आतंकवादी डरने लगते हैं. इन्हें लगता है कि नई बन रही सड़क इनकी सत्ता को चुनौती देगी. इसीलिए ये जवानों को मारते हैं. ताकि ये जुर्म का जंगलराज चलाते रहें.

इस्लामिक स्टेट से भी खतरनाक हैं

हेलीकॉप्टर के जरिए घायल जवानों को रायपुर लाया गया (फोटो: पीटीआई)

वामपंथी आतंकवादी

वामपंथी आतंकवादियों ने जिस तरह से खून-खराबा किया है उससे उनमें और इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों में कोई फर्क नहीं रह जाता.

इस्लामिक स्टेट तो ये बहानेबाजी भी नहीं करता कि वो लोगों की भलाई के लिए हिंसा कर रहा है.

लेकिन ये माओवादी आतंकवादी, बेशर्मी से गरीबों की आड़ लेकर खून बहाते हैं. ये गरीबों के भले के लिए काम करने का दावा करते हैं. लेकिन इन्हीं गांववालों, गरीबों की आड़ लेकर खुद को बचाते हैं.

ये बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुंचाते हैं. सड़कें, बिजली के खंभे वगैरह इनके निशाने पर रहते हैं. हिंसा के जरिए ये विकास का रथ गरीबों तक पहुंचने से रोकते हैं.

ये चाहते हैं कि दूर-दराज में रहने वाले आदिवासी हमेशा गरीब ही रहें. इन बातों से साफ है कि ये इस्लामिक स्टेट के आतंकियों से भी घटिया इंसान हैं. क्योंकि इनमें दोगलापन है.

इनके जुल्म की मिसाल, राहुल पंडिता के इसी साल मार्च में ओपन में लिखे लेख में मिलती है.

राहुल पंडिता लिखते हैं, 'पिछले कुछ महीनों में माओवादियों ने सैकड़ों नागरिकों की हत्या कर डाली है. इन्होंने छत्तीसगढ़ के पूरे लाल गलियारे में कहर बरपाया हुआ है. खास तौर से दंडकारण्य इकनॉमिक जोन में.'

'छत्तीसगढ़ का बस्तर डिवीजन इसी में आता है. बस्तर में सात जिले हैं. सुकमा इन्हीं में से एक है...बच्चा को मारने से तीन दिन पहले माओवादियों ने बुर्दीकरका और धनीकरका में पूरे गांव को बंधक बना लिया था.'

ये इलाके पड़ोस के दंतेवाड़ा जिले में हैं. माओवादियों ने कई गांववालों को बुरी तरह पीटा. बुर्दीकरका, धनीकरका और गडमारी गांव के लोगों ने हाल ही में नक्सलियों के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन किया था.

उस रात माओवादियों ने अदालत बैठाई. इसमें बुर्दीकरका के सामो मांडवी नाम के शख्स को भीड़ से खींचकर माओवादियों ने मार डाला. मांडवी ने कुछ दिन पहले सरकार के पुलिस भर्ती अभियान में हिस्सा लिया था.

'5 मार्च को नक्सलियों ने कालमू पोडिया को मार डाला. वो सुकमा के राबरीपाड़ा गांव का रहने वाला था. माओवादियों ने उस पर पुलिस का मुखबिर होने का आरोप लगाया था. तीन मार्च को उन्होंने इसी आरोप में धुरावास गांव के महेंदर का गला रेत दिया था.'

इस्लामिक आतंकवाद से भी खतरनाक है वामपंथी आतंकवाद

ये एक तल्ख सच्चाई है कि जितने लोग इस्लामिक आतंकवाद से देश के अलग-अलग हिस्सों में मारे जाते हैं, उससे कहीं ज्यादा लोगों की जान नक्सल प्रभावित इलाकों में जाती है.

इतने लोग तो पाकिस्तान के फैलाए आतंकवाद से भी नहीं मारे जाते. साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल ने जो आंकड़े जमा किए हैं.

उनके मुताबिक 2005 से 2017 के बीच नक्सली हिंसा में 7 हजार 442 लोगों की जान जा चुकी है. इसी दौर में कश्मीर में हिंसा में 6100 और उत्तर पूर्व में 6360 लोग मारे गए.

वामपंथी विचारधारा के समर्थक

वामपंथी विचारधारा के लोगों ने नक्सली हिंसा को अक्सर जायज ठहराया है. उनका कहना है कि वो गरीबों के भले के लक्ष्य से काम कर रहे हैं. इस राह में हिंसा का होना स्वाभाविक है.

हालांकि यह समझ से परे है कि हिंसा को कैसे नैतिकता का जामा पहनाया जा सकता है? इस्लामिक स्टेट, अल-कायदा, तालिबान, लश्करे तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद जैसे संगठनों को तो विचारधारा का बल नहीं हासिल.

लेकिन नक्सली आतंकवादियों के कई समर्थक हमें मीडिया और समाज में मिल जाते हैं. नक्सली आतंकवाद के ये समर्थक, 'लिबरल जमात' के तौर पर समाज की मुख्यधारा में शामिल हैं.

ये शिक्षण संस्थाओं में भी मौजूद हैं और मीडिया में भी हैं. इन लोगों की मीडिया और शिक्षण संस्थाओं में मौजूदगी बेहद खतरनाक है. इससे तो नक्सली हिंसा कभी खत्म ही नहीं होगी. क्योंकि ये लोग सरेआम नक्सली विचारधारा को छात्रों को पढ़ाते हैं.

इस विचारधारा से प्रभावित लोगों का नक्सली हिंसा को बढ़ाए रखने में बड़ा योगदान होता है. जब भी इनका विरोध होता है, ये नक्सली आतंकवाद के समर्थक, अपने विरोधियों को दक्षिणपंथी कहकर खारिज करने की कोशिश करते हैं.

बंदूक वाली विचारधारा के ये समर्थक, समाज के बीच आराम से रहकर, सरकार के, देश के ऊपर हमले को जायज ठहराते हैं. उसे हराने की जुगत निकालते रहते हैं.

क्या मोदी सरकार जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रही?

नक्सली हमले के बाद ये सवाल जोर-शोर से उठ रहा है कि क्या सरकार अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभा पा रही है?

जवानों की शहादत के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराना सबसे आसान होता है. मगर हमको निष्पक्ष भाव से इसकी पड़ताल करनी चाहिए.

गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2011 से 31 मार्च 2017 के बीच नक्सली हिंसा में मारे गए जवानों के आंकड़े बताते हैं कि इसमें भारी उतार-चढ़ाव देखने को मिला है.

2011 में 142 सुरक्षाकर्मी माओवादियों के हाथों मारे गए थे. उसी साल 99 वामपंथी आतंकवादी मारे गए थे. 2012 में ये आंकड़ा 114 और 74 का था. 2013 में 115 और 100 का था.

2014 में 88 जवान शहीद हुए जबकि 63 नक्सली मारे गए थे. वहीं 2015 में ये आंकड़ा 59 और 89 का था. 2016 में 65 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए, जबकि 222 जवान मारे गए.

साफ है कि एनडीए के राज में सुरक्षाकर्मियों को नुकसान कम हुआ है. इसके मुकाबले नक्सलियों को भारी तादाद में नुकसान हुआ है.

इसलिए नक्सलियों से निपटने में मोदी सरकार पर नाकामी का आरोप लगाना और राजनाथ सिंह का इस्तीफा मांगना ठीक नहीं.

विकास की भारी कीमत

असल में एनडीए सरकार, दूर-दराज के इलाकों में विकास की कीमत चुका रही है. मोदी सरकार लगातार नक्सल प्रभावित इलाकों में बुनियादी ढांचे का विकास कर रही है.

जो इलाके पहुंच से दूर थे, वहां सड़कें बनाई जा रही हैं. सरकारी योजनाओं का फायदा गरीबों तक पहुंचाने की कोशिश की जा रही है.

सबसे गरीब और अविकसित इलाकों में विकास की लौ जगाने में जोर लगाया जा रहा है. इससे नक्सलियों को डर लग रहा है.

राहुल पंडिता, जो नक्सल प्रभावित इलाकों में रिपोर्टिंग करते रहे हैं, वो कहते हैं कि नक्सलियों के गढ़ में तेजी से सड़कें बनाकर उन गांवों तक सरकार ने पहुंच बनाई है, जो अब तक बाकी देश से कटे हुए थे.

पहले नक्सलियों के डर से तमाम कंपनियां इन इलाकों में काम करने से कतराती थीं. लेकिन अब छत्तीसगढ़ सरकार 'रेड कॉरिडोर' में बुनियादी ढांचे के विकास के लिए ठेके दे रही है.

सुकमा में नक्सलियों ने सीआरपीएफ की जिस 75वीं बटालियन पर हमला किया, वो नेशनल हाइवे 30 के दोरनापाल से जागरगुंडा तक के 56 किलोमीटर तक के इलाके को सुरक्षित करने निकली थी.

ये माओवाद प्रभावित बेहद संवेदनशील इलाका है. इस इलाके में आठ किलोमीटर सड़क बन चुकी है. पिछले तीन सालों में इस इलाके में सड़क बनाने के दौरान 11 बार गोलीबारी हुई है. 18 बार आईईडी ब्लास्ट हुए हैं.

इस दौरान तीन नागरिक भी धमाकों में मारे गए हैं. वहीं सुरक्षाबलों ने 16 आईईडी बरामद भी किए हैं.

क्यों बिगड़ रही है बात?

नवभारत टाइम्स के हवाले से स्वराज्य पत्रिका लिखती है कि सुकमा में शबरी नदी पर एक पुल बनने से छत्तीसगढ़ के दोरनापल और ओडिशा के पोडिया कस्बे के बीच दूरी 120 किलोमीटर से घटकर सिर्फ तीन किलोमीटर रह गई है.

सीआरपीएफ के जवानों के एसओपी यानी स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर का पालन न करने के बारे में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि किसी इलाके को सुरक्षित बनाने के अभियान के दौरान हमेशा ही ऐसे हमले की आशंका रहती है.

फिर सुरक्षा बल चाहे जो रणनीति अपनाएं. जिस इलाके में काम चल रहा होता है, वो पहले से ही वामपंथी आतंकियों के निशाने पर होता है.

इस ठिकाने के करीब पहुंचने पर सुरक्षा बल, नक्सलियों की जद में आ जाते हैं. उन पर हमला करना माओवादी आतंकियों के लिए आसान हो जाता है.

वो घने जंगलों की आड़ लेकर हमला करते हैं. जो कमियां रह गईं, उन्हें दूर किए जाने की जरूरत है, मगर कई बार गरीबों तक विकास के फायदे पहुंचाने के लिए देश को उसकी कीमत चुकानी पड़ती है. जवानों की शहादत वही कीमत है, जो देश ने चुकाई है.