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क्या सोनिया और मायावती की दोस्ती के सामने फेल हो जाएगा मोदी का जादू?

कर्नाटक में कांग्रेस ने कुमारस्वामी को सीएम पद के लिए समर्थन देकर दिखा दिया कि वो बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए कुछ भी कर सकती है, ऐसे में मायावती के साथ दोस्ती के कई मायने निकाले जा रहे हैं

FP Staff

सोनिया गांधी ने राम विलास पासवान के साथ मिलकर 2004 में चुनाव लड़ा और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया. इसके बाद लगातार 10 सालों तक कांग्रेस सत्ता में बनी रही. अब 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस फिर उसी रणनीति को दोहराना चाहती है शायद इसीलिए अब मायावती से कांग्रेस की नजदीकियां लगातार बढ़ रही हैं.

बेंगलुरु में एचडी कुमारस्वामी के मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह में सोनिया गांधी जिस तरह से मायावती के साथ गुफ्तगू करती हुई दिखीं वो अपने आप काफी खास था.


पिछले लोकसभा चुनाव में कोई सीट न जीत पाने वाली मायावती के लिए ये एक तरह से राजनीति में फिर से जीवन मिलने जैसा है. प्रशासनिक अनुभव रखने के साथ मायावती का दलित और महिला होना विपक्षी पार्टी के लिए भी हर तरह से उपयोगी हैं. खासकर तब, जब राजनीति में सांप्रदायिकता और जाति की राजनीति इतनी महत्त्वपूर्ण हो गई है.

2004 में लोकसभा चुनाव के पहले भी सोनिया गांधी, मायावती के जन्मदिन पर उनसे मिलने के लिए गई थीं. लेकिन इसके कुछ ही दिन बाद मायावती ने सोनिया पर दलितों की अनदेखी करने का आरोप लगा दिया था.

मायावती को दूसरों की जरूरत

लेकिन 2018 में परिस्थितियां बदल चुकी हैं. इस समय बीएसपी के पास लोकसभा में एक भी सीट नहीं है. मायावती को भी अब दूसरों की जरूरत है, और वो शायद इस बात को समझ भी चुकी हैं. इसीलिए उन्होंने यूपी में हुए पिछले लोकसभा उपचुनाव में अपने सबसे बड़े विरोधी पार्टी एसपी से हाथ मिला लिया. इसके सकारात्मक परिणाम भी उन्हें देखने को मिले और फूलपुर व गोरखपुर दोनों सीटें एसपी-बीएसपी गठबंधन ने जीत लीं. बता दें कि गोरखपुर बीजेपी का गढ़ है. यहां से हमेशा बीजेपी जीतती रही है और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ यहीं से लगातार सांसद रहे हैं.

दूसरी बात एसपी से हाथ मिलाकर मायावती ने ये भी दिखा दिया कि वास्तव में वो कांसीराम की उत्तराधिकारी हैं और उनके लिए कोई भी पार्टी अछूत नहीं है.

1993 में भी मंदिर-मंडल के मुद्दे के बावजूद बीएसपी ने एसपी के साथ मिलकर यूपी में बीजेपी को सत्ता में आने से रोक दिया गया था. उस समय नारा दिया गया था, 'मिले मुलायम कांसीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम'. इस बार भी यूपी उपचुनाव में नारा दिया गया था, 'बहनजी और अखिलेश जुड़े, मोदी-योगी के होश उड़ें.'

दलित वोट है बड़ी चुनौती

कांसीराम के बारे में एक बार कहा गया था कि 'न वो सेक्युलरिस्ट हैं और न ही लेफ्टिस्ट. वो ऑपर्चुनिस्ट (अवसरवादी) हैं'. रिसर्चर चंद्रभान का कहना है कि जिस तरह से 2 अप्रैल को दलित, बीजेपी के खिलाफ लामबंद हुए थे वो दिखाता है कि बीएसपी के लिए भी सही समय है कि वो उन पार्टियों के साथ मिल जाए जो कि बीजेपी को हरा सकती है.

सीएसडीएस का एक सर्वे बताता है कि दलितों में बीजेपी की लोकप्रियता घटी है. पिछले लोकसभा चुनाव से 2 फीसदी कम होकर अब बीजेपी सिर्फ 22 फीसदी दलितों की पसंद रह गई है. खास बात ये है कि कांग्रेस 23 फीसदी दलितों की पसंद है.

हालांकि भीम ऐप लांच करके व बाबा साहब आंबेडकर के जन्मदिन को शानदार तरीके से मनाकर बीजेपी फिर से दलितों में अपनी खोई हुई लोकप्रियता को पाना चाहती है. इसके लिए बीजेपी के नेता यूपी में दलितों के घर भोजन पर भी गए. लेकिन बाहर से मंगाए गए खाने और मच्छर होने जैसे बयानों ने बीजेपी को लाभ पहुंचाने के बजाय और भी नुकसान ही पहुंचाया.

दलितों के मन में बीजेपी के प्रति असंतोष

यही नहीं बीजेपी के भीतर भी दलित नेताओं में विरोध का भाव देखने को मिला है. कुल 40 में से कम से कम 5 सांसदों ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखकर दलितों के खिलाफ हो रहे अत्याचार के बारे में अवगत कराया और अपना असंतोष दर्ज किया.

दलितों के मन में बीजेपी के प्रति इस असंतोष के भुनाने के लिए विपक्षी पार्टियों के सामने इस समय मायावती सबसे बेहतरीन चेहरा हैं. जिग्नेश मेवाणी व प्रकाश आंबेडकर जैसे चेहरे भी हैं लेकिन उनकी पहुंच पूरे भारत में नहीं है.

बीजेपी ने पिछले चुनावों में मुकाबला मोदी बनाम राहुल रखने की कोशिश की और इसीलिए 'नामदार बनाम कामदार' और 'चायवाला बनाम शहज़ादा' जैसे स्लोगन भी दिए गए. लेकिन मायावती की छवि के सामने ये सब नहीं चलेगा. सीएसडीएस के सर्वे में ये भी पाया गया है कि मोदी व राहुल गांधी के बाद मायावती प्रधानमंत्री के रूप में लोगों के लिए तीसरा सबसे पसंदीदा चेहरा हैं.

मायावती के साथ गठबंधन से क्या मिल सकता है विपक्ष को

इस साल राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इन राज्यों में दलितों की संख्या काफी है. कांग्रेस-बीएसपी गठबंधन 2019 के लोकसभा चुनावों के पहले लिटमस टेस्ट भी होगा. जाहिर है अगले लोकसभा चुनाव के पहले कांगेस इन तीनों राज्यों का विधानसभा चुनाव हार के नहीं जाना चाहेगी.

अगर इन तीनों राज्यों में कांग्रेस व बीएसपी के मिले हुए वोट प्रतिशत पर विचार करें तो पाएंगे कि अगर इन दोनों पार्टियों ने मिलकर पिछले विधानसभा चुनाव लड़े होते तो स्थितियां दूसरी होतीं. ये बात सही है कि इन राज्यों में बीएसपी को सिर्फ 7 से 8 फीसदी वोट ही मिले जो कि सीट जीतने के लिए बहुत कम हैं, लेकिन किसी दूसरी पार्टी की सीट के साथ अगर ये वोट प्रतिशत जुड़ जाएं तो उस पार्टी के लिए काफी सीट निकालना आसान हो जाएगा.

अनप्रिडेक्टेबल मायावती

इन सब बातों के बीच मायावती के साथ कुछ कमियां भी हैं. पहली बात मायावती खुद ही करप्शन के आरोपों में फंसी हैं. चुनाव के मद्देनजर देखें तो पाते हैं कि वो खुद अपने दम पर मुसलमानों का वोट पाने में सफल नहीं रहीं. 2016 के चुनाव में दलित-मुस्लिम गठजोड़ ने उनके लिए उतना वोट नहीं खींचा जितना 2007 में दलित-ब्राह्मण गठजोड़ ने दिलाया. इसलिए मुसलमानों का वोट पाने के लिए मायावती को कांग्रेस या एसपी से हाथ मिलाना पड़ेगा.

लेकिन सवाल ये है कि खुद मायावती कितनी विश्वसनीय हैं. 1993 में एसपी के साथ हाथ मिलाकर बीजेपी को सत्ता में आने से रोकने वाली बीएसपी ने सिर्फ दो सालों में ही एसपी के साथ गठजोड़ तोड़ दिया. बदले में मुलायम ने तथाकथित तौर पर उन्हें गेस्ट हाउस में नजरबंद कर दिया. जिसे 'गेस्ट हाउस स्कैंडल' भी कहते हैं. बाद में बीजेपी के ही एक विधायक ब्रह्म दत्त द्विवेदी ने उन्हें बचाया. मायावती का आरोप था कि उन्हें जान से मारने की योजना थी.

मायावती ने इस मौके को भी हाथ से नहीं जाने दिया और बीजेपी के साथ हाथ मिलाकर यूपी की मुख्यमंत्री बन बैठीं. वह देश में किसी राज्य की दलित महिला सीएम बनने वाली पहली मुख्यमंत्री थीं. लेकिन ये गठबंधन भी लंबा नहीं चला और सिर्फ चार महीनों में ही वो बीजेपी से अलग हो गईं.

हालांकि इस एलायंस के बारे में अरुण जेटली ने कहा कि ये एक काल्पनिक एलायंस है. जो लोग इस एलायंस में हैं वो कभी बीजेपी के साथ भी रह चुके हैं और मौका पड़ने पर बदल गए हैं.

दलित महिला प्रधानमंत्री

कर्नाटक में कांग्रेस ने एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद के लिए समर्थन देकर दिखा दिया कि वो बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए कुछ भी कर सकती है. लेकिन सवाल है कि क्या वो राष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसा करेगी? क्या राहुल गांधी अपनी मां की तरह किसी दलित महिला के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी को छोड़ना चाहेंगे?

बद्री नारायण का कहना है कि अगर कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में 100 या उससे कम सीटें आती हैं तो कांग्रेस समझौता कर सकती है लेकिन अगर कांग्रेस को इससे ज्यादा सीटें मिलती हैं तो शायद ऐसा नहीं होगा.

(न्यूज-18 के लिए नित्य तिरुमलई की रिपोर्ट)