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सोनिया गांधी को भारतीयों से सख्त नफरत: रोक्सना स्वामी

सुब्रमण्यम स्वामी की पत्नी रोक्सना स्वामी ने ‘इवॉल्विंग विद सुब्रमण्यम स्वामी’:अ रोलर कोस्टर राइड’ किताब में इन बातों का खुलासा किया है

Rashme Sehgal

अर्थशास्त्री से नेता बने सुब्रमण्यम स्वामी की पत्नी रोक्सना स्वामी ने एक दिलचस्प किताब लिखी है. ‘इवॉल्विंग विद सुब्रमण्यम स्वामी:अ रोलर कोस्टर राइड नाम की इस किताब में रोक्सना ने सुब्रमण्यम स्वामी के साथ बिताई अपनी जिंदगी के कई हसीन और मुश्किल पलों का जिक्र किया है.

गणितज्ञ से वकील बनीं रोक्सना कई साल से सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस कर रही हैं. बतौर वकील उन्होंने सुब्रमण्यम स्वामी की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित के कई मुकदमों की पैरवी की है.


रोक्सना ने अपनी किताब और उसके विषय को लेकर फ़र्स्टपोस्ट से खास बातचीत की. उन्होंने बताया कि किताब के संपादक चाहते थे कि किताब के शीर्षक को आकर्षक और चटपटा बनाने के लिए उसमें ‘रोलर कोस्टर राइड’ भी जोड़ा जाए.

रोक्सना के मुताबिक उनकी किताब के शीर्षक में ‘रोलर कोस्टर राइड’ जोड़ना बिल्कुल उपयुक्त है, क्योंकि सुब्रमण्यम स्वामी के साथ वाकई उनकी जिंदगी तमाम उतार-चढ़ाव से भरी रही है. आइए रोक्सना की किताब के कुछ संपादित अंशों पर नजर डालते हैं:

आईआईटी से क्यों निकाले गए सुब्रमण्यम स्वामी? 

हार्वर्ड यूनीवर्सिटी में बतौर प्रोफेसर छात्रों को पढ़ाने के दौरान सुब्रमण्यम स्वामी को अचानक भारत लौटने का विचार आया. वो नेक नीयत से भारत लौटे और उन्होंने शिक्षा और शोध में अपना करियर बनाने का फैसला किया. जिस वक्त स्वामी दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में पढ़ा रहे थे, उसी दौरान उन्होंने दिल्ली यूनीवर्सिटी कैंपस में बाजार की अर्थव्यवस्था और हिंदू पुनर्जागरण की जरूरत पर भी लेक्चर देना शुरू कर दिया.

अध्यापन के दौरान सुब्रमण्यम स्वामी ने महसूस किया कि, दिल्ली यूनीवर्सिटी और दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में काफी हद तक वामपंथी राजनीति का वर्चस्व है. स्वामी के लेक्चर सुनकर छात्र उनसे प्रभावित होने लगे, और जल्द ही स्वामी समर्थक छात्रों की तादाद काफी बढ़ गई.

लेकिन दिल्ली यूनीवर्सिटी के तत्कालीन वाइस चांसलर के. एन. राज को सुब्रमण्यम स्वामी की गतिविधियां रास नहीं आईं, और उन्होंने स्वामी को यूनीवर्सिटी से बाहर कर दिया. लेकिन इस घटना से स्वामी के इरादों पर कोई असर नहीं पड़ा, बल्कि वो और मशहूर हो गए.

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उसी दौरान इंदिरा गांधी ने कांग्रेस का विभाजन कर दिया और वो साम्यवादियों (कम्यूनिस्ट) के समर्थन से सत्ता में आ गईं. तब डॉ. अमर्त्य सेन ने, जो हार्वर्ड यूनीवर्सिटी में पढ़ाने के दौरान स्वामी के साथ थे, स्वामी से कहा कि, 'तुम्हें यथार्थवादी बन जाना चाहिए स्वामी, अब तो भारत में वामपंथी पूरी तरह से शक्तिशाली हो चुके हैं'

सुब्रमण्यम स्वामी की विचारधारा दक्षिणपंथी थी. उस वक्त उन्होंने एक लेख लिखा था कि, भारत किस तरह से परमाणु शक्ति संपन्न देश बन सकता है और किस तरह से परमाणु बम का निर्माण कर सकता है. ये लेख ब्लिट्ज न्यूज पेपर में छपा था. स्वामी का ये लेख जनसंघ के नेताओं को बहुत पसंद आया. उन्होंने स्वामी को अपने संसदीय बोर्ड को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया.

तब तक बतौर अर्थशात्री सुब्रमण्यम स्वामी की ख्याति काफी बढ़ चुकी थी, लिहाजा दिल्ली यूनीवर्सिटी ने उन्हें एक अहम पद देने की पेशकश की. लेकिन बाद में यूनीवर्सिटी प्रशासन ने अपना इरादा बदल लिया और स्वामी को सिर्फ रीडरशिप का प्रस्ताव दिया. जिसे स्वामी ने ठुकरा दिया.

इसके बाद आईआईटी दिल्ली ने स्वामी को लेक्चर देने के लिए आमंत्रित किया, और फिर कुछ अरसा बाद उनके सामने लेक्चररशिप की पेशकश रख दी. आईआईटी दिल्ली की इस पेशकश को स्वामी ने स्वीकार कर लिया. और फिर स्वामी के साथ वैसा ही हुआ जैसा कि भारत में अक्सर होता है.

आईआईटी दिल्ली में पढ़ाने के दौरान स्वामी कई छात्रों और कर्मचारियों के संपर्क में आए, और उन्होंने पाया कि वहां बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार फैला हुआ था. आईआईटी दिल्ली के तत्कालीन डायरेक्टर एक पीडब्ल्यूडी इंजीनियर थे, जिन्होंने चंडीगढ़ को बनाने में अहम योगदान दिया था. लेकिन उनके पास किसी तरह की शैक्षणिक योग्यता नहीं थी.

उनकी पत्नी इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी को इकेबाना (फूलों को सजाने की जापानी कला) सिखाया करती थीं. स्वामी ने जब आईआईटी दिल्ली में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद की तो डायरेक्टर बुरा मान गए. उन्होंने स्वामी की नौकरी स्थायी न करने का फैसला कर लिया.

वक्त के साथ स्वामी और आईआईटी डायरेक्टर के बीच मतभेद बढ़ते गए. और फिर बात यहां तक पहुंच गई कि डायरेक्टर ने आईआईटी की सेलेक्शन कमेटी में 9 ऐसे लोगों को शामिल करने का फैसला लिया जिनका झुकाव वामपंथी विचारधारा की तरफ था.

लेकिन तत्कालीन आईआईटी डायरेक्टर का ये दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि, उस वक्त आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर लियोन हर्विट्ज और प्रोफेसर मनमोहन सिंह का चयन हो गया. जब प्रोफेसर हर्विट्ज को ये पता चला कि स्वामी ने अर्थशात्री पॉल सेमुएलसन के साथ मिलकर एक शोध पत्र लिखा है, तो वे बहुत प्रभावित हुए.

उस वक्त प्रोफेसर हर्विट्ज ने कहा था कि, 'स्वामी वो चीज हैं, जिनके लिए मैं अपना बायां हाथ कुर्बान कर सकता हूं, बेशक उनका चयन होना ही चाहिए.' इस तरह स्वामी को सर्वसम्मति से आईआईटी में प्रोफेसर की स्थाई नौकरी मिल गई. संयोग से स्वामी को प्रोफेसर की स्थाई नौकरी मिलने के फौरन बाद ही आईआईटी कर्मचारियों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया.

उसी दौरान स्वामी ने जनसंघ के लिए एक आर्थिक योजना तैयार की. स्वामी ने उस आर्थिक योजना का नाम 'द स्वदेशी प्लान- एन ऑल्टरनेटिव एप्रोच टू सोशलिज्म' रखा था. आखिरकार अपनी सरगर्मियों के चलते स्वामी को इंदिरा गांधी और आईआईटी डायरेक्टर की नाराजगी का शिकार होना पड़ा.

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आईआईटी में पदभार ग्रहण करने के महज दो साल बाद ही स्वामी को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया. नौकरी से बर्खास्त करते वक्त उन्हें सिर्फ एक महीने की अग्रिम तनख्वाह ही दी गई थी.

इंदिरा गांधी को स्वामी के जनसंघ के लिए लेख लिखने से ऐतराज क्यों था?

इसमें चौंकाने वाली कोई बात नहीं है. स्वामी की कार्यशैली और विचारधारा पर इंदिरा गांधी ने अपनी प्रतिक्रिया वैसे ही व्यक्त की थी, जैसी कि वो खुद हुआ करती थीं. साल 1969-71 के दौरान इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (ओ) को खत्म करने का एजेंडा बनाया था, तब वे पूरी तरह से वाम दलों पर निर्भर थीं.

बर्खास्तगी का नोटिस मिलने के बाद फ्लैट खाली कराने के लिए आईआईटी अधिकारियों के दबाव को स्वामी ने अपनी समझदारी से कैसे संभाला?

आईआईटी ने जब स्वामी को बर्खास्त किया, और उन्हें आईआईटी का फ्लैट तत्काल खाली करने का निर्देश दिया, तो स्वामी इस फैसले के खिलाफ कोर्ट चले गए. कोर्ट से स्वामी स्टे ऑर्डर ले आए यानी मामले की सुनवाई पूरी होने तक वे परिवार समेत आईआईटी के फ्लैट में रह सकते थे.

लेकिन आईआईटी के अधिकारी स्वामी को फ्लैट से बेदखल करने पर अड़े हुए थे, इसके लिए वे तरह-तरह से दबाव बना रहे थे. एक दिन आईआईटी अधिकारी अपने दल-बल के साथ आ धमके और हमें तुरंत फ्लैट खाली करने को कहा.

उस वक्त हमारे सामने सिर्फ दो ही विकल्प थे. एक, या तो हम शांतिपूर्वक घर खाली कर दें, दूसरा, ये कि हम मजबूती के साथ डटे रहें और घर का दरवाजा ही न खोलें. हमने दूसरा रास्ता चुना और घर का सारा फर्नीचर दरवाजे के पास लाकर रख दिया. ऐसा हमने अवरोध खड़ा करने के मकसद से किया था, ताकि कितना भी जोर लगाने पर भी आईआईटी अधिकारी हमारे घर का दरवाजा न खोल सकें.

काफी हंगामा होने के बाद आखिरकार पुलिस आई. तब एक पुलिस अफसर ने आईआईटी के लोगों को डपटते हुए कहा कि, ‘आप लोग बेवकूफी न करें, इन लोगों के पास कोर्ट का स्टे ऑर्डर है.’ लेकिन जवाब में आईआईटी अधिकारियों ने कहा कि उन्हें अभी तक कोर्ट का समन नहीं मिला है. जब डिस्पैच बुक लाई गई, तब पता चला कि समन रिसीव करने वाले के हस्ताक्षर की जगह पर किसी ने स्याही फेंक दी थी.

जिस वक्त स्वामी हार्वर्ड में पढ़ाया करते थे, तब वो दिल्ली के रसूखदार लोगों के बीच इतने लोकप्रिय क्यों थे? लेकिन भारत वापस लौटने पर उन्हीं लोगों ने स्वामी का बहिष्कार क्यों किया? 

जिन लोगों ने हमारा बहिष्कार किया मुझे वो लोग सख्त नापसंद थे. हर साल जब हम हार्वर्ड से दिल्ली आते थे, तब लोग हमें डिनर और लेक्चर के लिए आमंत्रित किया करते थे. हर कोई हमसे लाड़-प्यार जताता था, क्योंकि हम हार्वर्ड से थे. हार्वर्ड की अहमियत क्या है, ये हर कोई जानता है. उस वक्त मेरी उम्र 25-30 रही होगी. लेकिन तब जिन लोगों ने हमारा बहिष्कार किया आज उनमें से ज्यादातर की मौत हो चुकी है.

क्या इंदिरा गांधी को स्वामी से कोई व्यक्तिगत खुंदक थी ?

शुरुआत में तो नहीं, लेकिन बाद के सालों में स्वामी को इंदिरा गांधी से खासा संरक्षण मिला. अपने स्वभाव के विपरीत जाकर इंदिरा ने स्वामी से अपना रिश्ता काफी आत्मीय कर लिया था. एक बार मैं और स्वामी राष्ट्रपति भवन में एक कार्यक्रम में शामिल होने पहुंचे, जहां हमारी मुलाकात इंदिरा गांधी से हुई. उन्होंने बड़े सम्मान और प्यार के साथ हमसे बातचीत की, हालांकि स्वामी और इंदिरा गांधी की राजनीतिक विचारधारा अलग-अलग थी.

फिर एक समय ऐसा आया कि चीन से बातचीत के लिए इंदिरा गांधी ने सुब्रमण्यम स्वामी को चुना. ये वो वक्त था जब चीन की तरफ से नॉर्थ-ईस्ट में विद्रोहियों को शह दी रही थी. तब इंदिरा ने स्वामी से कहा था, 'देश के लिए कुछ करो, जाओ चीन से बात करो और नॉर्थ-ईस्ट के उपद्रव को रोको.' हालांकि कांग्रेसियों ने बाद में इस बात को स्वीकार करने से ही इनकार कर दिया.

इमरजेंसी को लेकर आपकी क्या राय है

इमरजेंसी से मुझे नफरत है. इमरजेंसी के दौरान पुलिस ने कई बार मेरा पीछा किया. कई बार मेरे घर पर छापे मारे गए. लेकिन इमरजेंसी के दौरान सबसे ज्यादा दुखद घटना मेरे पिता के घर पर छापेमारी की थी. उस वक्त मेरे पिता कैंसर से जूझ रहे थे. इन घटनाओं का बच्चों पर बहुत गलत असर पड़ा था.  

इमरजेंसी के चरम पर स्वामी ने किस तरह संसद में अपनी आवाज बुलंद की थी

ये पूरी घटना दस्तावेज के रूप में एक किताब में दर्ज है. यही नहीं इसके बारे में विस्तृत रूप से काफी कुछ लिखा जा चुका है. इमरजेंसी जिस वक्त अपने चरम पर थी, तब स्वामी ने संसद में अपनी आवाज उठाने का फैसला किया. वे अपने इस संकल्प में बखूबी कामयाब हुए.

वे बहुत होशियारी से न सिर्फ संसद में प्रवेश करने में सफल रहे बल्कि वहां से सुरक्षित भी निकल गए. स्वामी ने ऐसे समय में राज्यसभा की लॉबी में प्रवेश किया था, जब तत्कालीन राज्यसभा अध्यक्ष और उपराष्ट्रपति बीडी जत्ती ओबीचुरीज (निधन सूचनाएं) पढ़ रहे थे. स्वामी ने जत्ती के संबोधन में खलल डालकर उन्हें बोलने से रोक दिया.

इसके बाद स्वामी ने जत्ती से कहा कि, 'आप अपने संबोधन में प्रजातंत्र की मौत की अनदेखी करके एक महत्वपूर्ण गलती कर रहे हैं.' जवाब में जत्ती ने निर्देश दिया कि स्वामी की टिप्पणी को सदन के रिकॉर्ड में शामिल न किया जाए. इसपर स्वामी ने जत्ती से कहा कि, ‘मैं विरोध में सदन से वॉक ऑउट कर रहा हूं.’

इसके बाद स्वामी सदन से बाहर निकल गए और बिना जांच के अपनी कार में सवार होकर बिड़ला मंदिर पहुंचे. वहां से रिक्शा लेकर वो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन तक आए.

अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर आपके विचार इतने तल्ख क्यों

अटल बिहारी वाजपेयी मुझे जरा भी पसंद नहीं. मुझे उनसे नफरत है. उन्होंने स्वामी को जानबूझकर नुकसान पहुंचाया और हमेशा उनकी काट करते रहे. वाजपेई ने नानाजी देशमुख और दत्तोपंत ठेंगड़ी की भी जड़ें काटीं. ये दोनों लोग न सिर्फ आरएसएस से संबंध रखते थे, बल्कि बीजेपी के संस्थापक सदस्य भी थे. वो ठेंगड़ी ही थे जिन्होंने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की थी.

वाजपेयी को देशमुख और ठेंगड़ी एक आंख नहीं सुहाते थे. लिहाजा वे दोनों को बीजेपी में नहीं रखना चाहते थे. देशमुख और ठेंगड़ी को जब ये बात समझ में आई तो उन्होंने खामोशी के साथ खुद ही बीजेपी से दूरी बना ली. वाजपेयी हमेशा अपने चमचों से घिरे रहना चाहते थे.

बीजेपी में स्वामी के खिलाफ बैर और कटुता 30 से ज्यादा सालों तक जारी रही. यहां तक कि जब साल 2009 में वाजपेयी की सेहत बिगड़ी और वे सार्वजनिक जीवन से कट गए, तब भी बीजेपी में स्वामी का विरोध निरंतर बना रहा. उस वक्त स्वामी के खिलाफ मोर्चे की कमान वाजपेयी के खासमखास लोगों के हाथों में थी.

यशवंत सिन्हा पर आपकी राय अच्छी नहीं, ऐसा क्योंऔर किताब में जिस पार्टीसिपेटरी नोट का जिक्र है, वो क्या है

किताब में मैंने जिस पार्टीसिपेटरी नोट का जिक्र किया है, उससे मेरा मतलब कालेधन के विदेशों में हस्तांतरण से है. ये पार्टीसिपेटरी नोट विदेशी कंसल्टेंसी कंपनी को दिया जाता है, ताकि वो कालेधन को वहां स्टॉक मार्केट में निवेश कर सके. इस तरह से कालेधन को वैध और सफेद बनाया जाता है.  

कभी स्वामी और सोनिया गांधी के रिश्ते बहुत अच्छे थे, लेकिन अब वो उनके सबसे बड़े विरोधी हैं, इसकी वजह 

स्वामी जब अपनी तल्ख यादों से उबर जाएंगे, तब वो खुद ही इन सभी सवालों के जवाब देंगे. मैं सिर्फ इतना कह सकती हूं कि, सोनिया गांधी को भारतीयों से सख्त नफरत है. गांधी परिवार के पास सालों तक सत्ता रही, और वो लोग अपनी शक्ति का लगातार दुरुपयोग करते आ रहे हैं.

स्वामी, सोनिया और जयललिता ने 1999 में वाजपेयी सरकार को गिराने के लिए हाथ मिलाया था, लेकिन जयललिता के साथ भी स्वामी के संबंध कभी बनते कभी बिगड़ते रहे...ऐसा क्यों? 

स्वामी और जयललिता के संबंध तीन चरणों से होकर गुजरे. साल 1990 से पहले दोनों के बीच गहरी दोस्ती थी. उस वक्त दोनों के बीच स्वार्थ और सरोकारों का टकराव नहीं था. दोनों के संबंध का दूसरा चरण तब शुरू हुआ जब जयललिता तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनीं और पूरे प्रदेश में भ्रष्टाचार कुंडली मार के बैठ गया.

तमिलनाडु के उस वक्त के हालात और स्वामी-जयललिता के रिश्ते को मैंने अपनी किताब में कुछ इस तरह से बयान किया है कि, 'स्वामी और जयललिता के संबंधों का तापमान बड़ी तेजी के साथ लगातार बदल रहा था. ये रिश्ता 1980 के दशक में दोस्ती के तौर पर शुरू हुआ और 1990 के दशक की शुरुआत तक कायम रहा.

फिर 1990 के दशक के मध्य तक इस दोस्ती में कड़वाहट घुलने लगी और दोनों के बीच नफरत पैदा हो गई. 1990 के दशक के आखिर में जब स्वामी ने भ्रष्टाचार के कई मामलों में जयललिता के खिलाफ केस दायर कराए, तो एआईएडीएमके के गुंडों ने स्वामी पर हिंसक हमले किए.'

भ्रष्टाचार के खिलाफ स्वामी की मुहिम आखिरकार साल 1996 में रंग लाई. तब आय से अधिक संपत्ति के मामले में कोर्ट ने जयललिता को दोषी ठहराया था, और उन्हें न सिर्फ कई साल तक जेल की सजा सुनाई थी बल्कि उनपर 100 करोड़ रुपए का जुर्माना भी लगाया था.