यूपी विधानसभा चुनाव के लिए मतदान खत्म हो गया. लगातार मचे शोर-गुल के बीच विकास के दावे होते रहे लेकिन, सियासी दलों की रणनीति की चर्चा सबसे ज्यादा रही. इस चर्चा के केंद्र में रहा सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला.
सोशल इंजीनियरिंग के सहारे सियासी दल अपनी चुनावी जीत का गणित बैठाने में लगे रहे. जाति-पाति का गुणा-भाग ही इन दलों की रणनीति के केंद्र में रहा.
अपने ही फॉर्मूले पर उठाया सवाल
लेकिन, सबसे पहले सियासत में सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला इजाद करने वाले बीजेपी के पूर्व संगठन महासचिव और राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के संरक्षक के एन गोविंदाचार्य इस फॉर्मूले को लेकर ही सवाल खड़े कर रहे हैं.
फ़र्स्टपोस्ट हिंदी से एक्सक्लूसिव बातचीच में गोविंदाचार्य ने कहा कि इस बार चुनाव में सबकुछ गड्ड- मड्ड हो गया है.
उनका कहना है कि चुनाव जीतने के लिए कास्ट कॉम्बिनेशन पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है. लेकिन, इसे हम सोशल इंजीनियरिंग नहीं कहेंगे.
आखिर क्या है सोशल इंजीनियरिंग ?
सोशल इंजीनियरिंग का मतलब है सिर्फ जातिगत समीकरण को साधने के बजाय सुनार, लोहार जैसी कारीगरी वाली जातियों के हुनर को बढ़ावा दिया जाए. गोविंदाचार्य कहते हैं कि जातिगत समीकरण के तौर पर ही केवल देखने पर इसका फायदा सिर्फ चुनावों तक सीमित रह जाएगा.
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने इस बार पूरे यूपी में गैर-यादव पिछड़ी जातियां और गैर-जाटव दलित को साथ लाकर सोशल इंजीनियरिंग के दम पर यूपी को साधने की कोशिश की है.
लोकसभा चुनाव के वक्त भी यह फॉर्मूला खूब चला था और बीजेपी को बड़ी जीत हासिल हुई थी. इसे बार भी कोशिश वैसी ही है.
गोविंदाचार्य इस पर सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं कि यूपी का कोई एक कास्ट पूरे यूपी में एक साथ वोट करेगा तो भी ये होता नहीं दिख रहा है.
आसान नहीं है जाति का गणित
अभी गैर-यादव ओबीसी का स्टेट वाइज आइडेंटिटी बनना बाकी है. आप कुर्मी ही मान लीजिए, तो वो मध्य यूपी और अवध के क्षेत्र में एक साथ वोट करेंगे.
पूरब के कुर्मी वोटर अलग वोट करेंगे, बुंदेलखंड में अलग वोट करेंगे. इसी तरह से लोध का होगा, इसी तरह से राजभर का होगा, इसी तरह से नोनिया का होगा.
गोविंदाचार्य का कहना है कि इन जातियों के पुराने एसोसिएशन अभी टूटे नहीं हैं. इसीलिए जाति का गणित अल कंबिनेशन रेजन टू रेजन भी डिफर करेगा.
गोविंदाचार्य का कहना है कि उत्तर प्रदेश में कई मुद्दे हैं. यहां जाति का जोड़तोड़ करनी इतना आसान नहीं है.
एक जात से नहीं बनेगी बात
गोविंदाचार्य आगे कहते हैं कि भारतीय समाज में केवल एक कास्ट या कम्युनिटी के आधार पर अगर आप परफॉर्म करना चाहें तो बहुत मुश्किल होगा.
ये 1993 का विधानसभा चुनाव बताता है. विवादित ढ़ांचा ढहाने के बाद हुए चुनाव में राजस्थान को छोड़कर कहीं भी बीजेपी सत्ता में नहीं आ पाई थी.
इसी के बाद चाल, चरित्र और चेहरा में बदलाव को लेकर चर्चा शुरू हो गई थी. उस वक्त हमने तरीका बताया था चाल, चरित्र और चेहरा में बदलाव का.
बीजेपी को पहले शहरी क्षेत्र की पार्टी ही कहा जाता था. तो हमने ये कहा कि जब रात को बैठक करेंगे तो फिर ग्रामीणों के साथ कैसे बात कर पाएंगे. रात के वक्त तो शहरी क्षेत्र के ही लोग आएंगे. ये चाल में बदलाव था.
चेहरे में बदलाव के क्या हैं मायने
चेहरे में बदलाव का मतलब था कि हर समुदाय के लोगों की मंच पर मौजूदगी हो, क्योंकि अगर मंच पर मौजूदगी नहीं होगी तो वे सभी लोग अपने-आप को रिलेट नहीं कर पाएंगे.
पहले रिलेट करे फिर विचारों पर जोर दे इससे ये सभी सेक्शन के लोग पार्टी से जुड़ेंगे. लेकिन, इन सबके बाद परफॉर्म करने पर ही जोर दिया जाता है.
क्योंकि जोड़-जुगाड़ से पावर तो मिल सकता है लेकिन, परफॉर्म करना पड़ेगा तभी आगे सोशल इंजीनियरिंग को ठीक से लागू किया जा सकता है.