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सत्ता की होड़ में दुधारी तलवार हैं नारे और जुमले

राजनीतिक पार्टियों के लिए नारे और जुमले कई बार काम भी कर जाते हैं और कई बार घातक भी सिद्ध होते हैं

Anant Mittal

चुनावों के इस दौर में नेताओं की बेतरतीब जुमलेबाजी यह देश कोई पहली बार नहीं झेल रहा. देश के किसी राज्य अथवा केंद्र की सत्ता के लिए राजनीतिक दलों या नेताओं के बीच घमासान की नौबत आने पर उनका सुर ऐसे ही बिगड़ता रहा है. बीते दो साल में हुए दिल्ली और बिहार विधान सभा के चुनाव इसके गवाह हैं.

देश में आंतरिक आपातकाल के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने विपक्षी एकता से बनी जनता पार्टी को नारंगी और खिचड़ी कहकर उसे जनता की नजरों में गिराने की कोशिश की थी. उनके कहने का मतलब था कि जनता पार्टी में वैचारिक एकता का अभाव है सो वह भानुमति के पिटारे से अधिक विश्वसनीय नहीं है. इसका जनता पार्टी की तरफ से मिला जवाब भी रोचक और बखूबी मतदाता के गले उतरने वाला था.


आपात काल की ज्यादतियों के बोझ से दबी इंदिरा गांधी को टके सा जवाब मिला कि कांग्रेस ने 19 महीने की तानाशाही से लोकतंत्र का हाजमा बिगाड़ दिया जिसे सुधारने के लिए खिचड़ी की देश को बहुत जरूरत है. इसी तरह भारत को नारंगी जैसा ही बताते हुए जनता पार्टी के नेताओं ने कहा कि उसमें सांस्कृतिक विविधता लिए अनेक फांक मौजूद हैं मगर उनका रूप, रस और गंध ही एक नहीं हैं बल्कि वे नारंगी के छिलके की तरह देशभक्ति के खोल में सुरक्षित हैं.

भावना बहकर नेता नहीं देते नारे

इससे साफ है कि हमारे नेता अथवा दल किसी भावनात्मक झोंक में आकर ऐसे जुमले या नारे नहीं कहते. यह हथकंडे बहुत सोच-समझ कर और पैनी चुनावी रणनीति के तहत अपनाए जाते हैं. ऐसी भाषा का लक्ष्य किसी विशेष मतदाता समूह को खास मुद्दे पर ध्रुवीकृत करना अथवा मतदाताओं को भरमा कर किसी खास दल या जमात के पक्ष में लामबंदी से विमुख करना भी हो सकता है.

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा गढ़ा गया कसाब, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कब्रिस्तान-श्मशान या स्कैम और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी एवं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा उसका जवाबी जुमला यूं ही हवा में नहीं उछाला गया. अपने भाषण में अखिलेश द्वारा गुजराती गधों का उल्लेख या फिर बसपा अध्यक्ष मायावती द्वारा नरेंद्र दोमोदर दास मोदी को निगेटिव दलित मैन के रूप में परिभाषित करना आदि गहरी चुनावी रणनीति है.

इसके जरिए सत्ता के विभिन्न दावेदार जहां अपने वोट बैंक को लामबंद कर रहे हैं, वहीं दूसरों के समर्थक वर्ग में सेंध लगाने अथवा ऐसी कोशिश को नाकाम करने का जुगाड़ भी कर रहे हैं.

इससे यह भी साफ हो रहा है कि सिर्फ विकास, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दों के बूते हमारे नेता और दल, चुनाव जीतने के प्रति आश्वस्त नहीं है. यह मुद्दे तो दरअसल चाशनी हैं जिनका इस्तेमाल मतदाता को अपनी ओर आकर्षित करना भर है. असल चुनाव तो जातीय, सामुदायिक, धार्मिक और अन्य घोर भावनात्मक मुद्दों पर लड़ा जा रहा है.

इन मुद्दों पर मुलम्मा जरूर अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, देशभक्ति, देशद्रोह, महिला सुरक्षा, महिलाओं पर अत्याचार, गोरक्षा, राम मंदिर निर्माण और युवाओं के उज्जवल भविष्य अथवा दलितों से हुई नाइंसाफी का चढ़ाया जा रहा है.

डॉ. लोहिया ने नारे से बदली थी तस्वीर

ऐसा नहीं है कि चुनाव में सभी नारे खोखले अथवा सिर्फ जनता को भरमाने वाले ही साबित हुए हैं. कुछ नारे ऐसे भी लगे हैं जिन्होंने न सिर्फ चुनावों का रुझान बदला बल्कि आने वाली राजनीति की दिशा भी बदल दी. ऐसा ही नारा डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1966 में लगाया था,‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावै सौ में साठ’.

यहां संसोपा का मतलब संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से है. डॉ. लोहिया के इस नारे ने देश भर में पिछड़ों को एकजुट करने में चुंबक का काम किया. इससे जगी चेतना से पिछड़े लामबंद हुए. फिर उनके दबाव में पिछड़ों की राजनीति करने वाले चौधरी चरण सिंह और जनसंघ आदि अन्य दलों के नेताओं को गठबंधन करके सात राज्यों के विधानसभा चुनाव लड़ने पड़े. इसका पुरस्कार देश की वंचित जनता ने तत्काल देते हुए उन राज्यों में संविद सरकार बनवा दीं.

आजाद भारत के इतिहास में किसी नारे के बूते लोकतंत्र ने यह निर्णायक करवट ली थी जिसने कांग्रेस को पूरे उत्तर भारत में सत्ता से उखाड़ फेंका था. यह बात दीगर है कि आपसी स्वार्थों, अहंकार और विचारधारा के टकराव ने विपक्षी एकता को धराशायी करके मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस की फिर वापसी करवा दी.

उसके ठीक दस साल बाद 1977 में जनता पार्टी के रूप में विपक्षी दलों ने फिर जयप्रकाश नारायण और आचार्य जे बी कृपलानी की देखरेख में केंद्र में सरकार बनाई. सरकार ने महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पर शपथ लेकर राजकाज संभाला.

आपात काल की घुटन और किसानों को कर्ज सहित महंगाई से त्रस्त जनता को जनता पार्टी सरकार ने राहत भी दिलाई. इसके बावजूद वरिष्ठ नेताओं के बीच अहम के टकराव, विचारधारा के मतभेदों तथा कांग्रेस की कुटिलता ने ढाई साल में ही देश पर मध्यावधि चुनाव थोप दिया.

जाहिर है कि जनता ने अपने से इस विश्वासघात की विपक्षी दलों ओर नेताओं को कड़ी सजा देकर इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को 1980 में ही दोबारा सत्ता सौंप दी. इस जीत में उन नारों की बहुत बड़ी भूमिका थी जो चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस ने उछाले थे. जनता ने ढाई साल में मोरारजी देसाई और चरण सिंह की शक्ल में दो प्रधानमंत्री झेले.

इनमें से भी चौधरी चरण सिंह की सरकार कांग्रेस के समर्थन से बनी थी. इसलिए कांग्रेस ने संसद में विश्वास मत हासिल करने से पहले ही चरण सिंह सरकार गिरा कर विपक्षी नेताओं की साख को मटियामेट कर दिया. मोरारजी देसाई की सरकार जनसंघ के जनता पार्टी में विलय के बावजूद उसके नेताओं के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में जाने से उपजे दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर गिरी थी.

कांग्रेस ने भी लोकप्रिय नारों से लुभाया

इस तरह महज ढाई साल में दो-दो सरकार गिरने से त्रस्त जनता को कांग्रेस ने बड़े आकर्षक नारों से लुभाया. पीड़ित मतदाता से कांग्रेस ने कहा, ‘चुनिए उन्हें जो सरकार चला सकें’. जाहिर है कि इससे जनमानस सीधा प्रभावित हुआ.

इसी तरह,‘जात पर न बात पर, इंदिराजी की बात पर, मुहर लगेगी हाथ पर’ नारे ने भी लोगों को फिर से कांग्रेस के पीछे लामबंद कर दिया. हाथ यानी पंजा छाप चुनाव निशान दरअसल 1979 में कांग्रेस में दोबारा हुई टूट के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को नया ही मिला था. इंदिरा गांधी ने पार्टी से ब्रह्मानंद रेड्डी, यशवंत राव चव्हाण, देवराज अर्स आदि बुजुर्ग नेताओं को निकाला तो वे गाय-बछड़े को अपने साथ ले गए.

गाय-बछड़ा भी 1969 में आजादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस के बंट जाने पर कांग्रेस ‘इंदिरा’ के नाम पर चुनाव आयोग ने आवंटित किया था. उस टूट का कारण राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी का इंदिरा गांधी समर्थित वी वी गिरी के हाथों हार जाना था.

उससे पहले कांग्रेस का चुनाव निशान दो बैलों की जोड़ी था जिसे अटल बिहारी वाजपेयी की तब रही पार्टी जनसंघ वाले कहते थे,‘दो बैलों की जोड़ी, एक अंधा-एक कोढ़ी’. जनसंघ का चुनाव निशान तब ‘दीपक’ था और उसका बड़ा लोकप्रिय नारा था,‘‘ खा गई राशन, पी गई तेल-देखो, इंदिरा का ये खेल’.

इसी तरह 1998 के मध्यावधि चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के नारे,‘बारी बारी सबकी बारी-अबकी बारी अटल बिहारी’ ने भी जनमानस को गहरे तक छुआ. जनता तब तक कांग्रेस की कारगुजारियों को नकार चुकी थी. साल 1992 में बाबरी मसजिद ढहने के बाद भाजपा सुर्खरू थी.

जब 1996 में पहली बार बीजेपी ने छुआ था सैंकड़े का आंकड़ा

1996 के आम चुनाव में भाजपा ने सैकड़े को पहली बार पार करके अटल बिहारी वाजपेयी की सदारत में 13 दिन के लिए सरकार भी बना डाली थी मगर संसद में बहुमत के अभाव में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. तब कांग्रेस ने संयुक्त मोर्चा सरकार को बाहर से समर्थन देकर करीब दो साल तक दो प्रधानमंत्रियों एचडी देवेगौड़ा और इंदर गुजराल के सहारे चलाया.

अंततः 1998 के शुरू में ही मध्यावधि चुनाव की नौबत आ गई. इस चुनाव को अपने लिए निर्णायक मानते हुए भाजपा ने वाजपेयी की सदारत में 13 दलों को एनडीए के तहत लामबंद करके चुनाव लड़ा. एनडीए का नारा था, ' सबको देखा बार-बार-अबकी बार अटल सरकार'. जाहिर है कि नारा लोगों को छू गया और उन्होंने वाजपेयी की साख पर भाजपा को पहली बार डेढ़ सौ से ज्यादा सीटों पर जितवा दिया.

वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और केंद्र में एनडीए के गठबंधन की बहुमत वाली सरकार बनी. इस तरह नेता और दल यदि जनमानस को समझ कर सटीक नारे और जुमले गढ़ लें तो इतिहास भी बन जाता है, वरना चुनावी कांय-कांय को तो लोग वोट डालते ही भुला डालते हैं.