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क्या लोकसभा-विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का विरोध सिर्फ राजनीति से प्रेरित है?

लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने की संवैधानिक से ज्यादा राजनीतिक वजहें हैं

Debobrat Ghose

लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का मुद्दा गर्मागर्म बहस में तब्दील हो गया है. और अब यह धीरे-धीरे संवैधानिक मामले की बजाए राजनीतिक विवाद की शक्ल अख्तियार कर रहा है. जाहिर तौर पर इस तरह के घटनाक्रम में राजनीतिक पार्टियों की अहम भूमिका है.

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की अगुवाई वाली केंद्र की एनडीए सरकार इस प्रस्ताव को आगे बढ़ा रही है, जबकि विपक्षी पार्टियां (खास तौर पर कांग्रेस पार्टी) लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के आइडिया के सख्त खिलाफ हैं.


चुनाव आयोग ने बीते मंगलवार को साफ किया कि पर्याप्त वीवीपीएटी मशीनें उपलब्ध नहीं होने के कारण लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ नहीं हो सकते. मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) ओ पी रावत ने सीएनएन न्यूज 18 को बताया, 'देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के लिए हमारे पास पर्याप्त वीवीपीएटी मशीन उपलब्ध नहीं है.' उन्होंने दोहराया कि जिन ऐसी मशीनों के इस साल सितंबर में ही उपलब्ध हो जाने की उम्मीद थी, वह अब नवंबर से पहले नहीं मिल पाएगी और इस तरह से इससे जुड़ी पूरी प्रक्रिया में पहले ही देरी हो चुकी है. इन परिस्थितियों के मद्देनजर दिसंबर में लोकसभा और विधानसभा- दोनों चुनाव एक साथ कराना मुश्किल होगा.

मुख्य चुनाव आयुक्त का यह भी कहना था कि अगर अगले साल सही वक्त पर पर्याप्त संख्या में वीवीपीएटी मशीनें उपलब्ध हो जाती हैं, तो लोकसभा और 11 विधानसभाओं के चुनाव एक साथ 2019 में कराए सकते हैं.

बहरहाल, एक साथ चुनाव कराने या 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' का आइडिया नया नहीं है, जिसका कांग्रेस और कुछ अन्य विपक्षी पार्टियां काफी विरोध कर रही हैं. अगर इसी प्रक्रिया के तहत कराए गए पहले 4 चुनाव (1952 से 1967 तक) पूरी तरह से संवैधानिक थे, तो कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियां अब केंद्र और राज्यों के लिए एक साथ चुनाव कराने के खिलाफ क्यों आक्रामक रवैया अपना रही हैं?

एक राष्ट्र, एक चुनाव का आइ़डिया नया नहीं

भारत में लोकसभा और राज्यों की विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने का आइ़डिया नया नहीं है. देश को आजादी मिलने के बाद पहला चुनाव 1952 में हुआ. उस वक्त लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ हुए. 1952 से 70 तक यही परंपरा चली. 1952, 1957, 1962 और 1967 में केंद्र और राज्य स्तर पर एक साथ चुनाव हुए. यह परंपरा तब खत्म हुई, जब चौथी लोकसभा अपने पूरे कार्यकाल के तय समय से पहले भंग हो गई. तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के कार्यकाल में ऐसा हुआ था. 1967 के आम चुनाव के तहत चौथी लोकसभा को चुनने के लिए चुनाव हुए और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) लगातार चौथी बार सत्ता में आने में सफल रही. हालांकि, इस चुनाव में देश के 7 राज्यों में कांग्रेस को भारी नुकसान हुआ.

उस वक्त कांग्रेस के समर्थन में आई गिरावट साफ तौर पर नजर आ रही थी और विधानसभा चुनावों में भी इसकी झलक देखने को मिली. कांग्रेस को उसी साल 6 राज्य सरकारें गंवानी पड़ी. कांग्रेस पार्टी से करीबी तौर पर जुड़े एक राजनीतिक विश्लेषक ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया, 'कांग्रेस की हार के बाद इंदिरा गांधी ज्यादा सक्रिय हो गईं और उन्होंने पार्टी संगठन के एक हिस्से के खिलाफ जाकर कुछ फैसले लिए. ऐसे में पार्टी में विभाजन हो गया. ऐसे ही एक फैसले में लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव अलग-अलग कराए जाने का मामला भी शामिल था.'

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मामले पर फिर से फोकस किया

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में एक बार फिर लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का मुद्दा उठाया. बाद में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी इस आइडिया का समर्थन किया.

'एक राष्ट्र, एक चुनाव' के इस आइडिया के पक्ष में दलील दी गई कि इससे कीमती संसाधनों को बचाना मुमकिन हो सकेगा और देश को चुनावी माहौल की चलने वाली निरंतर प्रक्रिया से अलग किया जा सकेगा. इससे पहले मोदी ने बीजेपी कार्यकर्ताओं से कहा था कि उन्होंने एक साथ चुनाव कराने के आइडिया का इसलिए समर्थन किया क्योंकि इससे जमीनी स्तर पर सामाजिक कार्यों के लिए ज्यादा वक्त मिल सकेगा. केंद्र और राज्यों की सरकारों के लिए एक ही वक्त में चुनाव कराने के प्रस्ताव को बीजेपी के 2014 के घोषणापत्र में भी शामिल किया गया था.

संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट क्या कहती है?

दिसंबर में संसद की स्थायी समिति की एक रिपोर्ट में इस सिलसिले में सिफारिश की गई थी. इसमें कहा गया था कि अगर भारत को बाकी देशों के विकास के एजेंडे से प्रतिस्पर्धा करनी है और उसे मजबूत अर्थव्यवस्था बननी है, तो इस तरह का सुधार 'देश के लिए अहम' है.

संविधान विशेषज्ञ एसके शर्मा ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया, 'लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने का प्रचलन पहले भी रहा था. इसमें कुछ नया नहीं है. दरअसल अगर दोनों चुनाव एक साथ होते हैं, तो इससे देश को फायदा होगा. मौजूदा प्रणाली में तकरीबन हर 3 महीने के बाद एक चुनाव आ जाता है, जो न सिर्फ वित्तीय संसाधनों के लिहाज से बोझ बन गया है, बल्कि उन लोगों और तंत्र के लिए भी दिक्कत की बात है, जो इस पूरी प्रक्रिया को संपन्न कराते हैं.'

लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के फायदे

संसद की स्थायी समिति के मुताबिक, लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के पीछे तर्क कुछ इस तरह हैः

• बार-बार होने वाले चुनावों से जुड़े खर्च को कम करना.

• चुनाव के दौरान आचार संहिता लागू रहने के कारण पैदा हुई 'पॉलिसी पैरालिसिस' की मुश्किल से निजात पाना.

• चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान सामान्य जनजीवन की अस्तव्यवस्ता को नियंत्रित करना.

• चुनावी ड्यूटी में बड़ी संख्या में तैनात सैन्य और अर्द्धसैनिक बलों को मुक्त करना.

इसका विरोध क्यों हो रहा है?

कांग्रेस ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के आइडिया का जोरदार विरोध किया है. पार्टी ने इसे 'संघीय ढांचे के बुनियादी सिद्धांत के खिलाफ' बताया है.

कांग्रेस के सीनियर नेताओं और पूर्व नेताओं वाले एक प्रतिनिधिमंडल ने 3 अगस्त को लॉ कमीशन के प्रतिनिधियों के साथ मुलाकात कर लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के खिलाफ अपनी पार्टी का पक्ष रखा था. इस प्रतिनिधिमंडल में मल्लिकार्जुन खड़गे, पी चिदंबरम, कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, आनंद शर्मा और जे डी सलेम शामिल थे.

कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला पहले ही कह चुके हैं कि जो यह चाहते हैं कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हों, उनका देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में कोई भरोसा नहीं है.

सुरजेवाला ने कहा था, 'क्या आप लोकतंत्र को कुचलने जा रहे हैं? क्या आप संसद और विधानसभाओं का कार्यकाल छोटा करने जा रहे हैं?'

कांग्रेस ने पूछा है कि क्या जनता की इच्छा से चुनी गई विधानसभा का कार्यकाल संवैधानिक प्रचलन और संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा नहीं है.

लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने को लेकर विपक्ष की क्या चिंता है?

• अगर एक साथ चुनाव कराने का सिस्टम लागू किया जाता है, तो बदलाव की इस प्रक्रिया में ऐसे क्या इंतजाम किए जाएंगे, ताकि मौजूदा निर्वाचित राज्य सरकारें अपना कार्यकाल पूरा करें, जिसके लिए वे चुनी गई हैं.

• अगर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाते हैं, तो राष्ट्रीय मुद्दों का वर्चस्व होगा, जबकि राज्यों के मुद्दे बैकग्राउंड में चले जाएंगे.

• एक साथ चुनाव कराने (लोकसभा और राज्यों के) के लिए सभी विधानसभा चुनावों का उनकी मौजूदा स्थिति से तालमेल बिठाना होगा. दरअसल, ऐसी हालत में कुछ राज्यों की विधानसभा के चुनाव उनका कार्यकाल खत्म होने की तारीख से काफी पहले कराने होंगे. विपक्षी पार्टियों को लगता है कि यह वोटरों द्वारा दिए गए स्वतंत्र लोकतांत्रिक जनादेश के लिहाज से ठीक नहीं होगा. इसके परिणामस्वरूप कई राज्य अपना प्रदर्शन दिखाने में सक्षम नहीं होंगे, जिसके लिए (प्रदर्शन) 5 साल की अवधि तक का दायरा होता है.

सदन में बंटी हुई है राय

बीजेपी के साथ जेडी(यू) समाजवादी पार्टी, टीआरएस, एआईएडीमके, बीजेडी और शिरोमणि अकाली दल ने इस आइडिया का समर्थन किया है, जबकि कांग्रेस, लेफ्ट, तृणमूल कांग्रेस, आरजेडी, तेलुगूदेशम पार्टी, एआईएमआईएम और आप जैसी पार्टियां इस आइडिया के खिलाफ हैं.

तृणमूल कांग्रेस के नेता लंका दिनकर ने इस प्रस्ताव पर सवाल उठाते हुए कहा, 'केंद्र सरकार उपयुक्त संविधान संशोधन के बिना किस तरह से इस आइडिया को आगे बढ़ा सकती है? और आप इसे अचानक क्यों आगे बढ़ा रहे हैं?'

कुछ राजनीतिक टीकाकारों के मुताबिक, लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने की संवैधानिक से ज्यादा राजनीतिक वजहें हैं. एस के शर्मा ने कहा, 'कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियां इसलिए इसका विरोध कर रही हैं, क्योंकि अगर लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाते हैं, तो प्रधानमंत्री केंद्र और राज्य दोनों जगहों पर सबसे ताकतवर चेहरे के तौर पर उभरेंगे. इसके उलट, कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों को नुकसान होगा. अगर एक साथ चुनाव कराए जाते हैं तो मोदी के कारण बीजेपी शासित राज्यों को फायदा होगा.'