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किस मुगालते में हैं शिवपाल? तीन साल बाद भी अखिलेश नहीं छोड़ेंगे अध्यक्ष पद

यूपी चुनाव के पहले से चल रहा यादवी परिवार का घमासान पार्टी की बागडोर हासिल करने के लिए ही था

Kinshuk Praval

यूपी चुनाव के बाद जंग खा रहीं चाचा-भतीजे की म्यान में रखी तलवारें फिर बाहर निकल आई हैं. इस बार चाचा शिवपाल यादव भतीजे अखिलेश यादव से आर-पार के मूड में हैं. चाचा जानते हैं कि यूपी में हुई दुर्गति के बाद भतीजा बैकफुट पर है. तभी राजनीति के पुराने अनुभव के बूते शिवपाल ने ताल ठोंक दी है.

शिवपाल ने अखिलेश को सीधी धमकी देते हुए 3 महीने का अल्टीमेटम दिया है. शिवपाल का कहना है कि 3 महीने के भीतर अखिलेश हड़पा हुआ राजपाट वापस पार्टी के संस्थापक और मुखिया मुलायम सिंह यादव को सौंपे. वर्ना वो सेकलुर पार्टी बना लेंगे. जाहिर तौर पर शिवपाल की नई पार्टी का मतलब ही समाजवादी पार्टी में दो फाड़ है.


लेकिन देखा जाए तो अखिलेश पर इससे फर्क भी नहीं पड़ेगा. अखिलेश खुद चाहेंगे कि उनके नेतृत्व पर सवाल उठाने वाले जितनी जल्दी बाहर जाएं उतना ही उनके लिए अच्छा होगा. रोज-रोज की टोकाटाकी से निजात मिलेगी. अपनी मर्जी से काम करने की आजादी होगी. मार्गदर्शक मंडल का किसी भी फैसले पर अंकुश नहीं होगा.

चाचा-भतीजे में शह-मात का खेल 

चाचा-भतीजा ‘पहले आप’ के इंतजार में हैं. शिवपाल सोच रहे हैं कि अखिलेश उन्हें पार्टी से बाहर निकाल दें. ताकि सहानुभूति मिले. फिर वो मुलायम सिंह यादव के नाम पर नई पार्टी का ऐलान कर सकें. लेकिन अखिलेश की चुप्पी में एक इंतजार छिपा हुआ है. वो चाहते हैं कि शिवपाल एक दिन खुद ही बागी बन जाएं. पार्टी छोड़ कर चले जाएं और नई पार्टी बना लें.

अखिलेश यूपी चुनाव में टिकट बंटवारे के वक्त ही अपने इरादे साफ कर चुके थे. उन्होंने न सिर्फ चाचा के करीबियों को किनारे लगा दिया था बल्कि नेताजी के करीबियों को भी ठिकाने लगा दिया.

अखिलेश का अब तक का जो सियासी रिकॉर्ड है वो उनकी युवावस्था का पुरजोर प्रतीक है. वो रिस्क लेने में भरोसा करते हैं. यही वजह थी कि उन्होंने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने का रिस्क पिता की नसीहत को ठुकरा कर लिया. ऐन चुनाव से पहले परिवार और पार्टी के विवाद में वो झुके नहीं.उन्होंने चुनाव में नुकसान उठाने की रिस्क उठाया.

बढ़ते संघर्ष में उन्होंने शिवपाल और अमर सिंह को पार्टी से हटा दिया. ये रिस्क बस चुनावी कवायद ही नहीं था. अखिलेश के ‘चाणक्य’ जिन्हें शिवपाल ‘शकुनी’ बताते हैं यानी रामगोपाल यादव की रणनीति पहले से साफ थी कि सपा के मुखिया की लड़ाई अगर अभी नहीं लड़ी गई तो बाद में सिर्फ हार ही नसीब होनी है. जिस तरह से अखिलेश ने पार्टी वर्चस्व के लिए लड़ाई लड़ी और उसका ताना-बाना बुना उससे कहीं न कहीं वो आशंका साफ दिख रही थी. अखिलेश को चुनाव से ज्यादा पार्टी की कमान की फिक्र थी.

अखिलेश चाहते थे कि किसी भी तरह उनकी पार्टी में नंबर वन की हैसियत बने ताकि चुनाव बाद उनका राजनीतिक करियर हाशिए पर न चला जाए. अखिलेश जान चुके थे कि कुछ ‘बाहरी’ उन्हें चुनाव जीतने पर फिर से सीएम नहीं बनने देंगे. वो ये भी जान चुके थे कि परिवार में दूसरे लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं उनके लिए राजनीतिक वनवास की तैयारियां कर रही थीं. तभी 24 अक्टूबर को समाजवादी पार्टी की महाबैठक में मंच पर अखिलेश और शिवपाल में हाथापाई तक की नौबत आ गई थी.

माइक पर ही अखिलेश चिल्लाए थे कि अमर सिंह के इशारे पर एक आर्टिकल छपा था जिसमें उन्हें औरंगजेब बताया गया. तू-तू मैं-मैं तब तक सुनाई दिया जब तक कि माइक बंद नहीं हुआ लेकिन मंच का नजारा साफ कर चुका था कि चाचा से गले मिलने वाला भतीजा पार्टी की कीमत पर कोई समझौता नहीं करेगा.

मुलायम कुनबे की महाभारत में हर दिन नई उठा पटक के बाद आखिरकार साम-दाम-दंड-भेद के साथ अखिलेश ने पुत्र-हठ के बूते पार्टी का साइकिल सिंबल अपने नाम कर लिया.

शिवपाल उस हार से तिलमिला कर रह गए और उसके बाद पूरे चुनाव में शिवपाल सिर्फ जसवंत नगर तक ही सिमटे दिखाई दिए. मुलायम सिंह और शिवपाल यादव चुनाव की वजह से ज्यादा प्रतिकार नहीं कर सके. अखिलेश ने मंझे हुए राजनीतिज्ञ की तरह पूरे चुनाव की बागडोर अपने हाथ में ले ली. अखिलेश भले ही चुनाव हार गए लेकिन वो उस मकसद में जीत गए जिसकी व्यूह रचना रची गई थी.

अखिलेश ने मुलायम के उत्तराधिकारी घोषित करने के पहले ही खुद को वारिस घोषित कर दिया. सपा के सर्वेसर्वा बन गए. शिवपाल हाथ मलते रह गए. जो बाहरी थे वो बाहर ही हो गए.

यूपी चुनाव की हार से मिली शिवपाल को संजीवनी

यूपी चुनाव में अखिलेश को हार क्या मिली जैसे शिवपाल को संजीवनी मिल गई है. शिवपाल अखिलेश पर हमलावर हो गए हैं और खुल कर उनसे राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से इस्तीफा मांग रहे हैं.

शिवपाल का कहना है कि अखिलेश पूरी तरह फेल साबित हुए हैं और अब अखिलेश को अपने वादे के मुताबिक मुलायम सिंह यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष पद सौंप देना चाहिए. राजनीति के जानकार इसे शिवपाल की मासूमियत ही कह सकते हैं.

दिलचस्प ये है कि चाचा–भतीजे के बीच छिड़ा यादव-युद्ध पिता से गुजरते हुए सौतेले भाई-बहनों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के पार तक पहुंच गया. अपर्णा यादव ने भी हार के बाद कहा कि अब अखिलेश भैया को मुलायम सिंह को पार्टी सौंप देनी चाहिए.

हाल के दिनों में यूपी के नए सीएम योगी आदित्यनाथ के साथ बढ़ती शिवपाल और प्रतीक-अपर्णा यादव की नजदीकी भी बदलते राजनीतिक समीकरणों का इशारा कर रही है.

अखिलेश हार के मंथन के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ईवीएम की गड़बड़ी से चुनाव हारे हैं. एक तीर से दो शिकार कर रहे हैं. एक तरफ जनता में ये संदेश जाए कि वो हार नहीं हराए गए हैं तो दूसरी तरफ पार्टी के भीतर उनके खिलाफ विरोध के स्वर न उठ सकें. लेकिन शिवपाल मोर्चा खोल चुके हैं.तीन महीने की मियाद भी दे दी है. लेकिन भविष्य की जो तस्वीर दिखाई दे रही है उसमें शिवपाल को ही पार्टी छोड़कर जाना पड़ सकता है.

अखिलेश 3 महीने बाद क्या 3 साल बाद भी समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष पद नहीं छोड़ने वाले हैं. अगर ऐसा होना ही होता तो ये चुनाव मुलायम सिंह के नेतृत्व में ही लड़ा गया होता और शायद फिर चुनाव के नतीजे 47 की बजाए कुछ सम्मानजनक हो सकते थे.