view all

सूचना के संकट से जूझते नीतीश: खुफिया फेल हैं, 'तंत्र' उन्हें कुछ बताता नहीं, 'जन' से संवाद नहीं

बिहार के सीएम नीतीश कुमार अपने राजनीतिक जीवन के सबसे चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं.

Arun Ashesh

बिहार के सीएम नीतीश कुमार अपने राजनीतिक जीवन के सबसे चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं. राजकाज के तीसरे चरण में उन्हें उन तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, जिनसे कभी लालू प्रसाद रूबरू हुए थे. अपराध, भ्रष्टाचार, खुदमुख्तार अफसरशाही, कई तरह के घोटालों-अपराध की वारदातों की सीबीआइ जांच. कैलेंडर को अगर 13 साल पीछे ले जाएं तो राजकाज की तस्वीर हू ब हू तो नहीं, मिलती-जुलती जरूर नजर आएगी.

कुछ ऐसी ही बेबसी लालू प्रसाद की भी थी. सूचना के अपने बनाए स्रोतों के जरिए हर तरफ से खैरियत और सलामती की मनपसंद खबरों के बावजूद जमीनी सतह पर कोई भी चीज ढर्रे पर नहीं चल रही थी. लोगों की नाराजगी के बारे में जानकारी का कोई जरिया नहीं रह गया था. नतीजा यह निकला कि सत्ता जब खिसकी तो वो अवाक रह गए. यहां छवि का फर्क है. लालू प्रसाद जब कमजोर हो रहे थे, उनसे नाराज लोगों में खुशी थी. कुछ भी होगा, आज की हालत से बेहतर होगा.


नीतीश के बारे में यह धारणा नहीं है. कभी के उनके समर्थक आज अगर विरोध करते हैं, तब उनके मन में मलाल रहता है कि आखिर इस आदमी के रहते इतनी गड़बड़ी कैसे हो पाई. निजी जीवन में उन्हें कोई बेईमान नहीं बता रहा है. लेकिन, साथ में जब उनके आसपास रहने वालों या उनके निर्णयों को प्रभावित करने वाले चेहरों पर नजर पड़ती है तो घोर निराशा हाथ लगती है.

बेशक कुछ चेहरे साफ हैं. मगर, तादाद उनकी अधिक है, जिनकी पहचान तबादले-पोस्टिंग के कारोबारी या ठेका-पट्टा मैनेजर की बन चुकी है. सवाल उठता है कि क्या यह सब नीतीश कुमार की गैर-जानकारी हो रहा है. अगर ऐसा है तो यह और बुरा है. क्योंकि गड़बड़ी करने पाले वही लोग हैं, जो हमेशा 'हुजूर का इकबाल बुलंद है' का नारा लगाते हैं.

सही सूचना देने वाला सिस्टम नहीं है

आप गड़बड़ी की प्रकृति पर गौर करें. पता चलेगा कि जनता के बीच क्या हो रहा है, उसके बारे में ठीक-ठीक जानकारी देने वाला कोई साधन नीतीश कुमार के पास नहीं रह गया है. तस्दीक के लिए एक घटना को याद करें. इसी साल जनवरी महीने में सीएम के काफिले पर बक्सर जिले के एक गांव में हमला हुआ. उनके कार्यक्रम की तैयारी महीनों से हो रही थी. विरोध की तैयारी भी समानान्तर चल रही थी. लेकिन, ग्रामीण चौकीदार, पार्टी का स्थानीय कार्यकर्ता, खुफिया विभाग, दारोगा, इंस्पेक्टर, डीएसपी, एसपी-यानी जनता से जुड़े चैनल के किसी भी अंग को भी विरोध की भनक नहीं लगी.

सूचना के विस्फोट वाले दौर में इस चूक को क्या कहा जा सकता है. नीचे से लेकर ऊपर तक 'आॅल इज वेल' की सदा निकली और जब गड़बड़ी हो गई तो जिम्मेदारी तय करने के लिए गर्दनों की तलाश होने लगी. यह उदाहरण है जो बताता है कि बाकी मामलों में भी यही फॉर्मूला अपनाया जा रहा है. वह सिस्टम, जिसे नीतीश ने बड़े जतन से अपने पहले कार्यकाल में बनाया था, वह उनके दूसरे कार्यकाल में कमजोर हुआ और अब तकनीकी तौर पर तीसरे कार्यकाल में पूरी तरह ध्वस्त होने के कगार पर है.

हालांकि, उनके कुछ कदमों से लगता है कि उन्हें इसका भान हो चुका है. उसे ठीक करने की कोशिश कर रहे हैं. एक ही समय में सभी सरकारी कार्यालयों का औचक निरीक्षण और जेलों में छापामारी इन्हीं कोशिशों का हिस्सा है. बहुत कुछ बिगड़ गया है. फिर भी नीतीश में पुरुषार्थ है कि जी कड़ा कर लें, आसपास के बेईमानों को विश्राम के लिए भेज दें तो सबकुछ पटरी पर आ सकता है.

सबसे अच्छी बात यह है कि उन्हें मतबूत विपक्ष मिला है, जो कुछ मामलों में अतिरंजना के बावजूद गड़बड़ियों पर पैनी नजर रख रहा है. उसे उजागर कर रहा है. सरकार को चैन से न बैठने के लिए मजबूर कर रहा है. यह सीएम की साख ही है कि विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव खुद नीतीश के व्यक्तित्व के सकारात्मक पहलुओं का अनुसरण करते हैं.

कैसे जनता से कटती गई सरकार?

2010 के विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी फैक्टर कहीं पर नहीं था. पांच साल सत्ता में रहने के बावजूद सत्ता विरोधी रुझान नहीं था. इसके उलट जनता के मन में सत्ता के अच्छे काम के एवज में पुरस्कार देने का भाव था. यह भाव परिणाम लेकर आया. जदयू को 115 और भाजपा को 91 सीटें मिली. 243 सदस्यीय विधानसभा में इसे 'लैंड स्लाइड विक्टरी' माना गया. सचमुच, सिर्फ 22 सीट पाकर मुख्य विपक्षी दल राजद जमींदोज हो गया था. वहीं नीतीश कुमार जब 2015 के विधानसभा चुनाव में जाते हैं तो जनता को सरकार की उपलब्धियां बताने के लिए किराए पर एजेंसी लेनी पड़ती है.

यह बताता है कि सरकार और जनता के बीच कड़ी के तौर पर काम करने वाले जमीनी कार्यकर्ता गायब हो गए थे. आज भी वही हालत है. इतना ही नहीं, उन्हें धुर विरोधी राजद से समझौता करना पड़ता है. गौर कीजिए. यही वह दौर है, जिसमें हरेक तरह के घोटाले, जो पहले कार्यकाल में कहीं बीज की अवस्था में थे, वृक्ष बन गए. सृजन, छात्रवृत्ति, शौचालय, शेल्टर और भी ढेर सारी गड़बड़ियां इनके उदाहरण हैं.

छात्रवृत्ति और बहाली घोटाला में तो आईएएस अफसर तक जेल गए हैं. जाहिर है, ये सब घोटाले एक दिन में नहीं हुए. ये सभी योजनाएं आम जनता से जुड़ी हुई हैं. लिहाजा, पार्टी के कार्यकर्ता अगर सक्रिय रहते तो उन्हें पहले जानकारी मिल सकती थी. सवाल उठता है कि कार्यकर्ता को जानकारी मिली भी होगी तो वह किसे बताएगा. जैसे इस समय पंचायतों में नल-जल योजना चल रही है. सरकार को छोड़कर हर किसी को योजना में हो रहे घपले की जानकारी है. आरोप है कि योजना की 30 फीसदी रकम पहले बंट जाती है. लेकिन, कौन और किससे कहेगा?

फीडबैक देने वाला जनता दरबार बंद है

नीतीश कुमार नवम्बर 2005 में सीएम बने. अगले साल से उनका जनता दरबार चलने लगा. आम लोगों को इज्जत देने की गरज से उन्होंने इसका नाम रखा 'जनता के दरबार में मुख्यमंत्री.' इस कार्यक्रम की खूब सराहना हुई. कभी-कभी फरियादियों की तादाद हजार पार कर जाती थी. आम तौर पर महीने के पहले, दूसरे और तीसरे सोमवार को इसका आयोजन होता था. इसके जरिए सरकार को जानकारी मिलती थी कि जन कल्याण की उसकी योजनाएं जमीन पर पहुंच रही हैं या नहीं.

पुलिस और सामान्य प्रशासन से जुड़े मुलाजिमों की गलत हरकतों की जानकारी भी मिलती थी. सीएम संबंधित विभाग के मंत्रियों और अफसरों के साथ बैठते थे. यह फीडबैक लेने का अच्छा प्रयास था, जो राज्य में पहली बार हो रहा था. लेकिन, 2016 के बाद यह धीरे-धीरे खत्म हो गया. दलील यह दी गई कि सेवा का अधिकार वाला कानून लागू होने के बाद जनता की सभी समस्याओं का निदान हो गया है. बेशक इस कानून का लाभ जनता को मिल रहा है. लेकिन, फीडबैक लेने के लिए इतना ही सटीक विकल्प नहीं तैयार किया जा सका. अब सूचना का एकमात्र जरिया वह सरकारी तंत्र है, जो हरेक गड़बड़ी का अनिवार्य रूप से हिस्सेदार रहता है.

गड़बड़ी की शिकायत मिलती है. जांच भी होती है. सिर्फ जिम्मेदार नहीं धरे जाते हैं. क्योंकि गड़बड़ी करने वाला और जांचने वाला-दोनों एक ही सरकार का अंग है. ऐसे में कभी थर्ड पार्टी ऑडिट होती है तो मुजफ्फरपुर जैसा कांड निकल जाता है. जनता दरबार की तर्ज पर कार्यकर्ता दरबार का भी आयोजन हुआ था. वह दो-तीन आयोजनों के बाद बंद हो गया. ताजा हाल क्या है? पूर्व केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के एमएलसी डॉ. संजय पासवान ने बताया, 'भवन निर्माण विभाग में गड़बड़ी के कुछ ठोस सुबूत हाथ लगे थे. मैंने चार बार विभाग के प्रधान सचिव को फोन किया. लगा कि मेरा नंबर उनके लिए अनजान होगा. मैसेज किया. तीन महीने हो गए. आजतक काॅलबैक नहीं हुआ.'

( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. हमारी वेबसाइट पर उनके अन्य लेख यहां क्लिक कर पढ़े जा सकते हैं.)