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रूठ कर मान जाने की कला में माहिर हैं शरद यादव

शरद की राजनीति को देखते रहिए और सिर्फ कयास लगाइए

Arun Tiwari

जनता दल यूनाइटेड के बीजेपी के साथ नए-नवेले गठबंधन के बाद शरद यादव का गुस्सा भड़क उठा है. इस भड़काऊ गुस्से के पीछे वजह भी कई कारणों से हास्यास्पद है. हास्यास्पद कहने की लाजिमी वजह भी है.

दरअसल नीतीश कुमार ने जब बीजेपी के साथ गठबंधन का फैसला किया तभी शरद यादव असहज हो उठे. नीतीश मुद्दों पर राजनीति के लिए जाने जाते हैं लेकिन शरद यादव को हर बार नीतीश के मुद्दे को ही मुख्य मुद्दा मानने की बाध्यता ही असहजता भी पैदा करती है.


नीतीश कुमार अपनी सुशासन वाली छवि के साथ खिलवाड़ नहीं चाहते और शरद यादव यथास्थिति से. नीतीश जब कोई नया निर्णय लेते हैं शरद यादव का शुरुआती विरोध पहले से तय होता है. लेकिन अंत में शरद यादव नीतीश के बनाए रास्ते को ही पकड़ लेते हैं.

कई बार ये इश्किया ना-नुकुर तरह भी लगता है. मतलब ना में भी हां है वाला स्टाइल नजर आता है. ये स्टाइल धीरे-धीरे शरद यादव का सिग्नेचर स्टाइल भी बनता जा रहा है.

महागठबंधन में सबकुछ सेट था. नीतीश कुमार सीएम थे और शरद आराम से दूसरी पार्टियों के साथ बातचीत कर पार्टी के बड़े-बूढ़े की भूमिका अदा कर रहे थे. शरद दिल्ली आते थे एकजुट विपक्ष में सोनिया गांधी के बगल में उनकी सीट पक्की थी तो बिहार में नीतीश के बगल में. लालू जी से भी संबंध बिल्कुल सौहार्दपूर्ण थे.

शायद इसी वजह लालू परिवार के भ्रष्टाचार के एक के बाद एक खुलते मुद्दों पर भी उन्होंने एक बार जुबान नहीं खोली. उन्हें लगा कि गठबंधन टूटा तो फिर पक्की सीट का सीमेंट फिर चेक करना पड़ेगा क्योंकि पिछले जेडीयू अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी भी उनसे ले ली गई थी. लेकिन नीतीश तो नीतीश ठहरे. उन्होंने फैसला लिया और इस्तीफा देकर शरद को असहज कर दिया.

शरद यादव को लगा कि ये निर्णय लेते समय नीतीश ने उनसे कुछ नही पूछा तो उन्होंने भुनभुनाहट भरे विरोध का सुर्रा छोड़ दिया. राजनीतिक हल्कों में रहने वाले लोग ये भी कहते हैं कि शरद यादव विरोध के अपने इन तरीकों के जरिए नई राजनीतिक परिस्थितियों में अपनी जगह पक्की करने का जुगाड़ पूरी तरह फिट रखते हैं.

अब इस समय की सिचुएशन को देख लीजिए. शरद यादव इस समय जेडीयू के राज्यसभा सांसद हैं. वहां उनकी सीट फिक्स है. उन्हें मालूम है कि वो इस पद पर बने रहेंगे.

लेकिन बीजेपी-जेडीयू गठबंधन के समय से सियासी गलियारों में ये सुगबुगाहट हुई कि केंद्रीय सरकार में जेडीयू के कुछ लोगों को जगह मिल सकती है. इस खबर के राजनीतिक बाजार में आते ही शरद यादव को कई बातें एक साथ याद आ गई होंगी. ये बातें जरूर शरद यादव के एनडीए संयोजक रहने के दौरान की होंगी को उनकी यादों में आती ही रहती हैं. लेकिन वो जमाना और था.

इस समय के बीजेपी के जैसे तेवर हैं शायद ही कोई बता पाए कि किसे क्या मिलेगा? कोई बिल्कुल नेपथ्य का व्यक्ति बड़े पद पर पहुंच सकता है और किसी बड़े नेता को भी कुछ ना मिले तो कुछ कहा नहीं जा सकता. नीतीश कुमार ने भी बयान दे दिया कि हमें सिर्फ बिहार से मतलब है केंद्र के बारे में अभी हम नहीं सोच रहे हैं. तो राजनीति में कई दशक गुजार चुके शरद यादव ने यह महसूस कर लिया कि यहां तो अधर वाली स्थिति है.

केंद्र में जगह न फिक्स होते देख शरद यादव अब कह रहे हैं कि नीतीश कुमार सरकारी जेडीयू के नेता हैं और मैं वास्तविक सेकुलर जेडीयू का नेता हूं. उन्होंने नीतीश कुमार पर जनमत को धोखा देने का आरोप भी लगाया है.

दरअसल शरद यादव जानते हैं कि विपक्ष में तो उनकी भूमिका फिक्स है लेकिन हो सकता है बीजेपी उनकी नई भूमिका दे भी या न दे. क्योंकि नया एनडीए अब पुराना वाला एनडीए नहीं है. बहुत संभव है कि जैसे शरद यादव की भूमिका फिक्स करती हुई घोषणा हो तो सांकेतिक अनशन भी समाप्त हो जाए.

फोटो: पीटीआई

इससे पहले भी एक ऐसा उदाहरण मिलता है. शरद तब एनडीए के संयोजक थे जब नीतीश कुमार ने बीजेपी से गठजोड़ तोड़ने की बात की थी. उस समय भी शरद यादव की भूमिका फिक्स थी. जबकि बिहार में लालू यादव बेहद कमजोर स्थिति में थे.

नीतीश कुमार की अगुवाई में जब सरकार बन गई तो फिर उसके बाद कभी शरद की तरफ से कोई विरोध नहीं नजर आया. यहां तक कि राजद के सिलसिलेवार घोटालों की खबरों के आने के बाद भी. उन्होंने उस समय भी खूब फुटेज ली थी और उसके बाद अपनी बात न बनते देख धीरे से महागठबंधन के समर्थ में आ गए.

लेकिन खुद को जॉर्ज फर्नांडिस की राजनीति का वारिस मानने वाले शरद यादव शायद जॉर्ज और समता पार्टी के सिद्धांतों को भूल चुके हैं. 2001 में ताबूत घोटाले को लेकर समता पार्टी के एनडीए में सभी मंत्रियों के इस्तीफे बात तो कई लोगों की यादों में ताजा होगी. फिर नीतीश कुमार जॉर्ज की इस स्टाइल को अपनाते आए हैं. जब कभी विरोध की स्थिति बनी तो नीतीश कुमार बेहिचक पहले इस्तीफा देते हैं. जिस तरह से नीतीश कुमार इस्तीफे देते हैं काफी लोग उन्हें मजाक में सुशासन की जगह इस्तीफा बाबू भी कहते हैं.

तो क्या शरद यादव ने समता पार्टी के सिद्धांतों को तिलांजलि दे दी है? क्योंकि वो जानते हैं कि अगर उन्होंने इस्तीफा दिया तो गड़बड़ हो जाएगी जबकि जेडीयू ने उन्हें निकाला तो कम से कम राज्यसभा की सीट तो बची ही रह जाएगी.

शरद यादव हर बार विरोध करते प्रतीत होते हैं लेकिन फिर धीरे-धीरे नीतीश कुमार की बनाई मुख्यधारा में शामिल हो जाते हैं. शरद यादव जानते हैं कि नीतीश से अलग रहकर उनकी राजनीतिक धार कुंद ही पड़ेगी. कुंद क्या पड़ेगी भोथरी हो जाएगी. क्योंकि शरद यादव कभी मास लीडर नहीं रहे. वो भले ही पार्टी में बड़ी भूमिका अदा करते हों लेकिन बिहार की जनता ने भरोसा हमेशा नीतीश के चेहरे पर दिखाया.

इसलिए शरद की राजनीति को देखते रहिए और सिर्फ कयास लगाइए. उनके हालिया विरोध का अंत इसी से हो सकता है कि जेडीयू उनकी बयानबाजी से आजिज आकर उन्हें पार्टी से निकाल दे. क्योंकि खुद शरद यादव तो इस्तीफा देकर विरोध जताने वाली राजनीति तो कब की भूल चुके हैं. वो पानी देखकर गहराई अंदाजा लगाने की कोशिश में रहते हैं कभी गहराई नापने पानी में उतरते नहीं हैं.