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देश को आपके बारे में जानकारी आपकी जान से प्यारी है

इंश्योरेस कंपनियों के विज्ञापनों से चिढ़ने की जरूरत नहीं है, क्योंकि खतरा मरने का नहीं बल्कि लुटने का है

Rakesh Kayasth

नेशन वांट्स टू नो वाले एंकर एक नया चैनल लेकर आए. इधर नेशन अचानक मुझे लेकर गहरी चिंता में डूब गया. यकीन नहीं होता कि रातों-रात मेरे इतने शुभचिंतक पैदा हो गए हैं. सब मेरे भविष्य को लेकर गहरी चिंता में हैं, या यूं कहें कि इस बात को लेकर आश्वस्त कि मैं बहुत जल्द मरने वाला हूं.

वे अपना डर एसएमएस, मेल और व्हाट्स ऐप यानी सूचना के हर मुमकिन टूल के जरिए मुझ तक पहुंचा रहे हैं.


रोज सुबह आंखे खोलते ही मेरे मोबाइल पर दो चार मैसेज जरूर पड़े होते हैं, जिनमें बकायदा मेरा नाम लेकर लिखा होता है- राकेश जिंदगी का कोई भरोसा नहीं. वक्त रहते अपने परिवार के बारे में कुछ सोचो, वर्ना बहुत देर हो जाएगी.

आखिर मेरा कसूर क्या है?

शुभचिंतकों की मंशा वाकई बहुत नेक है. जितने लोग मेरे बाद मेरे परिवार के भविष्य को लेकर चिंतित हैं, वे थोड़ा-थोड़ा चंदा करके एक फंड बना दें तो फिर मेरे मरने के बाद कोई समस्या ही न रहे.

लेकिन सवाल ये है कि मैंने आखिर मैंने ऐसा क्या कर दिया कि पूरी दुनिया को लगने लगा कि मैं जल्द ही मर जाउंगा.

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न तो मैं सिगरेट पीता हूं, न शराब. सड़क पर बाइक रेसिंग का मुझे कोई शौक नहीं है. ट्रेन में लटककर मैंने कभी आज तक सफर नहीं किया. उफनती नदी वाले किसी पुल की रेलिंग पर बैठकर सेल्फी भी नहीं ली. फिर भी लोगों को मेरे दुनिया से जल्द कूच करने जाने का इतना भरोसा?

दरअसल मेरा कसूर यह है कि महीना भर पहले मैं ऑनलाइन पॉलिसी बेचने वाली एक वेबसाइट पर गया था और वेबसाइट के जरिये मैंने कुछ टर्म इंश्योरेंस पॉलिसी के डीटेल चेक किए थे.

बस दुनिया ने मान लिया कि मुझे अपनी जिंदगी का भरोसा नहीं. जब मुझे भरोसा नहीं, तो फिर दुनिया को कैसे हो? लिहाजा शुभचिंतक मुझे उपर भेजने की तैयारी में जुट गए. पॉलिसी बेचने वाले मेरे सिर पर इस तरह सवार हुए कई बार लगने लगा कि कहीं इनसे तंग आकर सचमुच आत्महत्या ना कर बैठूं.

शुक्र है लकड़ी और कफन बेचने वाले नहीं आए

पूछताछ मैने सिर्फ एक वेबसाइट पर जाकर की थी. लेकिन खबर इंश्योरेंस ही नहीं बल्कि उन तमाम धंधों से ताल्लुक रखने वालों को हो गई, जिनका रिश्ता जीने-मरने से है. कई पैथोलॉजिकल लैब वाले रियायती दर पर टोटल हेल्थ चेकअप के ऑफर भेजने लगे.

इतना ही नहीं अपनी खूबियां बताने वाले बड़े अस्पतालों के विज्ञापन भी मेरे मेल बॉक्स में दस्तक देने लगे. शुक्र है, लकड़ी और कफन बेचने वालों ने अब तक संपर्क नहीं किया.

हंसी-मजाक अपनी जगह. असल में यह बात बेहद डराने वाली है. डिजिटल इंडिया के जमाने में मेरी और आपकी प्राइवेसी पूरी तरह अनजान हाथों में गिरवी है. हमें पता ही नहीं कि हमारी निजी जानकारियां दिन भर में कितनी बार नीलाम हो रही हैं और उनका इस्तेमाल किस तरह किया जा रहा है.

मॉल में घूमते वक्त कोई भी आकर आपसे कहता है- एक लकी ऑफर है. बस फोन नंबर और मेल आईडी फॉर्म में भर दीजिये, या किसी रेस्तरां में खाना खाने के बाद वेटर बेहद अदब से आपको फीड बैक फॉर्म भरने को कहता है, जिनमें बहुत से निजी जानकारियां होती हैं. आपको पता है, इन जानकारियों का क्या होता है?

आपकी प्राइवेसी अब गिरवी है

इन तमाम जानकारियों की संगठित तरीके से खरीद-फरोख्त की जा रही है. देश में कई ऐसी कंपनियां सक्रिय हैं, जो खुद को डेटा ब्रोकर फॉर्म कहती हैं. ये कंपनियां छोटे ऑपरेटरों से डेटा खरीदती हैं और फिर उन्हे बेहद संगठित तरीके से बड़े पैमाने पर बेचती हैं.

ज्यादातर डेटा ब्रोकिंग फर्म गुड़गांव और बेंगलुरु से चलाए जा रहे हैं. टेलीकॉम, हॉस्पिटैलिटी, हेल्थकेयर और रीटेल इंडस्ट्री में इन डेटा की बहुत डिमांड हैं. इन डेटा के जरिये उन्हें अपने संभावित ग्राहकों तक पहुंचने में मदद मिलती है.

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डेटा बेचने वाली कंपनियों के पास सिर्फ आपके नाम और फोन नंबर ही नहीं होते, कई बार इससे बहुत ज्यादा जानकारियां होती हैं. मसलन किन बैंकों में आपके अकाउंट हैं. आप कौन सी कार इस्तेमाल करते हैं और पिछले महीने आने कहां-कहां से कितनी शॉपिंग की.

कीमत जानकारियों के आधार पर तय होती है. सिर्फ नाम और फोन नंबर सस्ते में बिकते हैं. लेकिन बैंक और कार्ड डीटेल वगैरह की कीमत एक रुपए प्रति व्यक्ति तक होती है. अगर डेटा का मकसद सिर्फ संभावित ग्राहकों तक पहुंचना होता तो फिर भी गनीमत थी. बात इससे बहुत आगे निकल चुकी है.

डेटा चोरी से बढ़ता साइबर क्राइम

लगातार आ रहे फोन कॉल्स से परेशान होकर जब मैने डेटा चोरी और उसके दुरुपयोग के बारे में पता करना शुरू किया तो कई चौंकाने वाली बातें सामने आईं.

हाल ही में दिल्ली पुलिस ने इस सिलसिले में पूरन गुप्ता नाम के एक आदमी को गिरफ्तार किया. गुप्ता के पास से करीब एक करोड़ लोगों के डेटा बरामद हुए जिन्हे वह कई फर्जी कॉल सेंटर्स को बेच चुका था.

गुप्ता की गिरफ्तारी ऐसे ही एक फर्जी कॉल सेंटर चलाने वाले आदमी से हुई पूछताछ के बाद की गई. पता चला कि ये फर्जी कॉल सेंटर इंश्योरेंस रेगुलेटरी अथॉरिटी या बैंक के अधिकारी के रूप में लोगों को फोन करते हैं और बातों-बातों में उनके अकाउंट का पासवर्ड निकलवाने की कोशिश करते हैं.

निशाना खासतौर पर घरेलू महिला और बुजुर्गों पर होता है. रिजर्व बैंक के मुताबिक 2016 में धोखाधड़ी के ऐसे आठ हजार से ज्यादा मामले दर्ज किए जा चुके हैं और इसकी बहुत बड़ी वजह थोक भाव में उपलब्ध डेटा है.

… मरूंगा तो बाद में लुट पहले जाउंगा

साइबर एक्सपर्ट्स का कहना है कि यह सिर्फ भारतीय समस्या नहीं है. डेटा थेप्ट अमेरिका में भी एक बड़ा मुद्दा है और सिवाय जागरूकता और सतर्कता के इसके खतरों से बचने का कोई बहुत ठोस रास्ता नहीं है.

निजी जानकारियां शेयर करने से यथासंभव बचें और अनजान लोगों से फोन पर सोच समझकर बात करें. साइबर विशेषज्ञों के ज्ञान का सीधा मतलब मेरे लिए यही है कि मुझे इंश्योरेस कंपनियों के विज्ञापनों से चिढ़ने की जरूरत नहीं है, क्योंकि खतरा मरने का नहीं बल्कि लुटने का है.

(लेखक जाने-माने व्यंग्यकार हैं)