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सज्जन को उम्रकैद: आखिर कलंकित सिस्टम कब सुधरेगा

पिछले 34 सालों के बाद सज्जन कुमार को पालम कालोनी के एक मामले में सजा मिली, जिस दौर में पीड़ित परिवारों की दो पीढ़ियां जवान हो गईं

Virag Gupta

सिख विरोधी दंगों में हज़ारों लोगों के नरसंहार के 34 साल बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को ताउम्र जेल में रहने की सजा सुनाई, जो मृत्युदंड से भी ज्यादा भयावह है. अगर सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में बदलाव नहीं किया तो सज्जन कुमार को अपनी मौत तक जेल में रहना पड़ेगा. सजा सुनाते समय हाईकोर्ट के जज मुरलीधर समेत अदालत मे मौजूद पीड़ितों के परिजन रो पड़े. जजों ने सज्जन को दोषी करार देते हुए पूरे सिस्टम को कलंकित करार दिया जिससे पुलिस, सीबीआई, राजनेताओं के साथ जजों पर भी सवाल खड़े हो गए हैं.

कई पीढ़ी बाद मिला न्याय


दीवानी मामलों में नाना-दादा की तरफ से दायर मुकदमों मे नाती-पोतों की तीसरी पीढ़ी को भी न्याय मिल जाए तो लोग खुद को भाग्यशाली समझते हैं. आपराधिक मामलों में अभियुक्त के साथ गवाह और पीड़ित परिवारों को न्याय के लिए बुढ़ापे तक इंतजार करना पड़ता है. अदालतों द्वारा PIL के माघ्यम से सरकारी व्यवस्था पर तल्ख टिप्पणी की जाती है, पर समय से न्याय देने के लिए व्यवस्था नहीं बनाई जाती, जो लोगों का संवैधानिक हक़ भी है.

पिछले 34 सालों के बाद सज्जन कुमार को पालम कालोनी के एक मामले में सजा मिली, जिस दौर में पीड़ित परिवारों की दो पीढ़ियां जवान हो गईं. सज्जन के खिलाफ सुल्तानपुरी सहित चार अन्य मामलों में भी मुकदमा चल रहा है. उस मामले मे जिला अदालत ने सज्जन कुमार को बरी कर दिया था. रिहाई के पांच साल बाद उस मामले में CBI ने अपील की, जिसे दिल्ली हाईकोर्ट ने 2007 में एडमिट किया था. उस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट मे पिछले आठ वर्षों से सुनवाई नहीं हो रही, तो फिर फैसला कब आएगा? सज्जन कुमार मामले पर देशव्यापी बहसों के बाद अदालतों के सिस्टम को ठीक करने की पहल क्यों नही होनी चाहिए?

आयोगों के मकड़जाल में उलझा न्याय

1984 में सिखों खिलाफ दंगों को हुए अब 34 साल होने को हैं. पर कई मामलों में अभी भी सुनवाई चल रही है. अभियुक्तों को कानून के शिकंजे से बचाने के लिए तीन न्यायिक आयोग, सात जांच समितियां और दो एसआईटी का गठन किया गया. 1984 में एसीपी मारवाह समिति के बाद जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग, जस्टिस कपूर और मित्तल समिति, जैन समिति, रोशा कमेटी, जैन और अग्रवाल कमेटी, ढिल्लन कमेटी, नरुला कमेटी, नानावटी आयोग और फिर 2015 में एसआईटी का गठन किया गया.

इन आयोगों और समितियों में जज, नौकरशाह और अनेक पुलिस अधिकारी शामिल थे. इस मामले से यह साफ़ है कि इन आयोगों से जनता के भले के नाम पर मामले को लटकाने का राजनेताओं द्वारा प्रयास किया जाता है और जिसमें रिटायर्ड अफसरों की मौज हो जाती है. हाईकोर्ट के आदेश के बाद इन आयोगों का भद्दा चेहरा एक्सपोज हुआ है, जिन्होंने सत्ता के इशारे पर मनमाफिक और विरोधाभासी रिपोर्टें दी थीं.

राजनीति का अपराधीकरण और कमलनाथ का मामला

देश में एक तिहाई विधायक और सांसदों के खिलाफ गंभीर मामले दर्ज हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद नेताओं के आपराधिक मामलों के स्पीडी ट्रायल के लिए राज्यों द्वारा विशेष अदालतों का गठन किया जा रहा है. अपराधी नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए चुनाव आयोग की तरफ से सख्त कानून बनाने की अनेक सिफारिशों के बावजूद सरकार बेखबर है. सिख दंगों मे शामिल होने के लिए कमलनाथ के खिलाफ न तो कोई FIR है और न ही चार्जशीट. कमलनाथ या एक व्यक्ति के मामले पर बेवजह शोर मचाने के बजाय, सभी दलों के अपराधी नेताओं को राजनीति से अनिवार्य सेवानिवृत्त करने की मांग की जाए, तो देश का ज्यादा भला हो सकता है.

सज्जन के लिए सिस्टम फेल और हाईकोर्ट की तल्ख टिप्पणी

भावुक जजों ने लंबे फैसले में नेताओं और पुलिस पर सख्त टिप्पणी की है. फैसले के अनुसार सज्जन कुमार समेत अनेक दोषियों को राजनीतिक प्रश्रय मिला था. जजों के अनुसार पुलिस और प्रशासन ने सिख नरसंहार के अपराधियों को कई दशकों तक बचाने की कोशिश की, लेकिन अंत में सत्य की जीत हुई. कोर्ट के अनुसार विभाजन के समय से अभी तक देश में अनेक भयावह नरसंहार हुए. लेकिन इन्हें रोकने के लिए अभी तक सख्त कानून नहीं बने.

गुजरात के 2002 के दंगों कर जांच के लिए अदालतों द्वारा एसआईटी का तुरंत गठन कर दिया, लेकिन 84 के सिख दंगों की जांच के लिए 22 साल बाद एसआईटी गठन के फैसले से कांग्रेस की नीयत पर सवाल उठाना लाजमी है. फैसले में सिखों के नरसंहार के लिए सज्जन के साथ पुलिस और प्रशासन को भी जवाबदेह बताया गया. पुलिस और प्रशासन द्वारा मामलों की जांच मे गड़बड़ी किए जाने को, हाईकोर्ट ने पूरे सिस्टम की विफलता बताया है. केंद्र और राज्यों में सभी दलों की सरकारें पुलिस और सीबीआई का मनमाफिक इस्तेमाल करती हैं, तो फिर सिस्टम में सुधार कैसे हो?

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद भीड़ की हिंसा के खिलाफ कानून क्यों नही

मॉब लिंचिंग के बढ़ते मामलों पर सरकार की निष्क्रियता के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2018 में फैसला दिया था. इसके बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्यों के पुलिस महानिदेशक और चीफ सेक्रेटरी को पत्र लिखकर एडवाइजरी की खानापूर्ति कर दी. केंद्र सरकार ने गृह सचिव की अध्यक्षता में सचिवों की एक कमेटी भी बनाई, जिसकी रिपोर्ट पर मंत्रियों के समूह ने चर्चा भी की. भीड़ द्वारा हिंसा के बढ़ते मामलों पर लगाम लगाने के लिए नए कानून की मांग के मामले में कई पेच हैं. सोशल मीडिया में अफवाह और दुष्प्रचार के माध्यम से भीड़ को हिंसा के लिए उकसाया जाता है.

आईटी एक्ट में 66-ए के प्रावधान को सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त करने के बाद, अफवाहों पर लगाम लगाने के लिए भारत में कोई ठोस कानून नही है. भीड़ को हिंसा के लिए सज्जन कुमार जैसे नेताओं द्वारा उकसाया जाता है पर इन्हीं नेताओं के हाथ में पुलिस और प्रशासन की बागडोर होती है. पुलिस व्यवस्था में सुधार किए बगैर सिर्फ नए कानून से भीड की हिंसा कैसे रुकेगी? हाई कोर्ट द्वारा कलंकित करार दिए गए सिस्टम में सुधार के लिए, उन्हीं अराजक नेताओं से ठोस पहल की उम्मीद, इस देश की जनता कैसे करे?

(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं. इनका Twitter हैंडल @viraggupta है)