केरल के सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं के प्रवेश को लेकर कलह दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है. लेकिन इस कलह के बीच श्रद्धालु फिर से भगवान अयप्पा के दर्शन के लिए जुटना शुरु हो गए हैं. शनिवार से सबरीमाला में 2 महीने लंबी तीर्थ यात्रा शुरु हो गई है. जिसके लिए शुक्रवार को ही मंदिर के कपाट खोल दिए गए थे.
सबरीमाला मंदिर में सभी आयु वर्ग की महिलाओं की एंट्री के मुद्दे ने अब परंपरा, आस्था और श्रद्धा के दायरे से आगे निकलकर सियासी रंग पकड़ लिया है. सत्ताधारी सीपीएम के साथ-साथ कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियां अब इस मुद्दे में अपना सियासी नफा-नुकसान तलाश रही हैं. हालांकि इस रेस में सबसे ज्यादा फायदा बीजेपी को होता नजर आ रहा है.
केरल में बीजेपी और आरएसएस समर्थित श्रद्धालु एक तरफ जहां मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के खिलाफ आवाज बुलंद किए हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक तबका सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत सभी आयु वर्ग की महिलाओं को मंदिर में बेरोक-टोक एंट्री के लिए अड़ा हुआ है. ऐसे में राज्य में सत्ताधारी सीपीएम के नेतृत्व वाली एलडीएफ सरकार दोनों पाटों के बीच पिस रही है. सीपीएम और बीजेपी की लड़ाई में कांग्रेस को अपनी सुनहरी संभावनाएं दिखाई दे रही हैं.
सबरीमाला मंदिर पर छिड़े सियासी संग्राम के बहाने आइए केरल में बीजेपी की दस्तक और फिर एंट्री के बारे में जान लेते हैं. इसके अलावा वहां के मौजूदा सियासी समीकरणों को भी समझने की कोशिश करते हैं.
1991 में बीजेपी की 'एकता यात्रा' को केरल में कामयाबी नहीं मिली थी
दिसंबर 1991 में, तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने अपनी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस से मुझे लगभग बाहर ही निकलवा दिया था. ऐसा इसलिए हुआ था कि, प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान मैंने मुरली मनोहर जोशी को बताया था कि, 14 राज्यों से होकर गुजरने वाली उनकी 'एकता यात्रा' जब केरल पहुंची तब उसे वहां खास तवज्जो और कामयाबी नहीं मिली. मेरी यह बात जोशी और वहां मौजूद बीजेपी समर्थकों को बहुत नागवार गुजरी थी. लिहाजा मुझे प्रेस कॉन्फ्रेंस से निकाल बाहर करने की नौबत आ गई थी.
मुरली मनोहर जोशी के उस 'राष्ट्रीय अखंडता' अभियान (नेशनल इंटेग्रिटी मिशन) में नरेंद्र मोदी ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. मोदी तब बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारी के सदस्य थे. जोशी की एकता यात्रा से एक साल पहले वो लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा की बागडोर संभाल चुके थे. अपने उस अनुभव का मोदी ने जोशी की यात्रा में बखूबी इस्तेमाल किया.
मुरली मनोहर जोशी की एकता यात्रा में भीड़ इकट्ठा करने के लिए मोदी ने अद्भुत संगठनात्मक कौशल दिखाया था. जहां भी जोशी की यात्रा पहुंचने वाली होती थी, उन स्थानों पर मोदी पहले ही डेरा डाल लेते थे. वह लोगों को समझाने-बुझाने में कड़ी मेहनत करते थे और फिर उन्हें जोशी की यात्रा तक खींच लाते थे. यही वजह है कि दक्षिण भारत में जोशी की एकता यात्रा खासी कामयाब रही थी. लेकिन केरल उनमें अपवाद था. वहां तब न तो जोशी का जादू चल सका था और न ही मोदी का संगठनात्मक कौशल काम आया था. लिहाजा जब केरल में जोशी की यात्रा ने प्रवेश किया तब उसके लिए भीड़ जुटाना बीजेपी नेताओं के लिए दुष्कर हो गया था.
पिछले हफ्ते बीजेपी ने दक्षिण भारत में एक और रथ यात्रा शुरु की है. यह रथ यात्रा विशेष रूप से केरल के लिए है. जिसका मकसद 28 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के सबरीमाला पर सुनाए गए उस फैसले के विरोध में है, जिसमें सभी उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की इजाजत दी गई है. बीजेपी की इस रथ यात्रा का मकसद आस्था और परंपरा की दुहाई देकर केरल के हिंदू समुदाय को अपने पक्ष में करना है. वैसे ढाई दशक पुरानी जोशी की एकता यात्रा को अगर मैराथन माना जाए तो, बीजेपी की मौजूदा रथ यात्रा पार्क में सुबह की टहल से ज्यादा कुछ नहीं है. लेकिन इसके बावजूद बीजेपी अपनी इस रथ यात्रा से बेहद आशान्वित है. बीजेपी को पूरी उम्मीद है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी यहां कुछ सीटें जीतने में जरूर कामयाब होगी. जाहिर है कि, अरसे से केरल में अपने लिए जमीन बनाने में जुटी बीजेपी के लिए सबरीमाला विवाद खासा फायदेमंद साबित हुआ है.
केरल में भगवा की बढ़ती लोकप्रियता
केरल में बीजेपी की लोकप्रियता में दिन-ब-दिन इजाफा हो रहा है. जिसके साथ ही पार्टी का वोट बैंक भी बढ़ रहा है. सीपीएम के नेतृत्व वाले लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) पर अक्सर अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के आरोप लगते हैं. ऐसे में बीजेपी बहुसंख्यक हिंदुओं को अपने पक्ष में रिझाने के लिए पुरजोर प्रयास कर रही है. ध्रुवीकरण की इन कोशिशों में भगवा ब्रिगेड को सफलता भी मिलना शुरु हो गई है.
साल 2006 के केरल विधानसभा चुनाव में बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को महज 4.75 फीसदी वोट हासिल हुए थे. साल 2011 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी एंड पार्टी का वोट शेयर बढ़कर 6 फीसदी तक पहुंच गया था. वहीं साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और उसके सहयोगी दलों ने अपने प्रदर्शन में सुधार करते हुए 10.84 फीसदी वोट शेयर हासिल किया था. और फिर 2015 के निकाय चुनाव में यह आंकड़ा 13.3 फीसदी तक जा पहुंचा था. इसके बाद साल 2016 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी एंड पार्टी ने 15 प्रतिशत वोट पाकर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई थी. साल 2016 में ही बीजेपी केरल में पहली बार विधानसभा की सीट जीतने में कामयाब हो पाई थी. हालांकि पार्टी अब तक केरल में लोकसभा सीट नहीं जीत पाई है.
फिर भी, जब से सुप्रीम कोर्ट ने 10-50 साल की महिलाओं को भी सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने की इजाजत दी है, तब से केरल के हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग खासा गुस्से में है. भगवान अयप्पा के इन भक्तों को लगता है कि, सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर की परंपरा के खिलाफ फैसला सुनाया है.
केरल में हिंदुओं की यह नाराजगी बीजेपी के लिए वरदान साबित हो रही है. लिहाजा पार्टी इस मुद्दे को भुनाने के लिए कमर कसकर मैदान में उतर पड़ी है. बीजेपी ने आगामी लोकसभा चुनाव के लिए केरल की कुल 20 लोकसभा सीटों में से कम से कम 12 पर जीत हासिल करने का लक्ष्य रखा है. हालांकि यह दूर की कौड़ी नजर आती है. फिलहाल जो स्थिति है उसके आधार पर बीजेपी के हिस्से में सिर्फ 2 लोकसभा सीटें ही आने की संभावना है. ऐसा इसलिए क्योंकि, सबरीमाला पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर लोगों की नाराजगी का फायदा उठाने की कोशिशें में बीजेपी के साथ कांग्रेस भी पूरा दम लगा रही है.
कांग्रेस ने कोर्ट के फैसले के विरोध में केरल में पदयात्राओं की श्रृंखला शुरु की
सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ कांग्रेस ने केरल में पदयात्राओं की एक श्रृंखला शुरु की है. कांग्रेस नेता राज्य के गांव-गांव, शहर-शहर जाकर लोगों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. बीजेपी और कांग्रेस का 'सबरीमाला बचाओ' अभियान निश्चित रूप से अपने-अपने हिंदू वोट बैंक को बचाए रखने की कवायद है.
कांग्रेस और बीजेपी अब केरल में एक-दूसरे से सावधान और सचेत हैं. दोनों पार्टियों को अपना वोट बैंक खिसकने का डर सता रहा है. जाहिर है कि, वोट बैंक की इस सेंधमारी में कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ेगा. वहीं हिंदुत्व की झंडाबरदार बीजेपी के मतदाताओं की संख्या में इजाफा होगा.
साल 2016 के विधानसभा चुनाव में जब बीजेपी और उसके सहयोगी दलों का वोट शेयर 15 फीसदी तक पहुंच गया था, तब इसका कारण कांग्रेस के ज्यादातर हिंदू मतदाताओं का बीजेपी के पक्ष में पलायन करना था. कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ के मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति झुकाव से केरल के हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग खफा था. लिहाजा ऊंची जाति वाले नायर समुदाय के साथ कई अन्य समुदाय के लोग कांग्रेस से मुंह मोड़कर बीजेपी के प्रति निष्ठावान हो गए थे. पारंपरिक रूप से यूडीएफ के वोट बैंक का तकरीबन आधा हिस्सा मुसलमानों और ईसाइयों से आता है. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, केरल की 3.3 करोड़ आबादी में हिंदुओं की संख्या 54.73 फीसदी है, जबकि 26.56 फीसदी मुस्लिम और 18.38 फीसदी ईसाई हैं.
एके एंटनी की चेतावनी
साल 2003 और 2014 में, केरल से आने वाले प्रमुख कांग्रेस नेता एके एंटनी ने खुलेआम कहा था कि 'अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण' ने उनकी पार्टी की सच्ची धर्मनिरपेक्षता को कमजोर कर दिया है. एंटनी ने चेतावनी दी थी कि 'अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता' दोनों ही समान रूप से खतरनाक हैं. लेकिन एंटनी की चेतावनी के बावजूद यूडीएफ सरकार ने अल्पसंख्यकों का तथाकथित तुष्टीकरण जारी रखा. जिसके चलते केरल में कांग्रेस का जनाधार घटने लगा और हिंदू मतदाताओं का बड़ा हिस्सा पार्टी से खिसककर बीजेपी के पाले में चला गया. कांग्रेस अब एक बार फिर से अपने हिंदू समर्थकों और मतदाताओं के पलायन की आशंका से भयभीत है. कांग्रेस को डर है कि, उसे कहीं फिर से केरल में साल 2016 जैसी स्थिति का सामना न करना पड़ जाए.
केरल के चुनावी जाति समीकरण की बात की जाए तो, कांग्रेस को अल्पसंख्यकों के अलावा एझावा समुदाय, नायर समुदाय और दलितों के एक बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त है. एझावा केरल की एक पिछड़ी जाति है. केरल की हिंदू जनसंख्या में एझावा समुदाय की तादाद 23 फीसदी है. जबकि नायर समुदाय 14 फीसदी है. वैसे एझावा समुदाय को पारंपरिक रूप से सीपीएम का वोट बैंक माना जाता है. इनके अलावा सीपीएम को अन्य पिछड़ी जातियों, दलितों, कुछ ऊंची जातियों और अल्पसंख्यकों का भी समर्थन हासिल है.
कांग्रेस और बीजेपी की रणनीति
सबरीमाला के प्रदर्शनकारियों को अपना समर्थन देकर कांग्रेस रूठे हुए हिंदू वोटरों को वापस अपने पाले में लाने की जुगत में लगी है. साल 2016 में यह हिंदू मतदाता कांग्रेस से छिटककर बीजेपी और सीपीएम से जुड़ गए थे. कांग्रेस अब यह सुनिश्चित करना चाहती है कि, साल 2016 की तरह बीजेपी आने वाले लोकसभा चुनाव में 15 फीसदी वोट शेयर हासिल न कर सके. अगर कांग्रेस अपनी इस रणनीति में फेल होती है, तो उसे बड़ा खामियाजा उठाना पड़ सकता है. दरअसल केरल की 20 लोकसभा सीटों में से लगभग आधी सीटों पर हिंदू मतदाताओं की तादाद 60 फीसदी से ज्यादा है. लिहाजा बीजेपी के सामने कांग्रेस को कुछ सीटें गंवाना पड़ सकती हैं. वहीं बीजेपी की रणनीति इसके बिल्कुल विपरीत है. बीजेपी की नजर सिर्फ केरल के हिंदू वोटरों पर ही केंद्रित है. अपने कोर हिंदू वोट बैंक के अलावा बीजेपी कांग्रेस और सीपीएम के समर्थक हिंदू मतदाताओं को भी अपने पाले में लाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है.
एलडीएफ ने 2016 के विधानसभा चुनाव में 140 सीटों में से 91 सीटों पर जीत दर्ज कर राज्य में सरकार बनाई थी. तब एलडीएफ को 1.63 प्रतिशत वोटों का नुकसान उठाना पड़ा था और उसका वोट शेयर घटकर 43.48 फीसदी रह गया था. अब सबरीमाला विवाद के चलते हिंदू मतदाताओं की नाराजगी से एलडीएफ की चिंताएं बढ़ गई हैं. उसे आगामी लोकसभा चुनाव में अपना वोट शेयर और घटने की चिंता सता रही है.
जाहिर है कि, सबरीमाला विवाद के चलते सीपीएम असमंजस की स्थिति में फंस गई है. सीपीएम के नेतृत्व वाली एलडीएफ सरकार अगर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन नहीं करती है, तो मुख्यमंत्री पिनराई विजयन और उनके सहयोगियों पर अदालत की अवमानना के आरोप लगाए जा सकते हैं. इसके अलावा उन्हें धार्मिक भावनाएं भड़कने के आरोपों का भी सामना करना पड़ सकता है. और अगर केरल सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करती है, तो उसे यकीनन हिंदुओं की भारी नाराजगी का सामना करना पड़ेगा.
मार्क्सवादियों के दोहरे मापदंड
सीपीएम पोलित ब्यूरो के सदस्य एस रामचंद्रन पिल्लई ने पार्टी के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी के एक लेख में कहा है कि 'आरएसएस और बीजेपी केरल के समाज को फिर से अंधकार, अज्ञान, अंधविश्वास और रूढ़िवादी परंपराओं के पुराने दौर में वापस ले जाना चाहते हैं. बीजेपी की इन कोशिशों को कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ गठबंधन का पूरा समर्थन प्राप्त है.'
लेकिन तमाम बड़ी-बड़ी विचारधाराओं की बात करने वाली और जातिगत-धार्मिक राजनीति से परहेज की दुहाई देने वाली सीपीएम की केरल में जमीनी हकीकत कुछ और ही है. सच तो यह है कि, चुनाव के दौरान सीपीएम नेता अलग-अलग धर्मों पर खास फोकस करते हैं. उनके धार्मिक गुरुओं के पीछे दौड़ते फिरते हैं. यही नहीं, ज्यादातर उम्मीदवारों का चयन धर्म और जाति के आधार पर ही किया जाता है. जाहिर है, केरल की राजनीति में सीपीएम के वचन कुछ और होते हैं और कर्म कुछ और. यानी पार्टी चुनाव के दौरान दोहरे मापदंड अपनाने से पीछे नहीं हटती है.
फिलहाल कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही पार्टियां सबरीमाला विवाद के लिए सीपीएम को कोस रही हैं. इसके पीछे दोनों ही पार्टियों की अपनी-अपनी वजहें और रणनीतियां हैं.
इसमें कतई हैरत की बात नहीं है कि, मुख्यमंत्री पिनराई विजयन इस कठिन परिस्थिति से बाहर निकलने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं. लिहाजा वो संभल-संभल कर बयान दे रहे हैं और सबरीमाला मामले पर कोई भी चुनौतीपूर्ण घोषणा करने से बच रहे हैं. जैसे-जैसे समय बीतेगा, मुख्यमंत्री और प्रदर्शनकारियों के बीच सुलझ की संभावनाएं बढ़ती जाएंगी. मामले की गंभीरता को देखते हुए मुख्यमंत्री विजयन बहुत फूंक-फूंककर कदम रख रहे हैं. यही वजह है कि, उन्होंने सबरीमाला मामले पर पहले तो सर्वदलीय बैठक बुलाने से इनकार कर दिया, लेकिन बाद में वो इसके लिए राजी हो गए. बैठक के दौरान मुख्यमंत्री ने सबरीमला मंदिर का संचालन करने वाले त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड (टीडीबी) के अध्यक्ष सीपीएम नेता ए पद्मकुमार के उस सुझाव पर अपनी सहमति जताई, जिसमें सुप्रीम कोर्ट से उसके फैसले को लागू करने के लिए और मोहलत मांगने की बात कही गई है. बैठक में मुख्यमंत्री ने विवाद के समाधान के लिए कुछ दिनों बाद मंदिर में महिलाओं को प्रवेश दिए जाने का सुझाव दिया था. लेकिन सबरीमाला मंदिर के पुजारियों ने इस सुझाव को पूरी तरह से खारिज कर दिया.
ध्रुवीकरण से सबसे ज्यादा फायदा बीजेपी या कांग्रेस को होगा इसका जवाब किसी के पास नहीं
अगर सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के लिए और अधिक समय देने के बोर्ड के अनुरोध को खारिज कर दिया और अगर आंदोलन जारी रहा, तो वामपंथी कैंप के लिए यह खतरे की घंटी होगी. उन हालात में बड़ी तादाद में हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की संभावना होगी. हालांकि हिंदू वोटों के इस ध्रुवीकरण से सबसे ज्यादा फायदा बीजेपी को होगा या कांग्रेस को इसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है.
सबरीमाला विवाद से किस पार्टी को सबसे ज्यादा नफा-नुकसान होगा इसका पता तो अगले साल जनवरी के अंत में चलेगा. इस बीच देखना होगा कि दो महीने तक चलने वाली सबरीमाला तीर्थ यात्रा के दौरान कांग्रेस और बीजेपी की रणनीति क्या रहती है. जो भी पार्टी इस दौरान सही दांव चल गई, वो यकीनन बाजी मार सकती है.
फिलहाल, मुख्यमंत्री विजयन को उम्मीद करना चाहिए कि, सबरीमाला मामले में आगे और टकराव न हो और न ही हिंसा फैले. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो एकमात्र राज्य तक सिमटकर रह गई सीपीएम के पतन की प्रक्रिया और तेज हो जाएगी.