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मनमोहन वैद्य का बयान आरएसएस के एजेंडे का हिस्सा है?

न्यूक्लियर कैमिस्ट्री में डाॅक्ट्रेट वैद्य अभी संघ के विचारक हैं और वे कॉलेज के समय से ही आरक्षण के खिलाफ रहे हैं.

Mridul Vaibhav

आरक्षण को विभाजनकारी बताने वाला बयान देकर अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक मनमोहन वैद्य कितनी भी सफाई दें लेकिन अब एक बार फिर आरक्षण पर अपने विचार को लेकर संघ विपक्ष के निशाने पर है.

विवादित बहसों के कारण हमेशा चर्चा में बने रहने वाले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ने एक बार फिर से ऐसे विवाद की लपटें सुलगा दी हैं.


यह विवाद बीजेपी को उत्तर प्रदेश के चुनावों में बुरी तरह झुलसा सकती है. लेकिन यह भी खास बात है कि लिटरेचर फेस्टिवल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने आरक्षण का वैचारिक विरोध भर नहीं किया, बल्कि उन्होंने कहा, 'आरक्षण रहेगा तो अलगाववाद बढ़ेगा.' अलगावाद यानी भारत की एकता को खतरा.

सोचा-समझा बयान 

ऐसा नहीं है कि वैद्य की जुबान फिसल गई और उन्होंने चलते-चलाते यह बयान यूं ही दे दिया. इससे पहले इस बयान की पृष्ठभूमि भी समझनी होगी. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जिस डिग्गी पैलेस में होता है और जहां मनमोहन वैद्य आैर दत्तात्रेय होशबोले का सत्र चल रहा था, उसमें बार-बार यह अनुभूति हो रही थी कि आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की बहुलता वाले किसी कार्यक्रम में बैठे हैं.

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जैसे ही पत्रकार प्रज्ञा तिवारी प्रश्न पूछतीं, कार्यक्रम में तालियां बजने लगतीं और एक खास तरह की गूंज भी रहती. जाहिर है, जब वैद्य जवाब देते तो समारोह में तालियां ही तालियां बारिश की बूंदों की तरह गिरतीं.

वैद्य का प्रश्नों के उत्तर में साफ कहना था कि अब लोगों को आरक्षण मुक्त भारत चाहिए. न्यूक्लियर केमिस्ट्री में डाॅक्टरेट वैद्य अभी संघ के विचारक हैं और वे कॉलेज के समय से ही आरक्षण के खिलाफ रहे हैं.

वैद्य ने बनाया अंबेडकर को ढाल

लिट फेस्ट में उन्होंने आरक्षण के मामले को बहुत सफाई से उठाया और ऐसे प्रस्तुत किया कि स्वयं अंबेडकर और आरक्षण लेने वाले वर्गाें को अब आरक्षण के औचित्य पर ही प्रश्न चिह्न लगाना पड़े और उन्हें यह अपराध बोध हो कि आखिर हम आरक्षण ले क्यों रहे हैं.

मनमोहन वैद्य को यह भलीभांति मालूम था कि यह आम श्रोता वर्ग नहीं है. यहां साहित्य का आभिजात्य वर्ग है और इसमें बहुत बड़ी तादाद ऐसे युवाओं की है, जो सवर्ण और संपन्न समाजों से आता है. यहां जो लोग बैठे हैं, वे शहरी इलीट हैं. इनमें कुछ तादाद विदेशी लाेगों की भी है. यह एक तरह से नवउदारवादी और नवपूंजी प्रिय वर्ग है, जो सुखकामी राहों पर टकटकी लगाए हुए एक खामख्याली की दुनिया में रहता है.

हालांकि मनमोहन वैद्य के आरक्षण के बारे में जो कुछ कहा, वह एक प्रश्न के उत्तर में था. प्रश्न था कि जाति आधारित आरक्षण के बाद क्या अारक्षण देने से उनका सामाजिक स्तर बढ़ जाएगा? वैद्य ने कहा कि आरक्षण का विषय देश में एससी/एसटी के लिए अलग से आया है.

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उनका तर्क था कि इन वर्गाें के साथ इतिहास में नाइंसाफी हुई है. उनका शोषण हुआ है. उन्हें ऊपर उठाने और सबके बराबर लाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था संविधान में की गई. बकौल वैद्य स्वयं अंबेडकर ने कहा था कि किसी भी राष्ट्र में आरक्षण की व्यवस्था हमेशा रहे, यह भी ठीक नहीं है. बाकी सबको अवसर अधिक दिए जाए, शिक्षा मिले. इसके आगे आरक्षण देना अलगाववाद को बढ़ावा देना है.

वैद्य आरक्षण संबंधी विचार जाहिरा तौर पर काफी स्पष्ट थे और उन्होंने जो कुछ भी कहा, वह बहुत सोचा-समझा हुआ था और उसमें आरक्षण के जनक डॉ. भीमराव अंबेडकर के तर्काें को कवच के रूप में इस्तेमाल किया गया था.

सेकुलरिज्म पर भी किया हमला 

प्रश्न सिर्फ आरक्षण का ही नहीं था, मुस्लिमों की बात आई तो धर्मनिरपेक्षता और सेक्युलरिज्म से जुड़े प्रश्न भी किए गए. सेकुलरिज्म के प्रश्न पर मनमोहन वैद्य ने कहा, यह भारतीय शब्द नहीं है. फिर भी यह हमारे देश में बहुत पवित्र हो गया है.

भारत में ऐसी परिस्थिति इससे पहले ऐसी कभी नहीं रही. यहां तो पहले से ही सेकुलरिज्म रहा है. यह तो हिंदुत्व की परंपरा में ही है. यहां कभी थियोक्रेिटक स्टेट नहीं रही. यह पश्चिमी देशों में रही है. सेक्युलरिज्म शब्द संविधानकर्ताओं को पता था. यह शब्द बाद में क्यों आया, इसका कोई जवाब नहीं देता. वैद्य का इशारा साफ तौर पर आपातकाल से पहले भारतीय संविधान के संकल्पों में जोड़े गए धर्मनिरपेक्ष शब्द की ओर था.

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वैद्य ने प्रश्न किया कि न किसी ने मांग की और न किसी ने चाहा, लेकिन फिर भी जिस समय लोग जेलों में बंद थे, उस समय यह शब्द संविधान में जोड़ दिया गया. उनका कहना था कि भारत बहुत शुरू से ही सहिष्णु रहा है. भले पश्चिम से पारसी आए, ईसाई आए, सीरियन आए अन्य लोग आए, यहां के लोगों ने कभी किसी का विरोध नहीं किया, बल्कि उनका स्वागत किया.

मुस्लिमों की बात पर उन्होंने कहा कि देश में अगर किसी जगह मुस्लिमों की दुर्दशा है तो वह बंगाल, बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे राज्य हैं, जहां मुस्लिमों का वोट के लिए भरपूर इस्तेमाल हुआ है, लेकिन गुजरात जैसे राज्यों में वे उनकी दशा बहुत ठीक है.

यानी जो बात आरक्षण विरोध की थी और वह अंतत: सेक्युलरिज्म के विरोध पर जा टिकी. सेक्युलरिज्म पर प्रश्न आया तो वैद्य ने साफ कहा कि इसे लेकर राजनीति चल रही है. एक विशेष वर्ग को ज्यादा प्रोत्साहन देना, समाज को खंडित करना है.

समाज एक नहीं हो रहा है. ऐसे में इसके लिए फिर से विचार करना चाहिए. आजादी के इतने साल बाद भी समाज पिछड़ा क्यों है, इसके लिए आज राजनीतिक दृष्टिकोण से नहीं, राष्ट्रीय नजरिए से विचार चाहिए.

वामपंथ पर भी साधा निशाना 

सबसे रोचक यह रहा है कि आज तक असहिष्णुता के लिए निशाने पर लिए जा रहे राष्ट्रीय स्वयं संघ के दोनों विचारकों ने मीडिया और बुद्धिजीवियों की असहिष्णुता की पीड़ा भी रखी.

संघ विचारक बोले कि मीडिया और अकादमिक लोगों में वामपंथियों का आधिपत्य होने के कारण असल उनकी न केवल बातें नहीं आने नहीं दी, बल्कि केरल में उनके लेागों पर हमले होते हैं तो मीडिया वैसे रिपोर्ट नहीं करता जैसे वह दलितों या मुस्लिमों पर होने वाली कथित हिंसा की रिपोर्ट करता है.हम यहां आए तो वामपंथी यहां से बायकाट करके चले गए.

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उत्तरप्रदेश के चुनावों के समय आरक्षण और धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ ऐसे खुले बयानों का क्या यह मतलब निकाला जाए कि अब बीजेपी और संघ पूरी तरह आरक्षण विरोधी और अल्पसंख्यक विरोधी वोटों के ध्रुवीकरण में जुट गया है?

भीतरी सच कुछ हो, लेकिन यहां राजद के नेता लालूप्रसाद यादव का वह ट्वीट याद करना जरा रोचक होगा, जो उन्होंने वैद्य के बयान के तत्काल सामने आया कि मोदी जी आपके आरएसएस के प्रवक्ता आरक्षण पर फिर अंट-शंट बके हैं. बिहार में रगड़-रगड़ के धोया,शायद कुछ धुलाई बाकी रह गई थी जो अब यूपी जमकर करेगा.