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इससे ज्यादा महाराणा प्रताप का अपमान और क्या होगा

राजस्थान सरकार का नया फरमान है कि 1756 की हल्दीघाटी की लड़ाई महाराणा प्रताप ने जीती थी.

Sandipan Sharma

आजादी के छह दशक बीत चले लेकिन बहुत से राजस्थानी अब भी मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और उनके बेटे को शाही नाम से ही पुकारते हैं. हालांकि दोनों लोकतांत्रिक रीति से चुने गए हैं. दरबारी और समर्थक वसुंधरा राजे को बाइज्जत महारानी साहब और उनके बेटे व धौलपुर के सांसद दुष्यंत सिंह को राजा साहब बुलाते हैं.

राजस्थान में शाही पद-पदवी से लोगों का मोह बरकरार है और यहां के रजवाड़े अपने इतिहास को लेकर मोहग्रस्त हैं. यह मोह कुछ इतना गहरा है कि सच, कल्पना, अंधविश्वास और चाय की दुकान पर होने वाली चकल्लस के बीच का आपसी भेद अक्सर धुंधला हो उठता है. यह धुंधलका आपको इतिहास के बारे में बड़ी दिलचस्प सूझ दे जाता है.


मिसाल के लिए कुछ बरस पहले, सूबे के जनसंपर्क विभाग ने वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्री चुने जाने की एक अनूठी व्याख्या पेश की. विभाग की तरफ से छपी पत्रिका में प्रशस्ति की शक्ल में एक लेख छपा.

लेख में कहा गया कि वसुंधरा राजे के एक पुरखे जयप्पा सिंधिया राजस्थान के नागौड़ में 1759 की एक लड़ाई में मारे गए. लेख में दावा था कि मरते समय जयप्पा सिंधिया ने कहा कि मेरी आत्मा को मुक्ति तभी मिलेगी जब राजस्थान का शासक कोई सिंधिया बनेगा. तो मतलब ये कि लोकतंत्र के सिंहासन पर महारानी मुख्यमंत्री का बैठना दरअसल तीन सदी पहले की एक घटना का नतीजा है!

Photo. news india 18.

यदि इतिहास चुनावी लड़ाई जीतने वालों के फायदे के लिए लिखा जा सके तो फिर कल्पना कीजिए कि रजवाड़ों के पिछलग्गू अपने कुछ महान योद्धा और राजाओं के इर्द-गिर्द बुनी कहानियों पर कब्जा जमाने के लिए किस कदर होड़ मचायेंगे. सोचिए कि तीन बड़े नायकों- अजमेर के पृथ्वीराज चौहान, मेवाड़ के राणा सांगा और महाराणा प्रताप की कहानियों पर कब्जा जमाने की कैसी होड़ मचेगी!

एक नया इतिहास लिखेंगे!

इस बात को अपने जेहन में रखिए क्योंकि यहां हम जिक्र इतिहास को नए सिरे से लिखने की राजस्थान सरकार की एक नवेली कोशिश का कर रहे हैं.

राजस्थान सरकार का नया फरमान है कि 1756 की हल्दीघाटी की लड़ाई महाराणा प्रताप ने जीती थी. इस सजे-संवरे टोपीदार सच (यानि सत्याभास) का प्रस्ताव जयपुर के बीजेपी विधायक ने किया और राजस्थान विश्वविद्यालय के वाइस-चांसलर ने समुचित कार्रवाई के लिए इसे तुरंत-फुरंत आगे सरका दिया.

देखें कि हल्दीघाटी का नया विजेता कौन बनता है क्योंकि अभी इस पर फैसले का इंतजार जारी है. लेकिन इस बीच कुछ राजपूत नेता और विधायक मंडली बनाकर कोरस गान में शामिल हो गये हैं और उन्होंने अभी से हल्दीघाटी का विजेता महाराणा प्रताप को घोषित कर दिया है.

देश की आजादी के पहले के सालों के संभवतः सबसे महान नायक हैं महाराणा प्रताप! लेकिन नायक की उनकी छवि इस बात की मुंहताज नहीं कि अकबर की सेना के खिलाफ उन्होंने हल्दीघाटी की लड़ाई जीती थी.

हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप की हार एक साबित तथ्य है, बावजूद इसके वे अगर एक महानायक हैं तो इसलिए कि उन्होंने बड़ी कठिनाइयां झेलीं, उन्हें मेवाड़ की दुर्गम पहाड़ियों पर किसी खानाबदोश की तरह जिंदगी गुजारी पड़ी लेकिन उन्होंने अकबर के आगे घुटने नहीं टेके. इलाके के बाकी राजपूत राजाओं के उलट उन्होंने मुगल बादशाह की अधीनता मंजूर करने से इनकार कर भारी धीरज, साहस और संकल्प का परिचय दिया.

जो लोग 1576 की हल्दीघाटी की लड़ाई का इतिहास नए सिरे से लिखने को आतुर हैं वे इतिहास की अपनी तंगनजरी में महाराणा को भारी नुकसान पहुंचाने का काम कर रहे हैं. महाराणा को विजेता घोषित कर वे उस बुनियाद को ही खत्म कर देना चाहते हैं जिसपर महाराणा प्रताप के नायकत्व की छवि बनी है.

यह बुनियाद महाराणा प्रताप के अनूठे संघर्ष, उनके लौह-संकल्प और अपने छिन लिए गये राज्य को दोबारा हासिल करने के उनके अनवरत प्रयास की शिला से बनी है. नये सिरे से इतिहास लिखने को आतुर लोग एक सीधी-सरल बात नहीं समझ पा रहे: महाराणा प्रताप हारकर भी नहीं झुके और इसी कारण वे आदर के पात्र हैं.

किसी के मोहताज नहीं प्रताप

राजस्थान की लोक-कथाओं और गीतों में महाराणा प्रताप के संघर्ष अब भी जिंदा है. उनका सुख-सुविधा को छोड़ जमीन पर सोना और घास की बनी रोटी खाकर जीवन बिताना राजस्थानी लोककथाओं का भरापूरा विषय है. अज्ञातवास के समय अकबर के खिलाफ गुरिल्ला लड़ाई में जिन लोगों ने उनका साथ दिया उनके नाम राजस्थान के घर-घर में प्रचलित हैं. महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी की लड़ाई का विजेता घोषित करने का मतलब है उनके इस संघर्ष को इतिहास के पन्ने से मिटाना. विजेता घोषित करते ही महाराणा प्रताप के संघर्ष की यह समृद्ध विरासत एक मजाक बनकर रह जाएगी.

बीजेपी की दिक्कत है कि वह इतिहास को धर्म के चश्मे से देखती है. इसी कारण बीजेपी की हल्दीघाटी की लड़ाई दो धर्मों की लड़ाई की कहानी बन जाती है जिसमें एक तरफ मुगल सेना है तो दूसरी तरफ राजपूत राजा. लेकिन इतिहास की ऐसी व्याख्या पूरी तरह से गलत है.

हल्दीघाटी की लड़ाई में अकबरी लश्कर का सिपहसालार आमेर (जयपुर) का राजपूत राजा मानसिंह था. कई और राजपूत सरदार अकबर की सेना में शामिल थे. इतिहास के कई पाठों में आता है कि महाराणा प्रताप की सेना का एक सरदार हकीम खान सूर था. कई लोग मानते हैं कि घायल होने पर महाराणा को जब मजबूरन लड़ाई का मैदान छोड़ना पड़ा तो कमान इसी सरदार हकीम खान सूर ने संभाली. महाराणा प्रताप के भाई जगमल और शक्तिसिंह ने खुद मुगलों का साथ दिया था. इसलिए यह बात तो एकदम साफ है कि लड़ाई की लकीर धर्म या राजपूती राजशाही के नाम पर नहीं खींची थी.

भारतीय इतिहास को शक्ल देने में अकबर की भूमिका शायद किसी भी अन्य शासक से ज्यादा बड़ी है. मध्यकालीन इतिहास के भीतर अकबर की तुलना में महाराणा प्रताप एक छोटा प्रसंग भर हैं.

लेकिन बीजेपी और इसकी हिंदुत्व ब्रिगेड के लिए यह स्वीकार करना कठिन है कि राष्ट्र एक बनती हुई शै का नाम है और भारत एक बहुरंगे समुदाय का नाम है जहां हिंदू, मुगल, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन और तकरीबन हर कोई सदियों से है और इनके होने से ही भारत को एक शक्ल हासिल हुई है. इसी कारण बीजेपी और हिंदुत्व ब्रिगेड मुगलों को नीचा दिखाने पर अड़ी रहती है, उन्हें हमलावर साबित करना चाहती है, बीते जमाने में हुई हर लड़ाई को हिंदू और मुसलमान की लड़ाई के रूप में देखती है. यह दरअसल ‘अद्भुत भारत’ का एक अपमान है.

समस्या इसलिए भी ज्यादा जटिल हो उठती है क्योंकि बहुत से राजस्थानी यह मानने को तैयार नहीं कि उनके पुरखे अपने बीच भी लड़ते थे. उन्होंने मुगलों की अधीनता मानी और तकरीबन हर बड़ी लड़ाई में उनकी हार हुई. मुगल दरबार के छोटे ओहदेदार बनने से पहले इन पुरखों की मोहम्मद गजनी, मोहम्मद गोरी और अकबर के आगे हार हुई थी.

आन-बान-शान का जबरन प्रमाण गढ़ने की कोशिश

अपनी शान के बखान के लिए जब इतिहास में कुछ नहीं मिलता तो राजपूती शान की कहानियों में दंतकथाओं को पिरोया जाता है. मुकामी भाट और चारण की बनाई बड़ाई और मनुहार से भरी कहानियों को इतिहास का तथ्य बताकर पेश किया जाता है. ऐसे लोगों के लिए चंदबरदाई का पृथ्वीराज रासो एक स्थापित इतिहास ग्रंथ बन जाता है भले ही इतिहासकार इसे मोहम्मद गोरी के साथ हुई पृथ्वीराज चौहान की लड़ाई का एक काल्पनिक आख्यान बताएं.

चंदबरदाई के आख्यान में आता है कि पृथ्वीराज चौहान बंदी बनाए गए, उन्हें अंधा बनाया गया और इसके बावजूद चौहान ने मोहम्मद गोरी को एक घातक तीर चलाकर मार डाला. (दरअसल चौहान की हार हुई थी, वे बंदी बनाए गए और 1192 की तराइन की दूसरी लड़ाई में मारे गए. तराइन की दूसरी लड़ाई के कई साल बाद मोहम्मद गोरी जिंदा रहा).

दुर्भाग्य कहिए कि तथ्य जब बिगाड़कर पेश किए जाते हैं तो उनके सहारे न तो देश के इतिहास का वास्तविक आकलन किया जा सकता है, न ही उसकी सही व्याख्या या ठीक समझ बन सकती है. महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी की लड़ाई का विजेता बताना अमर चित्रकथा के लिए भले एक अच्छी कहानी साबित हो लेकिन कभी भी उसे संजीदा इतिहास का दर्जा नहीं दिया जा सकता.

अपनी जीत की कहानी पढ़कर शायद महाराणा प्रताप भी यह सोचने को मजबूर हो जाएं कि जो मैं हल्दीघाटी की लड़ाई जीत गया था तो मेवाड़ की पहाड़ियों की खाक क्यों छाननी पड़ी और मैंने घास की रोटी खाकर क्यों जिंदगी बिताई?