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उत्तराखंड चुनाव 2017: पहाड़ी राज्य में पहाड़ी होना बेमानी है

विधानसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक पार्टी या नेताओं को उत्तराखंड में लोगों के बढ़ते पलायन और विस्थापन की परवाह नहीं

Manglesh Dabral

‘मैदान में रहने वाले लोग पहाड़ी हो रहे हैं और ‘पहाड़ी’ बड़ी तेजी से ‘मैदानी’ बन रहे हैं’. ये आह, देहरादून के एक दोस्त के दिल से निकली थी.

मेरे दोस्त साल 2000 में उत्तराखंड बनने के बाद से यहां के सामजिक ताने-बाने और भूगोल में आ रहे बदलाव पर अपना अफसोस जाहिर कर रहे थे. उत्तराखंड पहाड़ी राज्य के तौर पर बना था. बाद के सालों में यहां की हर सरकार पहाड़ से देहरादून, दिल्ली, मुंबई जैसे मैदानी इलाकों की ओर हो रहे भारी पलायन को रोकने में ना सिर्फ नाकाम रही. कहें तो इन सरकारों ने पलायन को तेज किया.


दूसरी तरफ, सुंदर पहाड़ी जगहों पर मैदानी लोगों का आना-जाना बढ़ा है. यहां प्रदूषण कम है, प्रकृति भरपूर और रहना-ठहरना निरापद. किसी के पास पक्का आंकड़ा नहीं है कि कितने लोगों का उधर से इधर और इधर से उधर पलायन किया है. अफसोस की बात यह है कि सूबे में होने वाले चुनाव में कोई भी राजनीतिक दल अपने चुनावी एजेंडे में इस पर मुंह खोलने तैयार नहीं है.

वो पहला पलायन

पलायन और विस्थापन- उत्तराखंड, इन दो बड़े संकटों से लंबे समय से जूझ रहा है. इसका एक लंबा इतिहास भी है जो किस्सों और कहानियों में जिंदा है.

शायद पहाड़ छोड़कर जाने वाला पहला आदमी गबर सिंह नाम का एक नौजवान था. साल 1913 में 19 साल की उम्र में वह कई मील पैदलकर चलकर लैंसडाऊन पहुंचा. तब लैंसडाऊन पहाड़ के लोगों को फौज में भर्ती करने का एकमात्र केंद्र था. दो साल बाद, पहले विश्वयुद्ध के दौरान फ्रांस के किसी मोर्चे पर गबर सिंह खेत रहा. मतलब, पहाड़ों से जारी पलायन को अब 100 साल पूरे हो रहे हैं.

कई लोगों को भरोसा नहीं होगा लेकिन हकीकत यही है कि सूबे के कुल 16793 गांवों में 1100 गांव एकदम वीरान पड़े हैं. 600 गांवों में महज 10 फीसद आबादी रह गई है और 3000 गांवों से 10 से 20 फीसदी लोग पलायन कर गये हैं.

पलायन और विस्थापन के चलते उत्तराखंड में कई गांव वीरान हो गए हैं

कुछ दिन पहले पौड़ी गढ़वाल के गांव बंडूल से खबर आयी थी कि यहां सिर्फ 62 साल की एक महिला विमला देवी बची हुई हैं. सांझ ढलने के बाद बाघ और जंगली भालू के डर से वह घर से बाहर नहीं निकलतीं. दरअसल उत्तराखंड में आज कई बंडूल हैं और ज्यादातर लोग शहरों में खप गये हैं.

यहां ना तो लोग बचे हैं और ना ही जमीन को जोतने की चाहत. खेतों में जंगली झाड़-झंखाड़ उग आये हैं और उनमें जंगली जानवरों की बेखौफ आवाजाही है. जो लोग अब तक प्रवासी नहीं हुए वे अपने पेड़, मीठा पानी, साफ आसमान. अपनी बोली और साझेपन की यादें अपने पीछे छोड़कर कहीं दूर जा निकलने के मौके की तलाश में हैं. ऐसा इसलिए इलाके में जिंदगी चलाये-बनाये रखने के लिए कुछ खास बचा नहीं.

शहरों को लेकर आकर्षण इतना कदर बढ़ा है कि कुछ दिनों पहले अपनी शादी के मौके पर मेरे दोस्त के बेटे ने जोर लगाया कि रीति-रिवाज नजदीक के शहर में हो क्योंकि वहां बारात के तमाशे के लिए डीजे मिल जायेगा ! उसके गांव में डीजे का मिलना नामुमकिन है.

इसका एक मजेदार उदाहरण है मशहूर लोक-गीतकार नरेंद्र सिंह नेगी का एक गीत. हाल के समय में यह गीत खूब लोकप्रिय हुआ है. गीत कुछ यों है: ‘मुझको पहाड़ी-पहाड़ी मत बोलो / मैं देहरादूनवाला हूं!’. कहने की जरूरत नहीं कि ज्यादातर नौजवान गांव को फटे कपड़े की तरह उतार फेंकना चाहते हैं.

केवल पैसे भर से नहीं बस जाते लोग

पर्याप्त जमीन और धन मिल जाय तो भी विस्थापित लोगों का फिर से बसना और आबाद होना बहुत कठिन है. आज जहां टिहरी बांध है, वहां से लोगों का बड़ी तादाद में पलायन हुआ. उन्हें देहरादून और ऋषिकेश-हरिद्वार की सपाट जमीन पर बसाया गया लेकिन इन लोगों का जो कुछ हमेशा के लिए खो गया या जो कुछ ये लोग हमेशा के लिए पीछे छोड़ आये उसकी चिन्ता किसी को नहीं.

किसी राजनीतिक दल को यह अहसास नहीं कि जड़ों से उखड़े लोगों की नई पीढ़ी अपनी अनूठी संस्कृति, भाव-भूमि, स्थानीय किस्से-कहानी, भाषा, लोकगीत, भाव-भंगिमा और बोल सबकुछ गंवा देगी. उनकी पहाड़ी पहचान खो जायेगी और वे मैदानी के रुप में खपा लिए जायेंगे.

याद रहे कि पहाड़ के वासी प्रवासी समुदायों को तनिक हिकारत से ‘कठमाली’ कहकर बुलाते हैं. कठमाली का मतलब होता है काठ हो चुका आदमी जो अपने अंदर का जीवन रस खो चुका है.

मैदानी होने में कोई हर्ज नहीं और ना ही मैदानियों के आने को लेकर किसी के मन में कोई नागवारी के भाव हैं. लेकिन अपना देसीपन खो जाय यह बात बड़ी त्रासदी है.

उत्तराखंड के राजनीतिक दलों को इस समस्या का समाधान निकालना चाहिए था. सोचना चाहिए था कि पलायन कैसे रुके लेकिन सारी पार्टियां ‘विकास की अंधी दौड़’ में लगी हैं और ये ही दौड़ उन्हें बड़े संकट देखने से रोकती है.

केवल गांव भर नहीं उजड़े

मान्यता है कि घर-आंगन में जंगल की लकड़ी जलायें और उसका धुआं घर की छत से ऊपर की ओर निकले तो पहाड़ पर बसे मिट्टी और पत्थर के मकानों को मजबूती मिलती है. वे देर तक कायम रहते हैं. अनेक गांव आज वीरान पड़े हैं तो इसलिए कि आग जलाकर धुआं करने को वहां कोई बचा ही नहीं.

गांवों के उजड़ने के साथ पीढ़ियों पुराना घर बनाने का वास्तुशिल्प और दरवाजे-खिड़की की लकड़ी पर नक्काशी करने का हुनर तकरीबन मिट चला है. दरअसल, परंपरागत तरीके की गृह-निर्माण की शैली का ध्वंस और इसकी जगह सीमेंट-कंक्रीट की सपाट छतों वाले मकानों का बनना इस इलाके के वास्तुशिल्प के संहार का सबसे बड़ा प्रमाण है.

पलायन के चलते मकानों में वास्तुशिल्प और नक्काशी का हुनर खत्म हो चला है (फोटो: फेसबुक से साभार)

यहां मकानों के बनाने में इंसानों के बाद सबसे बड़ी भूमिका पत्थर की हुआ करती थी. बड़े दुख की बात है कि हम पत्थर को भुला बैठे हैं- उसे टुकड़ों में तोड़कर रोड़ी बनाते हैं और रोड़ी डालकर सड़क तैयार करते हैं. दूसरी तरफ, बलुआ पत्थर का खनन और नदी की पेटी से बालू निकालने का काम बड़े जोर-शोर से जारी है. यह अपने बहुतायत में अवैध धंधे के रुप मे पनपा है.

बेशक, हालात बेहद खराब हो चले हैं लेकिन सूबे के चुनावों में हिस्सा ले रहा कोई भी राजनीतिक दल इन बातों को अपने एजेंडे पर रखने की जरुरत नहीं समझता. चंद निष्ठावान नेताओं को छोड़ दें तो हर कोई पहाड़ के सीधे-सादे मतदाताओं के वोट बटोरने के लिए हर किस्म का हथकंडा अपनाते दिख रहा है.