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पद्मावत: क्या है राजस्थान में विरोध की असली वजह

राजपूत समुदाय व्हॉट्स्ऐप पर ओवैसी के वीडियो सीख लेने के लिए फॉर्वर्ड कर रहा है

Mahendra Saini

पद्मावती का नाम बदल दिया गया है, रिलीज की तारीख बदल गई है और कई सीन भी बदल गए हैं. बस नहीं बदला है तो फिल्म को लेकर जारी विरोध. कहने को अब ये फिल्म 25 जनवरी को रिलीज हो रही है. लेकिन ये कहना मुश्किल है कि अब दर्शक इससे कितना जुड़ाव महसूस करेंगे.

मीडिया में आ रही खबरों में बताया जा रहा है कि अब इस फिल्म में न कहीं मेवाड़ का जिक्र होगा, न दिल्ली का, न पद्मावती चित्तौड़ की रानी के रूप में दिखेंगी और न ही खलनायक का नाम अलाउद्दीन खिलजी ही होगा. पूरी फिल्म को एक काल्पनिक कहानी कहकर दिखाया जाएगा. ये बिल्कुल वैसे ही होगा जैसे मलिक मोहम्मद जायसी के महाग्रंथ पद्मावत को ऐतिहासिक पैमाने की कसौटी पर काल्पनिक इतिहास की संज्ञा दे दी जाती है.


ऐसा पहली बार नहीं हुआ है!

हालिया समय में एक फिल्म में इतने बदलावों का आदेश कोई नई बात नहीं है. 2017 में उड़ता पंजाब में भी जालंधर, मोगा, पटियाला जैसे शहरों के नाम बदलने का आदेश सेंसर बोर्ड ने दिया था. हालांकि सेंसर बोर्ड अध्यक्ष पहलाज निहलानी के इन आदेशों के ख़िलाफ़ फिल्म निर्माता कोर्ट चले गए थे.

कुछ साल पहले आशुतोष गोवारिकर की जोधा अकबर के साथ भी ऐसा ही किया गया था. तब भी राजपूतों ने अकबर की रानी जोधा के अस्तित्व को लेकर इतिहास में गलत लेखन के आरोप लगाए थे. इसके बाद यह फ़िल्म राजस्थान में प्रतिबंधित कर दी गई.

लेकिन संजय लीला भंसाली की पद्मावती के खिलाफ पहले ही संसद से सड़क तक इतना बवाल हो चुका है कि अब किसी के लिए भी अव्वल तो कोर्ट जाना ही आसान नहीं है, फिर कोर्ट चले भी गए तो सरकार की भाषा में कहें तो, अदालती आदेशों को लागू करना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है.

राजस्थान में रिलीज़ नहीं होगी पद्मावत

सरकारों ने फिल्म पद्मावत से जुड़े मामले को कैसे और कितना उलझा दिया है, ये इसी से समझा जा सकता है कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड, जिसे हम आम बोलचाल की भाषा में सेंसर बोर्ड कहते हैं, की मंजूरी के बावजूद राज्य सरकार ने फिल्म को सुरक्षा देने से हाथ खड़े कर दिए हैं.

राजस्थान की मुख्यमंत्री ने खुद ऐलान किया है कि फिल्म पद्मावत को राज्य में रिलीज करने की इजाजत नहीं दी जाएगी. इसके लिए उन्होने लोगों की भावनाओं की बैसाखी का सहारा लिया. इसके तुरंत बाद गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया ने कहा कि फिल्म को बैन करने के लिए मुख्यमंत्री पहले ही केंद्र सरकार को पत्र लिख चुकी हैं.

हालांकि फिल्म पद्मावत का विरोध कर रही यह वही राजस्थान सरकार है जिसने खुद के अधिकृत ट्विटर पर पद्मिनी को अलाउद्दीन खिलजी की प्रेमिका तक बता दिया था. विरोध होने पर पद्मिनी की ऐतिहासिकता पर भी सवाल उठाए गए थे.

यही नहीं, फिल्म पद्मावती के विरोध प्रदर्शनों से पहले तक चित्तौड़गढ़ के किले में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सूचना पट्ट पर एक शीशे के लिए ये बताया जाता

था कि इसमें खिलजी ने रानी पद्मिनी का चेहरा देखा था. इससे भी आगे, स्कूली सिलेबस में हाल तक बच्चे वही पढ़ते रहे हैं जो शायद इस फिल्म में भी दिखाया जा रहा हो. ये सब कुछ तब बदला या बदलने की कोशिश की गई, जब फिल्म को लेकर विरोध शुरू हुआ.

हालांकि कई लोग दावा करते हैं कि फिल्म पद्मावत का विरोध कुछ लोगों की निजी राजनीति चमकाने की कोशिश था, जिसे बाकी लोगों ने अपने-अपने पक्ष में हवा दी.

फ़िल्म के विरोध को समर्थन एक गलत परम्परा

राजस्थान ही नहीं, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हिमाचल और बिहार जैसे राज्यों में बीजेपी के साथ साथ कांग्रेस की अलग-अलग सरकारों ने भी जनभावनाओं के नाम पर इस फिल्म को बैन करने के आदेश जारी किए हैं. हमें समझना होगा कि ये बैन सिर्फ एक फिल्म मात्र पर नहीं है बल्कि इसने एक गलत उदाहरण स्थापित कर दिया है.

अब कोई भी वो समुदाय जिसे किसी भी बात पर नाराजगी होगी, वो फिल्मों को निशाना बनाने से नहीं चूकेगा. इसकी एक बानगी पिछले महीने फिल्म 'टाइगर ज़िंदा है' की रिलीज के वक्त भी देखने को मिली. वाल्मिकी समुदाय ने कई शहरों में उन सिनेमाघरों में तोड़फोड़ करने कोशिश की, जिनमें ये दिखाई जा रही थी. वजह थी, एक रियलिटी शो में सलमान खान की जाति सूचक टिप्पणी.

पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में लगातार कम होते हास-परिहास पर चिंता जताई थी. इसका कारण यही खोजा गया कि अब मजाक या हल्केफुल्के अंदाज में कही गई बातों का तिल का ताड़ बना दिया जाना आम हो गया है. यही समाज में भी घट रहा है. फिल्म पद्मावत पर राजपूत समुदाय के विरोध का दूसरे समुदाय जिस अंदाज में व्याख्या कर रहे हैं, वो भी कम खतरनाक नहीं है. कुछ दिन पहले मेरे एक राजपूत दोस्त ने मुझे ये कहते हुए असदुद्दीन ओवैसी का एक वीडियो फॉरवर्ड किया कि 'म्लेच्छ' भी राजपूतों से 'सीखना' चाहते हैं.

वीडियो में ओवैसी अपने समुदाय से कह रहे थे कि जिस तरह राजपूतों ने सड़कों पर उतरकर फिल्म का प्रदर्शन रुकवा दिया, उससे मुसलमानों को सीखना चाहिए. ओवैसी के मुताबिक मुसलमानों को भी अपने हक के लिए सड़कों पर हिंसक प्रदर्शन करने से पीछे नहीं हटना चाहिए. तर्क था कि देश की जनसंख्या में 10% से कम हिस्सेदारी रखने वाला राजपूत समुदाय ऐसा करके अपनी बात मनवा सकता है तो मुसलमान तो देश में 20 करोड़ से ज्यादा हैं.

निश्चित रूप से हिंसक विरोध से किसी फिल्म का प्रदर्शन रुकवाना या अपनी बात मनवा लेना किसी समुदाय के लिए निजी वीरता का दंभ हो सकता है,

लेकिन मोटे तौर पर ये व्यवस्था को विभिन्न तरीकों से चुनौती ही प्रस्तुत करता है. जरा सोचिए, अगर हर कुछ दिन में कोई नया समुदाय अपनी बात मनवाने के लिए यही तरीके इस्तेमाल करने लगेगा तो खुद सरकार के लिए कानून व्यवस्था को बनाए रखना कितना चुनौतीपूर्ण हो जाएगा.

विरोध की असलियत क्या है?

जानकारों की मानें तो फिल्म पद्मावती के बहाने राजपूतों का विरोध बीजेपी समर्थित है. राजपूत समुदाय बीजेपी के कोर वोटर हैं. आज़ादी की लड़ाई के समय से ही राजपूत कांग्रेस का विकल्प तलाश रहे थे.

1970 के दशक में जब इंदिरा गांधी ने पुराने राजाओं का प्रीवीपर्स बंद कर दिया तो ये खुलकर जनसंघ के रास्ते बीजेपी के साथ आ गए. मंडल राजनीति ने इनका समर्थन और मजबूत किया. लेकिन मोदी सरकार आने के बाद कई कारणों से ये संबंध परिवर्तित हो रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में महादलितों और पिछड़ों में अति पिछड़ों को जोड़ने की अमित शाह की नई सोशल इंजीनियरिंग में सवर्ण खासकर राजपूत खुद को पीछे छूटा हुआ महसूस कर रहा है. इसी बीच राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की उपेक्षा भी समाज को उद्वेलित कर रही थी. वसुंधरा राजे ने पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत के परिवार खासकर, उनके दामाद नरपत सिंह राजवी को लगातार उपेक्षित किया है.

बाड़मेर से आने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री और कभी अटल बिहारी वाजपेयी के सलाहकार रहे जसवंत सिंह जसोल और उनके विधायक बेटे मानवेंद्र सिंह भी राजे की उपेक्षा के शिकार रहे हैं. जयपुर ग्रामीण सांसद और कर्नल राज्यवर्धन सिंह राठौड़ से भी मुख्यमंत्री ने लगातार दूरी बना कर रखी हुई है. राजे सरकार की दूसरी पारी में चूरू से आने वाले कैबिनेट मंत्री राजेंद्र सिंह राठौड़ भी वसुंधरा की गुडबुक्स से बाहर ही नजर आते हैं.

राजपूत नेताओं को दबाने की वसुंधरा राजे की कोशिशें ही समाज को बीजेपी के खिलाफ कर रही हैं. गैंगस्टर आनंदपाल एनकाउंटर ने इस आग में घी का काम किया है. समाज में आनंदपाल की रॉबिनहुड छवि थी और स्थानीय समीकरणों में उसने परंपरागत विरोधी जाटों से 'लोहा' लिया था. इसलिए राजपूतों के निचले वर्गों का वह स्वयंभू मसीहा बन गया था.

उसके एनकाउंटर ने राजपूतों के ऊंचे वर्गों को बीजेपी, खासकर वसुंधरा के ख़िलाफ़ बिगुल फूंकने का बड़ा मुद्दा पकड़ा दिया. इसे जमकर भुनाया भी गया. फिल्म पद्मावती के विरोध ने हवा पकड़ी तो बीजेपी ने इसे राजपूतों की नाराजगी दूर करने का एक जरिया बनाने की कोशिश कर डाली.

नेतृत्व ने इसे राजस्थान में अपने लिए एक अवसर की तरह लिया लेकिन गुजरात और हिमाचल चुनाव में भी राजपूतों की बड़ी तादाद देखते हुए इसे जमकर भड़काया गया. विपक्ष का आरोप है कि सिर्फ राजपूत वोटबैंक को अपने पाले में बनाए रखने के लिए बीजेपी ने हालात बिगड़ने दिए.

हालांकि फिल्म के विरोध को मूक समर्थन देकर अपने उद्देश्य में कितनी सफलता पाई गई, इसे लेकर संदेह ही है. फिल्म के प्रदर्शन से पहले एकबार फिर राजपूतों की चेतावनियां सामने आ रही हैं.

इस फिल्म के रिव्यू के लिए सेंसर बोर्ड की कमेटी में रहे मेवाड़ राजघराने के अरविंद सिंह ने पहले ही नाराजगी जता दी है. करणी सेना के सुखदेव सिंह गोगामेड़ी तो एक कदम आगे निकल गए हैं. गोगामेड़ी ने कहा है कि अगर नाम बदलने से सब ठीक हो जाता है तो वे भी पेट्रोल का नाम बदलकर

गंगाजल रख देंगे और इसी गंगाजल से उन सिनेमाघरों को जला देंगे जहां पद्मावत प्रदर्शित की जाएगी.

फिल्म को पूरे देश में प्रतिबंधित न किए जाने पर करणी सेना ने दिल्ली में प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) और मुंबई में सेंसर बोर्ड के ऑफिस का घेराव करने की चेतावनी भी दी है. सुखदेव सिंह गोगामेड़ी ने तो रिलीज की मंजूरी दिए जाने के आधार पर सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी और राज्यमंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को बर्खास्त करने की मांग भी कर डाली है.

अब ये साफ हो गया है कि फ़िल्म पद्मावत राजस्थान में रिलीज नहीं हो पाएगी. राजस्थान के बाहर भी सिनेमाघर मालिक इसे अपने यहां दिखाने में डर ही महसूस करेंगे. करणी सेना ने महाराष्ट्र के कोल्हापुर में जाकर जिस तरह सेट जला दिया था, उसकी यादें अभी धुंधली नहीं पड़ी हैं.

यहां मुझे मशहूर ब्रिटिश दार्शनिक जे एस मिल के विचार याद आते हैं. मिल के अनुसार हमें उन विचारों को भी बाहर आने से नहीं रोकना चाहिए जो हमारे मन के अनुकूल नहीं हैं. हमें उन विचारों की सत्यता की परीक्षा का जिम्मा जनता पर छोड़ देना चाहिए जो हमें सच नहीं लगते हैं.

मिल के अनुसार धरातल पर सिर्फ सच ही टिकता है. अगर कोई विचार झूठ है तो वो अपने आप खत्म हो जाएगा. वाल्तेयर भी यही कहते हैं कि दूसरों के विचारों की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करनी चाहिए. और इन सबसे ऊपर हमारा अपना संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है. राज्य से इस अधिकार की संरक्षा की उम्मीद तो की ही जा सकती है.