बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद मामले में मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जेएस केहर की तरफ से दिया गया बयान काफी चौंकाने वाला है. जस्टिस केहर ने इस मसले पर हस्तक्षेप की मंशा जाहिर की है.
कानूनी तौर पर देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का वैसे किसी भी केस में मध्यस्थता की पहल करना गलत नहीं है, जो किसी संपत्ति पर मालिकाना हक से जुड़ा मामला हो.
आज से पहले ऐसे कई मामले आए हैं जहां सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस अधिकार का इस्तेमाल किया है और कई तरह के उलझे हुए संपत्ति विवादों और दीवानी मामलों को निपटाया है.
लेकिन अयोध्या का मामला केवल कोई मामूली दीवानी मामला नहीं है. शायद यही वजह है जिस कारण इसकी सुनवाई के लिए गठित पांच सदस्यीय खंडपीठ ने इस पर नरसिम्हा राव सरकार की तरफ से ‘प्रेसिडेंशियल रेफरेंस’ की मांग को भी नकार दिया था.
प्रेसिडेंशियल रेफरेंस
प्रेसिडिंशियल रेफरेंस संविधान की धारा 143 (1) के तहत दी जाने वाली वो ‘एडवाइजरी ओपिनियन’ यानि कि सलाह है, जिसकी मांग कोई भी सरकार सुप्रीम कोर्ट से नागरिक या संपत्ति विवाद में कर सकती है.
पीवी नरसिम्हा राव ने 15 नवंबर 1994 को अयोध्या मुद्दे पर ही सुप्रीम कोर्ट के सामने ये दरख्वास्त रखी थी जिसे कोर्ट ने मानने से मना कर दिया था.
उस समय की पांच सदस्यीय खंडपीठ ने फैसला सुनाते हुए ये साफ कर दिया था कि, ‘चूंकि...सरकार सुप्रीम कोर्ट की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं है, इसलिए वो इस विवादास्पद मसले पर किसी तरह की सलाह देना नहीं चाहती है.’
साफ तौर पर बहस के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने तब केंद्र से पूछा था कि अगर वो इस विवादास्पद मामले पर कोई सलाह देती है तो क्या केंद्र उसे एक आदेश के तौर पर लेते हुए उसे लागू भी करेगी.
उच्च न्यायालय के इस सवाल के बाद नरसिम्हा राव सरकार ने इससे इंकार दिया और ऐसे में कोर्ट ने प्रेसिडेंशियल रेफरेंस की मांग को अस्वीकार कर दिया था.
अब, जबकि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने अयोध्या में राम मंदिर के मुद्दे पर ये बयान दिया है तो इसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता है. खासकर तब जब 1989 के बाद ये पहली बार होगा जब केंद्र और राज्य में एक पार्टी की सरकार है और वो पार्टी है बीजेपी.
दूरगामी असर संभव
बीजेपी को संघ परिवार की राजनीतिक ईकाई के रूप में जाना जाता है. संघ परिवार लंबे समय से देश में हिंदुत्व के एजेंडे के लिए काम कर रहा है. ऐसे मौके पर मुख्य न्यायाधीश की तरफ से आया ये बयान, एक साथ कई व्याख्यायों की तरफ इशारा कर रहा है.
इन कई व्याख्यायों में जो सबसे साफ और स्पष्ट है वो ये है कि सरकार अब इस मामले को न्यायपालिका के हस्तक्षेप के साथ एक तर्कसंगत अंत देना चाहती है.
अगर हम याद करें तो 1 अक्टूबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अयोध्या मामले पर एक अजीब सा फैसला सुनाया था. उस फैसले में कहा गया था कि रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद की भूमि को तीन हिस्सों में बांट दिया जाए. इसमें से 2.77 एकड़ की जमीन सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद बनाने के लिए दिया गया था.
संघ परिवार ने बड़ी ही चतुराई से इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले को अपने उस रुख की जीत बताया था कि विवादास्पद जमीन पर बाबरी मस्जिद से पहले मंदिर बना हुआ था.
हालांकि इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले को दोनों पक्षों ने मानने से इंकार कर दिया था. मुस्लिम समुदाय के एक बड़े नेता वर्ग ने कोर्ट के इस फैसले को इसलिए मानने से इंकार कर दिया था क्योंकि उनका मानना था कि अदालत का निर्णय सबूतों की जगह काफी हद तक किवदंतियों और पौराणिक मान्यताओं पर आधारित है. वहीं हिंदू समुदाय 2.77 एकड़ की भूमि से एक इंच कम जमीन लेने को तैयार नहीं था.
ये भी पढ़ें: राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद कोर्ट के बाहर सुलझा लें-कोर्ट
चूंकि दोनों ही पक्ष इस विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट जा चुके थे, इसलिए बीजेपी नेता सुब्रमण्यन स्वामी ने इस मुद्दे पर सुप्रीमकोर्ट से हस्तक्षेप की मांग की थी.
स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट को दी गई अपनी याचिका में मांग की थी कि वो इस मामले में मध्यस्थता कर रामजन्मभूमि के सफल निर्माण में मदद करे.
अनूठा विवेक
जस्टिस केहर के ताजा बयान जिसमें उन्होंने इस मामले में अदालत के मध्यस्थ बनने के लिए राजी होने की बात कही है वो अपने आप में न्यायिक विवेक का अनूठा मामला है.
जिस तरह से ये मामला देश की हिंदू और मुसलमान आबादी की भावनाओं से जुड़ा हुआ है, अगर सुप्रीम कोर्ट के इसमें दखल देने उसके एक राजनीतिक भंवर में फंसने का खतरा तो है ही.
हालांकि, दूसरी तरफ ये भी मुमकिन है कि सुप्रीम कोर्ट के दखल से शायद आजाद भारत के इतिहास के अब तक के सबसे विवादास्पद मसले का कोई हल निकल पाए. रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद एक ऐसा मामला रहा है जिसे एक के बाद एक आई सभी सरकारों ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया है.
सुप्रीम कोर्ट के दिए गए फैसले की निरपेक्षता को देश में कोई चुनौती नहीं दे सकता. ऐसे में यह उम्मीद भी जगती है कि इस मुद्दे का हल निकाल कर भारत जैसे बहुलतावादी देश में राम मंदिर और बाबरी मस्जिद के नाम पर हावी सांप्रदायिकता का भूत हमेशा-हमेशा के लिए दफन कर दिया जाएगा.