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राजनीति की मौत मरते जवान और किसान

राम किशन ग्रेवाल के बड़े कहते हैं- मेरे पिता की मौत पर राजनीति नहीं होनी चाहिए.

Vivek Anand

गुरुवार सुबह दिल्ली-भिवानी रोड पर वीआईपी गाड़ियां सांय-सांय करती हुई भाग रही थी. भिवानी के बामला गांव में लंबी और बड़ी गाडियों से ऊंचे लोगों के उतरने का सिलसिला सा चल निकला.


पिछली रात की राजनीति को दिन की रोशनी दिखाने राहुल गांधी पहुंचे. देर रात की हंगामेदार राजनीति का शोरगुल कम न पड़ने पाए, उसके पहले ही केजरीवाल पधार चुके थे.

टीएमसी के डेरेक ओ ब्रायन ममता दी का संदेश लेकर शोकसंतप्त परिवार से मिलने पहुंचे. इलाके के सारे बड़े-छोटे नेताओं की संवेदनशीलता अपने चरम पर थी. जिस पर सवाल खड़े करना जोखिम लेने जैसा है.

अरविंद केजरीवाल ने फौरी तौर पर मृतक पूर्व सैनिक के परिवार को एक करोड़ देने का एलान कर दिया है. इस एलान का काउंटर एलान भी हो जाएगा. मृतक राम किशन ग्रेवाल के परिवार से मिलने सब आ रहे हैं लेकिन उनकी सुनने का सब्र किसी में नहीं है.

राम किशन ग्रेवाल के बड़े बेटे दिलावर कहते हैं- ‘मेरे पिता की मौत पर राजनीति नहीं होनी चाहिए. उन्हें शहीद का दर्जा दिया जाए.’ रामकिशन ग्रेवाल की 65 साल की बेवा किताबो देवी कहती हैं- मुझे तो अंदेशा तक नहीं था कि क्या हुआ. धरना प्रदर्शन तो वो करते रहते थे. सोमवार को वो धरने के लिए दिल्ली निकले तो यह रोज की तरह था. एक दिन बाद ही उन्होंने लौट आने को कहा था.’

किसी को विश्वास नहीं हो रहा है कि रामकिशन ग्रेवाल खुदकुशी भी कर सकते थे. परिवारवाले, रिश्तेदार, गांव वाले सदमे में हैं. ओआरओपी पर उनके संघर्ष और गांव का सरपंच रहते उनके विकास के कामों की चर्चा चल निकली है.

किसी के भी मन की गांठ खुल नहीं पा रही, कि जिसने सेना को अपनी जिंदगी के 24 साल दिए, सरपंच रहते गांव में स्कूल से लेकर नालियां-गलियां बनवाई, सरपंच रहते जिसे राष्ट्रपति के हाथों पुरस्कार तक मिला. वो आंदोलन में इतना कमजोर कैसे हो गया. क्या रामकिशन ग्रेवाल क्षणिक आवेश में लिए गलत फैसले का शिकार हुए.

अप्रैल 2015 में इसी तरह का एक वाक्या हुआ था. दिल्ली के जंतर-मंतर पर अरविंद केजरीवाल सरकार के जमीन अधिग्रहण विधेयक का विरोध कर रहे थे.

इस विरोध प्रदर्शन में राजस्थान में जयपुर के एक गांव का रहने वाला गजेन्द्र सिंह शामिल था. सरकार के खिलाफ नारेबाजी करता हुआ वो एक पेड़ पर चढ़ बैठा. अपने अंगोछे को रस्सी की शक्ल देकर गले में फंदा डाल लिया. केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और कुमार विश्वास जैसे भारीभरकम नेताओं की संवेदनशीलता जागती उसके पहले ही वो चल बसा.

एक शख्स की बलि लेकर उस वक्त भी सियासत उतनी ही सरगर्म हुई थी. दिल्ली से उसके घर जयपुर तक नेताओं का रेला निकल पड़ा था. सियासत में शहीद का दर्जा पा लेने के बाद किसी के लिए लिखना बड़ा मुश्किल हो जाता है.

लेकिन सच्चाई तो यही थी कि गजेन्द्र सिंह 10 एकड़ जमीन का मालिक था. जहां राजस्थान के बाकी हिस्सों के किसानों की फसलों की बर्बादी ज्यादा हुई थी, वहीं उसका नुकसान सिर्फ 20-25 फीसदी का था. खाने-पीने की कोई दिक्कत नहीं थी. समाजवादी पार्टी के टिकट पर दो बार चुनाव भी लड़ चुका था.

और पगड़ी बांधने की कारीगरी का ऐसा माहिर था कि उसके मुरीदों में गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी शामिल थे.

जैसे रामकिशन लौट के आने को कहकर घर से निकले थे. वैसे ही गजेन्द्र सिंह भी केजरीवाल से मिलकर वापस लौट आने को कह गया था. दोनों वापस लौटे लेकिन शरीर में सांस नहीं थी और सियासत जोरशोर से सांसें भर रहा था.