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राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह बनाम प्रधानमंत्री राजीव गांधी विवाद, भूतो न भविष्यति  

उन दिनों किसी ने लिखा था कि ‘साउथ ब्लाॅक के उस हिस्से से जहां प्रधानमंत्री का दफ्तर है, राष्ट्रपति भवन महज कुछ सौ गज दूर है. लेकिन दो-ढाई वर्षों से कुछ ऐसा लगता है जैसे राष्ट्रपति भवन भारत में न होकर किसी दूसरे देश में हो’

Surendra Kishore

अस्सी के दशक में जैसा विवाद राष्ट्रपति जैल सिंह और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच हुआ, वैसा पहले कभी नहीं हुआ. शायद भविष्य में भी संभवत ऐसा फिर कभी न हो! आजादी के फौरन बाद हिंदू कोड बिल को लेकर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जरूर आमने-सामने थे, पर

वो मामला इतना तीखा नहीं हुआ.


वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद यदि केंद्र में गैर एनडीए सरकार बन गई तो क्या होगा? यह सवाल पूछा जाने लगा है. राष्ट्रपति और भावी प्रधानमंत्री के बीच कैसा संबंध रहेगा? वैसे तो यह काल्पनिक सवाल है पर, पिछले ऐसे कुछ विवादों और मतभेदों के अनुभव बताते हैं कि हमारा लोकतंत्र ऐसे मामलों को संभालने लायक प्रौढ़ बन चुका है. फिर भी 1987 का वो प्रकरण उल्लेखनीय है जब राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने विवादास्पद भारतीय डाकघर संशोधन विधेयक पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया था.

उस विधेयक के जरिए केंद्र सरकार नागरिकों की चिट्ठियों को खोलने का अधिकार ले रही थी. हालांकि वह तो एक बहाना था. सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर बैठे उन दो हस्तियों के बीच विवाद के कई अन्य मुद्दे भी तब जग-जाहिर हो गए थे.

राजनीतिक हलकों में इस अफवाह का बाजार गर्म था कि राष्ट्रपति किसी भी दिन राजीव गांधी की सरकार को बर्खास्त कर वैकल्पिक सरकार को शपथ ग्रहण करवा सकते हैं. पर ऐसा न तो होना था और न हुआ. याद रहे कि ज्ञानी जैल सिंह 1982 से 1987 तक देश के राष्ट्रपति थे. राजीव गांधी 1984 से 1989 तक प्रधानमंत्री थे. राजीव गांधी सरकार को तब 404 लोकसभा सदस्यों का समर्थन हासिल था. हालांकि कुछ विवादास्पद मामलों को लेकर कांग्रेस की स्थिति कमजोर होती जा रही थी. समय के साथ पार्टी इतनी कमजोर हो गई कि 1989 में केंद्र की सत्ता कांग्रेस के हाथ से निकल गई.

मंदिर और मंडल मुद्दों को कांग्रेस बेहतर ढंग से हैंडल कर सकती थी

मंडल और मंदिर मुद्दों पर देश इतना गर्माया कि उससे कांग्रेस की ताकत पिघल गई. उसके बाद कांग्रेस को कभी लोकसभा में अपना बहुमत नहीं आ पाया. राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार मंदिर और मंडल मुद्दों को कांग्रेस बेहतर ढंग से हैंडल कर सकती थी.

इससे पहले यह कभी नहीं हुआ था कि राष्ट्र के नाम राष्ट्रपति के संदेश को सरकार सेंसर कर दे और विदेश यात्राओं पर राष्ट्रपति के बदले उपराष्ट्रपति को भेजा जाए. यह भी नहीं हुआ था कि राष्ट्रपति टी वी पर एकतरफा प्रसारण पर एतराज करें. विधेयक पर दस्तखत करने से रोक दें और सरकार से यह पूछें कि जजों की नियुक्ति में साफ नीति क्यों नहीं बनाई जा रही है. यह सब तब जैल सिंह बनाम राजीव गांधी विवाद के क्रम में हो रहा था.

याद रहे कि राष्ट्रपति बनने से पहले जैल सिंह संजय गांधी को अपना ‘रहनुमा’ मानते थे. इंदिरा गांधी के कहने पर ‘झाड़ू लगाने को भी तैयार’ रहते थे. इंदिरा गांधी की हत्या के समय वो उत्तरी यमन के दौरे पर थे. उन्होंने बाद में कहा था  कि मैंने वापसी के समय जहाज में ही यह तय कर लिया था कि राजीव गांधी को शपथ ग्रहण कराऊंगा. क्योंकि मैं नेहरू परिवार का वफादार हूं. पर कुछ ही समय के बाद ही दोनों के बीच ऐसा कुछ हुआ कि संवाददहीनता की स्थिति पैदा हो गई.

ज्ञानी जैल सिंह

उन दिनों किसी ने लिखा था कि ‘साउथ ब्लाॅक के उस हिस्से से जहां प्रधानमंत्री का दफ्तर है, राष्ट्रपति भवन महज कुछ सौ गज दूर है. लेकिन दो-ढाई वर्षों से कुछ ऐसा लगता है जैसे राष्ट्रपति भवन भारत में न होकर किसी दूसरे देश में हो.’

वो ऐतिहासिक विवाद सिर्फ किसी एक मुद्दे को लेकर नहीं था. शिकायतें कई थीं. शिकायतें दोनों तरफ से थीं. विवादों के बीच ही जैल सिंह का कार्यकाल 1987 की जुलाई में पूरा हो गया.

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जैल सिंह की शिकायत थी कि राय लेना तो दूर नाजुक और महत्वपूर्ण मसले भी प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति से छिपाए. प्रधानमंत्री ने अपनी विदेश यात्राओं के नतीजों की जानकारी राष्ट्रपति को नहीं दी. मंत्रिमंडल में फेरबदल को लेकर कोई पूर्व विचार-विमर्श नहीं हुआ. सूचना ऐन वक्त पर दी गई. राजीव गांधी के करीबी लोगों ने सार्वजनिक रूप से यह आरोप लगाया कि जब जैल सिंह गृह मंत्री थे, तभी से पंजाब बेकाबू हुआ.

राजीव गांधी को राष्ट्रपति जैल सिंह से कई शिकायतें थी

प्रधानमंत्री के करीबियों ने खुलेआम राष्ट्रपति की आलोचना की, फिर भी राजीव गांधी चुप रहे. दूसरी ओर प्रधानमंत्री को भी जैल सिंह से कई शिकायतें थीं. राष्ट्रपति ने मुख्य चुनाव आयुक्त को बुला कर हरियाणा में अन्य राज्यों के  साथ ही चुनाव न कराए जाने का कारण पूछा. आंध्र प्रदेश की राज्यपाल कुमुदबेन जोशी ने अपने दायरे से बाहर जाकर काम किया तो राष्ट्रपति ने उन्हें पत्र लिख कर फटकारा. यह प्रधानमंत्री को पसंद नहीं आया.

राजीव गांधी

राष्ट्रपति ने लालडेंगा के साथ सरकार के समझौता करने पर अपना नाराजगी जाहिर की. राष्ट्रपति ने सरकार से बजाप्ता यह पूछ दिया कि मेरे संदेश को सेंसर क्यों किया गया. एक तरफ केंद्र सरकार यह महसूस कर रही थी कि विपक्षी नेताओं से मेलजोल बढ़ा कर और गैर कांग्रेस सरकारों की तारीफों के पुल बांध कर राष्ट्रपति ने सरकार की उलझनें बढ़ा दीं. दूसरी ओर राष्ट्रपति अब रबर स्टाम्प बनने को राजी नहीं थे. उन्हें यह भी स्वीकार नहीं था कि एक अनुभवहीन प्रधानमंत्री और उसके मंत्री जब चाहें तब उनका अपमान करें.