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राजस्थान चुनाव: बीजेपी में गुटबाजी और कांग्रेस में रुतबे की टक्कर

चुनाव से पहले दोनों पार्टियों के अंदरूनी हालात बता रहे हैं कि समस्या से अछूता कोई नहीं है. लेकिन बयानों का लब्बोलुआब दोनों तरफ ये भी है कि हमारी पार्टी में कलह तुमसे कम है

Mahendra Saini

राजस्थान में ज्यों-ज्यों चुनाव का समय नजदीक आता जा रहा है, बीजेपी और कांग्रेस दोनों पार्टियों में शह और मात का खेल भी तेज होता जा रहा है. छोटे नेता इस कोशिश में है कि उनकी जी हुजूरी पर बड़े नेता की ज्यादा से ज्यादा नजर पड़े. बड़े नेता इस कोशिश में है कि कैसे सत्ता की मलाई का छींका दूसरे से बचाया जाए. ज्यादातर बड़े नेताओं को डर है कि उनके पास आती मलाई कहीं कोई और न उड़ा ले जाए.

हालिया समय तक भीतरघात, भाई-भतीजावाद, गुटबाजी, ये ऐसे शब्द थे जिन्हें बीजेपी वाले कांग्रेस की संस्कृति बताते थे. अमूमन बीजेपी वाले खुद को पार्टी विद द डिफरेंस कहा करते थे. दावे किए जाते थे कि कैडर आधारित बीजेपी अकेली ऐसी पार्टी है, जहां लोकतंत्र है और गुटबाजी या भीतरघात कतई नहीं है. लेकिन अब लगता नहीं कि ऐसा है. गुटबाजी अब बीजेपी के अंदर भी साफ देखी जा सकती है.


बीजेपी में गुटबाजी अब छिपी बात नहीं

राजस्थान की मुख्यंत्री वसुंधरा राजे और बीजेपी हाईकमान के बीच शीर्ष स्तर पर चल रही खींचतान अब किसी से छिपी नहीं है. वसुंधरा राजे ये मैसेज देने में कामयाब रही हैं कि आदेश मानना उनका स्वभाव नहीं है, फिर चाहे आदेश देने वाले नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही क्यों न हों. मोदी-शाह से कुछ साल पहले राजनाथ सिंह भी वसुंधरा के इस 'राजशाही' व्यवहार से परिचित हो चुके हैं.

मौजूदा लड़ाई प्रदेशाध्यक्ष पद के मुद्दे पर शुरू हुई थी. हाईकमान गजेंद्र सिंह शेखावत के रूप में अपनी पसंद जाहिर कर चुका था. लेकिन वसुंधरा ने वीटो कर दिया. दिल्ली में अपने समर्थकों से लॉबिंग करवाई. हालात ये हो गए कि शाह को खुद वसुंधरा राजे से बात करनी पड़ी. दिल्ली में मीटिंग हुई और बाहर आकर वसुंधरा ने मीडिया से चेहरे की मुस्कुराहट देखकर अंदाज़ा लगाने को कहा. तब लगा कि मामला सुलझ गया है लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

प्रदेशाध्यक्ष के मुद्दे पर केंद्रीय नेतृत्व की किरकिरी होने के बाद केंद्र सरकार ने राजे के चहेते मुख्य सचिव निहाल चंद गोयल को एक्सटेंशन नहीं दी. राजे चाहती थीं कि चुनावी साल में गोयल को 6 महीने का एक्सटेंशन मिल जाए. इसी हफ्ते सोमवार-मंगलवार की आधी रात तक एक्सटेंशन होने या नया मुख्य सचिव मिलने पर सस्पेंस बना रहा, ड्रामा चलता रहा. आखिरकार आधी रात को साफ हो गया कि गोयल को जाना होगा और तब डी बी गुप्ता को नया मुख्य सचिव बनाया गया.

राजनीतिक गलियारों में कहा जा रहा है कि वसुंधरा राजे के सख्त रवैए ने शीर्ष नेतृत्व के बीच खीझ पैदा कर दी है. अब मोदी-शाह कतई राजे को बख्शने के मूड में नहीं है. बस कोशिश इतनी है कि कर्नाटक चुनाव तक कोई नया बवाल न खड़ा हो. सूत्रों का कहना है कि अमित शाह ने तय कर लिया है कि प्रदेशाध्यक्ष तो उनकी पसंद के गजेंद्र सिंह शेखावत ही बनेंगे. अब देखना ये है कि वसुंधरा राजे क्या कदम उठाती हैं. क्या वे 2009 की तरह पार्टी तोड़ने की धमकी देंगी या फिर कोई 'डील' करने की कोशिश होगी ?

कांग्रेस में भी बयानों की लड़ाई

अब तक पर्दे के पीछे चल रही राजस्थान कांग्रेस की जंग भी खुलकर सामने आ गई है. ये जंग उस तरह की है जैसा कि एक फिल्म का डायलॉग है- इस जंगल में केवल एक ही शेर रह सकता है. अब लड़ाई इस बात की है कि यहां कांग्रेस का शेर कौन है- अनुभवी अशोक गहलोत या युवा सचिन पायलट. पायलट कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के करीबी माने जाते हैं तो गहलोत राहुल की मां सोनिया गांधी के विश्वासपात्र हैं.

अशोक गहलोत को कांग्रेस में अघोषित रूप से तीसरे नंबर का पद दे दिया गया है. लेकिन लगता नहीं है कि दिल्ली में उनका मन लग पा रहा है. लगता है, गहलोत की पहली पसंद मुख्यमंत्री की कुर्सी है. इसी का नतीजा है कि लगभग हर हफ्ते वे राजस्थान आकर ऐसा बयान जरूर दे देते हैं, जिसका मतलब यही निकलता है कि राजस्थान के अगले मुख्यमंत्री के लिए सचिन पायलट अभी बेफिक्र होकर सपने न देखें.

एक मौके पर गहलोत ने कहा कि जूनियर नेता अपने से सीनियर नेता की लाइन काटने की बजाय अपनी खुद की लाइन को बड़ा करने का साहस करें. गहलोत ने कहा कि कोई भी अपने आप में इतना सक्षम नहीं है कि वो सिर्फ खुद के बूते ही जीत की महत्वाकांक्षा पाल ले. गहलोत ने युवा नेताओं को नसीहत देते हुए ये भी जोड़ा कि वे आज इतने बड़े पद पर होते हुए भी खुद को कार्यकर्ता ही मानते हैं और पार्टी के हर आदेश का पालन करते हैं.

जब तीर बयानों के चल रहे हैं तो पायलट ने भी दिखाया है कि नहले पर दहला मारने में स्पीड उनकी भी कम नहीं है. पायलट ने पलटवार करते हुए कहा कि अध्यक्ष राहुल गांधी ही युवाओं को ज्यादा जगह देने की बात करते हैं. ऐसे में बाकी नेताओं को न तो दीवारें खड़ी करनी चाहिए और न ही किसी लाइन के छोटी-बड़ी होने पर चिंता जतानी चाहिए. हालांकि उन्होने ये जोड़कर गहरी समझ का परिचय दिया कि गहलोत राजस्थान से जाना भी चाहेंगे तो वे नहीं जाने देंगे.

पायलट की रफ्तार कर रही पस्त

वैसे, गहलोत को इस समय जैसी चुनौती पायलट से मिल रही है, 10 साल पहले ऐसी ही चुनौती तब के प्रदेशाध्यक्ष सी पी जोशी से भी मिली थी. तब जोशी खुलकर कहते थे कि कभी वे गहलोत के फॉलोवर थे और अब (2008 में) वे गहलोत के बराबर बैठते हैं. लेकिन सबने देखा कि कैसे राजनीति के जादूगर गहलोत ने बिना बोले ही अपने प्रतिद्वंदी को 'ठिकाने' लगा दिया. जोशी मुख्यमंत्री बनने का सपना ही नहीं देख रहे थे बल्कि तगड़े दावेदार भी थे. पर वे 'बाजीगर' नहीं बन पाए.

सचिन इससे सबक ले सकते हैं. लेकिन इस बार गहलोत के सामने चुनौती ज्यादा ताकतवर लग रही है. ऐसा इसलिए क्योंकि पहली बार गहलोत इतनी ज्यादा बयानबाजी करते नजर आ रहे हैं. इससे पहले गहलोत की इमेज जोर का झटका धीरे से देने वाले राजनेता की रही है. हमेशा यही देखा जाता रहा है कि वे कम बोलकर चुपके से अपना काम कर जाते हैं. पायलट के सामने शायद उनको जूझना पड़ रहा है. इसीलिए इसबार उनको करने से ज्यादा कहना पड़ रहा है.

बहरहाल, चुनाव से पहले दोनों पार्टियों के अंदरूनी हालात बता रहे हैं कि समस्या से अछूता कोई नहीं है. लेकिन बयानों का लब्बोलुआब दोनों तरफ ये भी है कि हमारी पार्टी में कलह तुमसे कम है. अशोक गहलोत और सचिन पायलट मुख्यमंत्री की गैरत को ललकारते हुए इस्तीफे की सलाह देते हैं क्योंकि प्रदेशाध्यक्ष के मुद्दे पर हाईकमान ने उन्हे नीचा दिखाया. दूसरी ओर, बीजेपी नेता राजेंद्र सिंह राठौड़ अशोक गहलोत को खिसियानी बिल्ली बताते हुए खंभा नोंचने से बाज़ आने की सलाह देते हैं क्योंकि लगभग आधी उम्र के सचिन पायलट के सामने वे कमजोर पड़ चुके हैं.