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वसुंधरा को लेकर राजस्थान के वोटर्स की नाराजगी की क्या है वजह?

राजे की एक और समस्या है कि वो पार्टी नेताओं, कार्यकर्ताओं और आम लोगों के साथ खुलकर बातचीत नहीं कर पातीं. उनका टेंपरामेंट और मूल स्वभाव ऐसा है कि वो अपने स्टाफ और ब्यूरोक्रेसी में चंद लोगों पर ही भरोसा कर पाती हैं

FP Politics

राजस्थान में एक पुरानी कहावत है, जो वोटर्स की मानसिकता समझने के लिए अहम है. कहा जाता है कि भाई के मरने का तो गम है, लेकिन खुशी इस बात की है कि भौजाई का तो ठरका जाता रहा! अगर आपको राजस्थान में विधानसभा चुनाव समझने हैं, तो इस कहावत को ध्यान रखिए. यह वोटर्स की मानसिकता को दिखाते हैं.

सबक सिखाने के मूड में वोटर!


तमाम ओपिनियन पोल राजस्थान में कांग्रेस को बढ़त पर दिखा रहे हैं. राज्य में मूड सरकार के खिलाफ गुस्से का है. प्रधानमंत्री और बीजेपी को इस बात का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है कि यहां के वोटर स्थानीय नेताओं को सबक सिखाना चाहते हैं. साफ संकेत मिल रहे हैं कि बीजेपी हर जगह परेशानी में है. जयपुर में बीजेपी हेडक्वार्टर सूना पड़ा है. जमीनी स्तर पर कार्यकर्ता गायब हैं.

केंद्रीय नेतृत्व अपनी तरफ से संदेश देने की पूरी कोशिश कर रहा है कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के अलावा राज्य के कई नेता उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया में शामिल हैं. दो एमपी- अर्जुन राम मेघवाल और गजेंद्र सिंह शेखावत पावर सेंटर की तरह उभरे हैं.

राजे की लोकप्रियता में गिरावट की बात करने वाले कई थ्योरी बता रहे हैं. पहली है कि राजे अपनी छवि का शिकार हो गई हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के साथ उनके समीकरण अच्छे नहीं हैं. पता नहीं, इसमें कितना सच है. लेकिन हार्डकोर मोदी समर्थकों का उनमें उस तरह भरोसा नहीं है, जैसे बीजेपी के बाकी मुख्यमंत्रियों पर है.

संदेह से बड़ा नुकसान

सबसे बड़ा नुकसान संदेह की वजह से है. इससे अनिश्चितता की स्थिति बनी. इसके बाद पूरे कार्यकाल में सीएम मैदान पर अपने कामों को उतार पाने में नाकाम दिखती रहीं. इससे यह छवि बनी कि राजे ‘नॉन-परफॉर्मर’ हैं. राजे बीजेपी परिवार की सबसे डायनेमिक मुख्यमंत्रियों में एक हैं. उनके पास बड़ा समर्थन है, साहस और विस्तृत नजरिया है. लेकिन असुरक्षा की भावना और शाही साजिशों ने शायद इस कार्यकाल के ज्यादा समय तक उन्हें भटकाव की हालत में रखा. नतीजा यह हुआ कि सरकारी कामकाज पर असर पड़ा. अब, हालांकि वो टी 20 मैच के डेथ ओवर्स में किसी बल्लेबाज की तरह खेल रही हैं, लेकिन स्कोर बोर्ड पर रन अंकित करने की अपनी सीमाएं हैं.

राजे की एक और समस्या है कि वो पार्टी नेताओं, कार्यकर्ताओं और आम लोगों के साथ खुलकर बातचीत नहीं कर पातीं. उनका टेंपरामेंट और मूल स्वभाव ऐसा है कि वो अपने स्टाफ और ब्यूरोक्रेसी में चंद लोगों पर ही भरोसा कर पाती हैं. राजे, क्योंकि दुनिया से थोड़ा कटी दिखती हैं, इसलिए उन्हें जमीनी हकीकत का कई बार अंदाजा नहीं हो पाया और वो गड़बड़ियों पर काबू पाने के लिए कुछ नहीं कर पाईं. नतीजतन, राजे एंटी इनकंबेंसी की लहर के सामने खड़ी नजर आ रही हैं.

वैकल्पित लीडरशिप पर जोर

कुछ समय बीजेपी ने वैकल्पिक लीडरशिप को आगे लाने के विचार पर भी काम किया. कई नेता मानते हैं कि अगर केंद्रीय नेतृत्व राज्य नेतृत्व के बारे में फैसला करता और उस पर कायम पर कायम रहता, तो चुनावों से पहले पार्टी बेहतर हालत में होती. लेकिन शायद बीजेपी इससे घबराई हुई थी कि राजे विद्रोही या शहीद जैसी न बन जाएं. इलेक्शन अब करीब आठ हफ्ते ही दूर है. ऐसे में बीजेपी के पास एकमात्र विकल्प यही है कि वे राजे तो कैंपेन का नेतृत्व करने दें और बेहतर नतीजों की उम्मीद करे. कई बार झटका भी आपकी नई शुरुआत के लिए जरूरी होता है.

विधानसभा चुनाव के बाद राजस्थान की राजनीति कैसी शक्ल लेती है, यह देखना रोचक होगा. इतिहास इस बात की तरफ इशारा करता है कि जो पार्टी राज्य में जीतती है, वही लोक सभा चुनावों में भी हावी रहती है. लेकिन इस बार वोटर्स को लोक सभा चुनावों से पांच महीना पहले अपना गुस्सा निकालने का मौका मिला है. कोई आश्चर्य नहीं होगा, अगर राज्य सरकार को ठुकराने के बाद वोटर्स का प्यार मोदी के लिए फिर जग जाए.