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राजस्थान: गहलोत बनेंगे राहुल गांधी के सारथी या 'पायलट' उड़ाएंगे कांग्रेस का चुनावी जहाज

क्या राहुल गांधी अपने सबसे विश्वस्त गहलोत को जिम्मेदारी सौंपेंगे या फिर उन सचिन पायलट को जिन्हें साढ़े चार साल पहले राजस्थान में वसुंधरा के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए भेजा था

Vijai Trivedi

साल 1998 में जयपुर में जब राजभवन में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अशोक गहलोत का शपथ-ग्रहण समारोह होने वाला था और वे पहली बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे तो उनके अपने शहर जोधपुर से आए सैकड़ों कांग्रेसी कार्यकर्ता सरकार के खिलाफ नारेबाजी और पुलिस-प्रशासन के साथ धक्कामुक्की कर रहे थे. वजह थी कि वे सब कार्यकर्ता राजभवन में शपथ समारोह में शामिल होने के लिए जोधपुर और आस-पास के इलाकों से रातभर कर चल कर सुबह जयपुर पहुंच गए थे, लेकिन उनके पास समारोह में शामिल होने का कोई निमंत्रण नहीं था, इसलिए पुलिस प्रशासन उन्हें अंदर नहीं जाने दे रहा था जबकि वो समझते रहे थे कि अशोक जी तो उनके नेता और यह उनकी सरकार, फिर निमंत्रण पत्र की जरूरत क्या? बीजेपी के दिग्गज नेता भैरोंसिंह शेखावत को हटाकर सरकार बनाने से वैसे ही कार्यकर्ताओं में जोश ज्यादा था.

इस घटना का जिक्र इसलिए किया क्योंकि इससे गहलोत की लोकप्रियता समझ आती है. गहलोत जब 1974 में पहली बार राज्य में एनएसयूआई के अध्यक्ष बने और फिर 1985 में राजस्थान प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष तो उन्होंने न केवल संगठन में अपने लोग शामिल किए बल्कि संगठन में दर्जनों तरह के नए मोर्चा और ब्लॉक बना कर हजारों लोगों को कांग्रेस का नेता बना दिया और हर नौजवान कांग्रेसी को अपने इलाके में ताकत दिखाने का मौका मिल गया. जाहिर है कि गहलोत राजस्थान में खासतौर से कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में सबसे लोकप्रिय नेता हैं. केंद्र में कई बार मंत्री और राज्य में दो-दो बार मुख्यमंत्री रहे हैं.


लेकिन 2013 में चुनाव हारने के बाद कांग्रेस आलाकमान ने युवा नेता सचिन पायलट को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंप दी. पायलट 2009 में यूपीए सरकार में मंत्री बनाए गए थे, लेकिन 2014 का चुनाव वे अजमेर से हार गए. जब से उन्हें पार्टी ने राजस्थान की जिम्मेदारी सौंपी तब से वे वहां काम में लग गए और हाल में हुए लोकसभा की दो सीटों और विधानसभा की एक सीट के उप चुनाव में उन्होंने कांग्रेस को जीत दिलाई, ये तीनों ही सीटें बीजेपी के पास थीं.

विधानसभा इलाकों के हिसाब से देखें तो यह 17 विधानसभा सीटों पर जीत रही यानी लोगों को लगा कि पायलट का जादू चलने लगा है. इसी दौरान गुजरात और कर्नाटक में कांग्रेस का बेहतर प्रदर्शन करवा कर गहलोत जयपुर लौट गए.

हालांकि इसी प्रदर्शन के बाद उन्हें कांग्रेस के संगठन महासचिव की बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गईं, लेकिन उनका मन जयपुर में अटका दिखाई दिया क्योंकि इस बार वहां फिर कांग्रेस की सरकार बनने की संभावना उन्हें दिखने लगी.

जब इस साल के आखिर में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, ऐसे में कांग्रेस के दो दिग्गज नेताओं के बीच घमासान पार्टी के लिए परेशानी का सबब हो सकता है. पार्टी आलाकमान ने भले ही यह साफ किया हो कि मुख्यमंत्री के पद पर चुनाव नतीजों के बाद ही किया जाएगा यानी बिना किसी को सीएम कैंडिडेट बनाए पार्टी चुनाव लड़ेगी, लेकिन दोनों नेताओं में जोर आजमाइश साफ दिख रही है.

पायलट को पिछले चार साल लगातार राजस्थान में रहने का और उनके दिवगंत पिता राजेश पायलट के नाम का फायदा मिल सकता है, लेकिन प्रदेश के कांग्रेसी नेताओं का कहना है कि जब भी वसुंधरा सरकार के खिलाफ बड़े प्रदर्शन का मौका हो सकता था, उसका बेहतर इस्तेमाल सचिन पायलट नहीं कर पाए.

राजेश पायलट ( तस्वीर यूट्यूब से साभार )

उनके पिता राजेश पायलट भले ही राजस्थान से नहीं थे लेकिन जब राजीव गांधी ने उन्हें दौसा चुनाव लड़ने भेजा तब से वे राजस्थान के हो गए. याद आता है कि जब पायलट संचार मंत्री बने, उस वक्त टेलीफोन के लिए सालों साल इंतजार करना पड़ता था, लेकिन पायलट ने अपने संसदीय क्षेत्र के अलावा राजस्थान में भी बहुत से लोगों के यहां फोन लगवा दिया. उनकी दुर्घटना में मौत के बाद उनकी पत्नी रमा पायलट ने भी उस संदीय क्षेत्र की नुमाइंदगी की लेकिन सचिन 2009 में अजमेर से सांसद बने.

केंद्रीय मंत्री के तौर पर उनके खाते में सीएसआर यानी कंपनियों से कॉरपोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी फंड आया और उस पर उन्होंने काफी काम किया. दिल्ली में रहने वाले पत्रकारों को अक्सर उनके घर का सालाना किसान लंच याद आता है, जो राजेश पायलट ने शुरू किया था.

इसी सप्ताह सचिन राजस्थान प्रदेश कांग्रेस के परसराम मदेरणा, गिरधारी लाल व्यास और गिरिजा व्यास के बाद सबसे लंबे समय तक प्रदेश अध्यक्ष रहने वाले नेता हो गए हैं. मदेरणा छह साल, गिरधारी लाल व्यास सवा पांच साल और गिरिजा व्यास चार साल 9 महीने अध्यक्ष रही हैं. सचिन ने साढ़े चार साल पूरे कर लिए हैं, वैसे अशोक गहलोत तीन बार में करीब सात साल अध्यक्ष रहे. शेखावत सरकार के वक्त मदेरणा प्रदेश अध्यक्ष थे लेकिन जीत के बाद अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बनाए गए.

राजस्थान की राजनीति में अरसे से एक बार कांग्रेस और फिर बीजेपी की सरकार बनती आई है. 1998 में शेखावत के बाद गहलोत, साल 2003 में वसुंधरा राजे, फिर 2008 में गहलोत बने और 2013 में वसुंधरा राजे तो क्या इस बार फिर 2018 में सरकार बदल सकती है ?

क्या वसुंधरा इस राजनीतिक चक्र को तोड़ पाएंगी और क्या कांग्रेस के नेता सिर्फ़ इस भरोसे खुद के मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं. वसुंधरा राजे के पास फिलहाल 160 सीटें हैं, 23 सांसद हैं और केंद्र में नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी है. कांग्रेस को पहले इस चक्रव्यूह को तोड़ना होगा फिर सीएम की कुर्सी का नंबर आएगा.

दिल्ली में कांग्रेस के मुख्यालय में बरसों बरस तक बैठने वाले एक महासचिव और वरिष्ठ नेता ने मुझसे कहा था कि हमेशा थोड़ा फटा सा कुर्ता, सिलवटें वाला पायजामा, चेहरे पर पसीने की हल्की बूंदें और हवा में उड़ते खिचड़ी बाल के साथ गहलोत हमेशा ऐसी छवि पेश करते हैं मानो हर वक्त कांग्रेस की सेवा में लगे हों लेकिन जोधपुर के लोगों को भरोसा है कि एक जमाने तक पेशेवर जादूगर रहे अशोक जी का जादू इस बार भी चलेगा. बड़ा सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी अपने सबसे विश्वस्त गहलोत को जिम्मेदारी सौंपेंगे या फिर उन सचिन पायलट को जिन्हें साढ़े चार साल पहले राजस्थान में वसुंधरा के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए भेजा.

दिसंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों तक राजस्थान में अंगूरों का मौसम आ जाता है और शहर कस्बों में ठेलों पर भी अंगूरों की बहार दिखती है, लेकिन जरूरी नहीं कि ये अंगूर सबके लिए मीठे ही हों.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)