view all

राहुल तय करें पहले देश की राजनीति या उनकी अपनी 'विदेश नीति'

कांग्रेस के भीतर अब ये सवाल न उठने लगे कि राहुल आखिर सीरियस कब होंगे?

Kinshuk Praval

राष्ट्रपति चुनाव को भले ही विपक्ष अब दलित बनाम दलित और बीजेपी बनाम विपक्ष बता रहा हो. लेकिन इस कवायद में एक कमी सबको दिख रही है. वो कमी है कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की. कांग्रेस विपक्षी दलों के साथ राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार पर माथापच्ची कर रही थी और उसके भावी अध्यक्ष नानी के घर में छुट्टियां मना रहे हैं.

ऐसे में सवाल ये है कि जब विपक्ष के पास राष्ट्रपति के उम्मीदवार के बहाने एक महागठबंधन तैयार करने का मौका आया तो राहुल उस मौके से दूर क्यों हैं? आखिर क्यों राष्ट्रपति उम्मीदवार चुनने के लिये राहुल अपनी छुट्टियों में कटौती नहीं कर सके? क्या राहुल का ये रुख राजनीति की गंभीरता को हास्यास्पद बनाने के लिये काफी नहीं है?


राष्ट्रपति चुनाव के बहाने महागठबंधन का लंच

एक महीने पहले ही समूचा विपक्ष बीजेपी के खिलाफ लामबंद होना शुरु हो गया था.  26 मई को केंद्र की मोदी सरकार अपने तीन साल के कार्यकाल का जश्न मना रही थी तब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के घर 17 दलों के नेता राष्ट्रपति चुनाव पर महागठबंधन के लिये इकट्ठा हुए थे. सोनिया ने दोपहर के भोज में सबको बुलाया था. राहुल भी उस भोज में मेजबान की भूमिका में थे. लेकिन जब वक्त आया निर्णायक फैसले का तब राहुल विदेश कूच कर गए.

सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष हैं और जाहिर तौर पर उनकी मौजूदगी ही बड़े फैसलों के लिये काफी है. लेकिन रणनीति के तौर पर कांग्रेस के नंबर दो युवराज को भी ऐसे मौके पर अपने रणनीतिक कौशल को सामने रखना चाहिये ताकि संदेश ये साफ जा सके कि राहुल कांग्रेस को लेकर और विपक्ष की एकता के प्रति कितने गंभीर हैं.

लेकिन राहुल का यही 'स्टाइल ऑफ पॉलिटिक्स' उन्हें लोगों के लिये हंसी का पात्र बना जाता है.

युवराज से महाराज बनने में ज्यादा दिन नहीं दूर

कांग्रेस में युवराज राहुल के 'महाराज' बनने की औपचारिकताएं बाकी हैं. ऐसा तय माना जा रहा है कि 15 अक्टूबर को राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बन सकते हैं. कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में पार्टी के इलेक्शन पर फैसला लिया गया था. जबकि इससे पहले पिछले साल नवंबर में हुई सीडब्लूसी की बैठक में सभी बड़े नेताओं ने एक सुर में राहुल को अध्यक्ष बनाने पर सहमति जताई थी.

एके एंटनी ने प्रस्ताव पेश किया तो मनमोहन सिंह ने समर्थन किया था. जबकि सोनिया बीमारी की वजह से बैठक में शामिल नहीं हुई थी. 130 साल के कांग्रेस के इतिहास में पहली बार इस तरह का कोई प्रस्ताव पास किया गया था. यानी राहुल की ताजपोशी को लेकर अगर-मगर की बात ही नहीं. जाहिर तौर पर राहुल के लिये अध्यक्ष बनना संगठन के चुनाव की उठापटक के बीच से गुजरना नहीं है.

राहुल कब बनाएंगे अपनी अलग पहचान?

विरासत में मिला राजनीतिक परिवार ही उनकी असली पहचान है. लेकिन इन सबके बीच राहुल के लिये ये जरूरी है कि वो खुद को इस तरह स्थापित करें कि उनमें देश की जनता को एक समर्पित राजनेता दिखे. राहुल ने अपने परिवार के राजनेताओं की तरह अबतक अपनी कोई खास पहचान नहीं बनाई है. नेहरू, इंदिरा और राजीव की अपने अपने फैसलों और व्यक्तित्व की वजह से खास पहचान थी. सोनिया ने भी इटली मूल के विरोध के मुद्दे के बावजूद राजनीतिक रूप से अपरिपक्व होते हुए भी सियासत में अपनी गंभीर पहचान बनाई. समय के साथ वो राजनीतिक रूप से परिपक्व होती चली गईं. प्रियंका की राजनीतिक समझ के चलते ही उन्हें भी राजनीति में लाने के नारों का शोर गूंजा.

लेकिन राहुल जो अघोषित होते हुए भी कांग्रेस के भविष्य के घोषित अध्यक्ष हैं वो राष्ट्रपति चुनाव के लिये उम्मीदवार के चयन के वक्त देश में नहीं है. ये सवाल तो दूसरे विपक्षी दलों को भी भीतर ही भीतर कचोट सकता है. क्योंकि अब समूचे विपक्ष के पास भी सवाल राजनीतिक वजूद से जुड़ा हुआ है.

कांग्रेस को राहुल से करिश्मे की उम्मीद 

बीजेपी के पॉलिटिकल मूव के सामने कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष अपनी अपनी रणनीति में बार बार नाकामयाब होता दिख रहा है. मुद्दे हाथ आने के बावजूद विपक्ष की कमजोर रणनीति उन्हें बैकफुट पर धकेल देती है.

देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी रही कांग्रेस की उम्मीद राहुल गांधी पर किसी करिश्मे की आस में टिकी है. राहुल आक्रामक तरीके से किसी भी मुद्दे को सबसे पहले हाईजैक तो कर लेते हैं. लेकिन बाद में अपना रोल भी खुद ही कम भी कर जाते हैं. अब जब उन्हें बतौर अध्यक्ष कांग्रेस में एक नई जान फूंक कर विपक्ष के महागठबंधन को तैयार करना है तो राहुल गांधी विदेश में हैं.

राहुल की विदेश यात्राओं की टाइमिंग पर सवाल

हर बार सवाल उनकी टाइमिंग पर उठते आए हैं. मध्य प्रदेश किसान आंदोलन के वक्त भी राहुल ने शुरूआती मोर्चा संभाला. मंदसौर कूच को लेकर सुर्खियां बटोरीं लेकिन सुलगते आंदोलन को बीच में छोड़कर ट्वीट कर विदेश निकल लिये.

उनके पास किसान आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन में बदलने का मौका था. उनके पास किसान आंदोलन के नाम पर विपक्ष को एकजुट करने का मौका था. लेकिन राहुल किसी फिल्म में गेस्ट अपीयरेंस की तरह नजर आ कर वापस प्लेबैक में पहुंच गए. जबकि देश के कई हिस्सों में किसान कर्जमाफी से लेकर स्वामीनाथन आयोग की मांगों को लागू करने के लिये आंदोलन में जुटे हैं.

सवाल उनकी विदेश यात्राओं का नहीं है, क्योंकि ये उनकी निजी जिंदगी का मामला है. सवाल उस रणनीतिक सोच का है जो देश के बड़े मुद्दों को भुनाने में नाकामयाब हो जाती है.

नोटबंदी के मुद्दे पर भी राहुल ने किसान आंदोलन का ही रोल अदा किया था. नोटबंदी के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन करने के बावजूद नए साल के जश्न के लिये विदेश रवाना हो गए.

जुलाई में संसद का सत्र शुरू होने वाला है. राहुल पूरी तरह फ्रेश हो कर नए अंदाज में वहां दिखेंगे. उनके बयान भूचाल लाने का दावा करेंगे. लेकिन राहुल इसी तरह ऐन मौके पर नदारद होते रहे तो फिर एक दिन विपक्ष के साथ उनकी अपनी पार्टी के लोग भी उन्हें गंभीरता से लेना छोड़ सकते हैं. अब राहुल को ये तय करना है कि पहले देश की राजनीति या फिर उनकी अपनी विदेश नीति.