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2018 में राहुल गांधी के सामने चुनौतीः कैसे बढ़ाएंगे अपना और पार्टी का 'कद'

2019 के चुनाव में ज्यादा दिन नहीं रह गए हैं. उससे पहले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में विधानसभा चुनाव हैं, ये सेमीफाइनल की तरह होंगे. मुकाबला दिलचस्प बनाने के लिए राहुल गांधी को मेहनत ज्यादा करनी पड़ेगी

Syed Mojiz Imam

नया साल राहुल गांधी के सामने नई चुनौतियां लेकर आया है. राहुल गांधी को खुद को स्थापित करने के लिए कांग्रेस के नेताओं के साथ-साथ दूसरी पार्टी के नेताओं को भी अपने साथ लाना पड़ेगा. राहुल के साथ दिक्कत है कि वो अभी नरेंद्र मोदी के मुकाबले लाइट वेट हैं. इसलिए गठबंधन करना उनकी और कांग्रेस की मजबूरी है. लेकिन गठबंधन के अलावा जो नेता अभी किसी राजनीतिक दल से ताल्लुक नहीं रखते उनको साथ खड़ा करना भी कांग्रेस के लिए जरूरी है.

लेकिन पार्टी के लिए यह सब इतना आसान नहीं है. क्योंकि बीजेपी की निगाह भी ऐसे नेताओं पर है, जो 2019 के लोकसभा चुनाव में उसके लिए फायदेमंद साबित हो सकते हैं. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह इस मामले में माहिर खिलाड़ी हैं. गुजरात चुनाव में कांग्रेस को जीत के मुहाने पर ला खड़ा करने वाले नेता कांग्रेस के नहीं बल्कि सामाजिक आंदोलन से आए नेता थे जो अपने कारणों से बीजेपी के खिलाफ थे.


कांग्रेस के नेता शकीलुज़्जमा अंसारी का कहना है कि 'राहुल गांधी में क्षमता भी है और उनकी नीयत भी साफ है. वो युवाओं को मेनस्ट्रीम में लाना चाहते हैं. जिसके लिए वो सामाजिक आंदोलन कर रहे युवाओं के साथ है'. इसके बाद भी कांग्रेस बीजेपी के 22 साल के राज को खत्म नहीं कर पाई. राहुल गांधी को राजनीतिक क्षेत्र के युवा नेताओं के साथ सामंजस्य बैठाना होगा. वहीं सामाजिक आंदोलन के जरिए अपने आप को स्थापित कर रहे नेताओं को भी कांग्रेस के साथ खड़ा करना होगा.

राहुल गांधी के ऊपर बीजेपी के प्रवक्ता ज़फरूल इस्लाम तंज कसते हुए कहते हैं कि ‘राहुल गांधी का ये दौर बुलबुले की तरह है जो जल्दी ही फूट जाएगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पहले से ज्यादा बढ़ी है.’

जिग्नेश, हार्दिक अल्पेश की तिकड़ी

गुजरात में ये तीनों ही युवा नेता सामाजिक आंदोलन की वजह से खड़े हुए. ये तीनों कांग्रेस के साथ थे. जिग्नेश तो निर्दलीय विधायक भी बन गए. जबकि अल्पेश कांग्रेस के साथ होकर विधानसभा पहुंचे. गुजरात में बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने में इन तीन लड़कों का अहम योगदान रहा है. लेकिन इसके बाद भी कांग्रेस बीजेपी को हराने मे नाकाम रही. हालांकि कांग्रेस इसको हार में भी अपनी जीत मान रही है.

हालांकि जीत का ये पैमाना कांग्रेस के समझ में आ रहा होगा. लेकिन लोकतंत्र में जीत का मतलब बहुमत होता है. बहुमत की सरकार बनती है. कांग्रेस तमाम कोशिशों के बाद भी राह में अटक गई. जिग्नेश, अल्पेश और हार्दिक से कांग्रेस को फायदा हुआ. कुछ इस तरह का सामजंस्य राहुल गांधी को हर राज्य में बैठाना होगा.

हार्दिक पटेल-अल्पेश ठाकोर-जिग्नेश मेवाणी की युवा तिकड़ी ने गुजरात चुनाव में बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था

यूपी-बिहार-झारखंड

हिंदी बेल्ट के तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड को मिलाकर तकरीबन 134 सीटें हैं. जिसमें बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए के पास 115 लोकसभा सांसद हैं. यानी यही तीन राज्य हैं जिसकी वजह से बीजेपी को प्रचंड बहुमत वाली सत्ता मिली है. यहीं पर कांग्रेस कमजोर कड़ी है. यूपी में समाजवादी पार्टी (एसपी) के साथ कांग्रेस का विधानसभा का गठबंधन फेल हो गया है. इसलिए किसी तीसरे दल या नेता को जोड़ने की मजबूरी है.

जो दल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के साथ आ सकते हैं उसमें अपना दल की अनुप्रिया पटेल एक महत्वपूर्ण सहयोगी हो सकती हैं. अनुप्रिया युवा हैं लेकिन सवाल ये है कि वो अभी बीजेपी के साथ गठबंधन में हैं. उनको राहुल गांधी कैसे अपने साथ ला सकते हैं. अनुप्रिया के आने से समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के पास कुर्मी वोट जुड़ सकता है. हालांकि एसपी ने नरेश उत्तम को प्रदेश की बागडोर दे रखी है. लेकिन कुर्मी वोट पर उनका प्रभाव वैसा नहीं है जो कभी बेनी प्रसाद वर्मा का था.

इसी तरह बिहार में आरजेडी के तेजस्वी यादव के साथ राहुल गांधी के संबंध ठीक हैं. गठबंधन हो भी जाएगा क्योंकि आरजेडी के सामने भी मजबूरी है. लेकिन अतिरिक्त वोट एनडीए के विरोध में कहां से लाएंगे. हालांकि माना जा रहा है कि कन्हैया कुमार बेगूसराय से सीपीआई के उम्मीदवार हो सकते हैं. लेकिन ये काफी नहीं है. कांग्रेस को चिराग पासवान के राजनीतिक चाल पर भी गौर करना पड़ेगा, जिनका कहना रामविलास पासवान मान रहे हैं.

बिहार कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता ज्योति सिंह का कहना है कि जो युवा सिस्टम के खिलाफ लड़ रहे हैं उनको तरजीह देना कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण है. तभी कांग्रेस के पक्ष में 2004 जैसा माहौल बन सकता है. कमोवेश यही स्थिति झारखंड में है जहा हेमंत सोरेन को साथ लाना होगा. वो युवा हैं, झारखंड के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं. कांग्रेस ने झारखंड की कमान युवा अजॉय कुमार के हाथ में दे रखी है. जिनके जिम्मे झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) को साथ लेकर चलने की चुनौता रहेगी.

महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ की सियासत

महाराष्ट्र जो अभी दलित आंदोलन का केंद्र बना हुआ है, वहां कांग्रेस के पास पैर जमाने का मौका है. लेकिन बिना राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के ये राह आसान नहीं है. एनसीपी की नेता सुप्रिया सुले अभी युवा हैं, लोकसभा में सांसद हैं. कांग्रेस ने शरद पवार की पार्टी के साथ 10 साल सरकार केंद्र में चलाई है. लेकिन अब रिश्ते पहले जैसे नहीं रहे. इसलिए इस गठबंधन को जिंदा करने का काम तो करना पड़ेगा. लेकिन आरपीआई के मुकाबले भीमा-कोरेगांव के पीछे के दलित चेहरा प्रकाश अंबेडकर के साथ की कांग्रेस को जरूरत है. क्योंकि महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना मजबूती के साथ खड़े हैं. महाराष्ट्र की 48 लोकसभा सीटों में से 41 सीट एनडीए के पास है.

वहीं मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पास नेता ज्यादा हैं. जिनके बीच आपसी तालमेल कराना राहुल गांधी के सामने एक चुनौती है. छत्तीसगढ़ में बिना अजित जोगी के कांग्रेस के सामने बीजेपी से लड़ना आसान नहीं है. यहां अमित जोगी के साथ कांग्रेस के नेताओं को तालमेल बैठाना होगा. हालांकि सूत्र बता रहे हैं कि कांग्रेस के नेता अमित जोगी से बातचीत कर चुके हैं.

दक्षिण भारत में कांग्रेस हाशिए पर

कर्नाटक और केरल को छोड़कर दक्षिण भारत में कांग्रेस हाशिए पर है. खास कर तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में कांग्रेस लोकसभा में काफी कमजोर है. आंध्र प्रदेश में कांग्रेस 2004 से 2014 के बीच काफी मजबूत थी. लेकिन टीआरएस के केटी रामाराव और वाईएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी को कांग्रेस को साथ लाना होगा, क्योंकि टीडीपी एनडीए के साथ है. टीआरएस पहले यूपीए के साथ रह चुका है. तेलंगाना के वर्तमान सीएम के चंद्रशेखर राव यूपीए सरकार में मंत्री भी थे. वहीं डीएमके के स्टालिन अभी तो कांग्रेस के साथ दिखाई दे रहे हैं. लेकिन किस ओर जाएंगे ये कहना मुश्किल है.

पूर्व और नॉर्थ इस्ट में कांग्रेस

असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में बीजेपी की सरकार है. मेघालय और त्रिपुरा में इस साल चुनाव होने वाले हैं. मेघालय में बीजेपी ने कांग्रेस के नेताओं को तोड़ना शुरू कर दिया है. ऐसे में कांग्रेस को अगाथा संगमा का सहारा लेना पड़ सकता है. नॉर्थ इस्ट भी राजनीतिक तौर पर बीजेपी का गढ़ बनता जा रहा है. बंगाल और ओडिशा में कांग्रेस के सामने खुद को खड़ा करने की चुनौती है. ममता बनर्जी और लेफ्ट के बीच कांग्रेस को ये तय करना होगा कि उसे किसके साथ जाना है.

जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, उत्तराखंड में क्या हाल

जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के उमर अब्दुल्ला के साथ कांग्रेस की सरकार बन चुकी है. इसलिए कांग्रेस के पास विकल्प है. हरियाणा में कुलदीप विश्नोई वापस कांग्रेस के साथ आ चुके हैं. लेकिन अगर कुलदीप को कांग्रेस ने तरजीह सही तरह से ना दी, तो जिस तरह का उनका मिजाज है वो फिर से अलग खेमा बना सकते हैं. या कांग्रेस उभरते हुए नेता दुष्यंत चौटाला के साथ किसी तरह से अंदरूनी तालमेल करे.

उत्तराखंड में पार्टी की हालत बहुत बुरी है. 2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजे बता रहे हैं कि वहां सब कुछ ठीक नहीं है. जाहिर है कि पार्टी को दोबारा खड़ा करने के लिए नए लोगों को मौका देना पड़ेगा.

राह आसान नहीं...

कांग्रेस नेता राहुल गांधी को युवा नेताओं को पूरे देश में लाना आसान नहीं है,  क्योंकि क्षेत्रीय दलों की मजबूरी भी है और मकसद भी अलग है. वरिष्ठ पत्रकार अजीत द्विवेदी कहते हैं, ‘जो लोग विरासत की राजनीति कर रहे हैं वो अपनी लीक से हटकर राहुल गांधी के साथ जाएंगे ऐसी संभावना ज्यादा नहीं है क्योंकि ऐसे लोग पहले अपना फायदा देखते हैं. लेकिन जो लोग सामाजिक आंदोलन के जरिए राजनीति में आ रहे हैं वो बीजेपी के विरोध की वजह से राहुल गांधी के साथ आ सकते है.’

2019 के आम चुनाव में ज्यादा दिन नहीं रह गए हैं. उससे पहले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में विधानसभा चुनाव हैं, जो सेमीफाइनल की तरह होंगे. मुकाबला दिलचस्प बनाने के लिए राहुल गांधी को मेहनत ज्यादा करनी होगी. लेकिन कांग्रेस को पहले गुजरात की खुमारी से बाहर आना होगा.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)