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क्या नरेंद्र मोदी का विकल्प बन गए हैं राहुल गांधी?

राहुल गांधी को जिस तरह से गुजरात चुनाव के बाद से संदर्भित किया जा रहा है और कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उनके नए अवतार की चर्चा हो रही है, उसे लेकर ऐसे पर्यवेक्षक आश्चर्यचकित भी है

Sandip Ghose

देश की राजनीतिक मूड पर एक थिंक टैंक द्वारा किए गए एक हालिया सर्वेक्षण ने बीजेपी विरोधी खेमे को बहुत उत्साहित कर दिया है. यह सर्वे बताता है कि पिछले कुछ महीनों में नरेंद्र मोदी की रेटिंग में तेज गिरावट आई है, जबकि राहुल गांधी की अपनी लोकप्रियता में सुधार किया है.

नरेंद्र मोदी को ले कर पैदा हुई निराशा मध्य भारत में अधिक स्पष्ट है. ऐसा लगता है कि प्रौढावस्था में प्रवेश कर चुके लोग और मध्यम वर्ग, वादे और अब तक किए गए काम के बीच के अंतर को ले कर सबसे अधिक परेशानी महसूस कर रहे हैं. हालांकि, यह नहीं मालूम है कि ये फीडबैक कैसे प्राप्त हुआ है. लेकिन, बीजेपी और पार्टी का सोशल मीडिया हैंडल इससे इनकार कर रहे हैं. उन्होंने इस सर्वे को राजनीति से प्रेरित और धूर्ततापूर्ण बता कर खारिज कर दिया है. हालांकि, कोई भी नरेंद्र मोदी के असली समर्थकों के बीच पैदा हो रही प्रारंभिक निराशा को समझ सकता है.


सहज विकल्प?

कई तटस्थ पर्यवेक्षक राहुल 2.0 के राजनीतिक यात्रा में आई गति को ले कर कौतूहल की स्थिति में है. राहुल गांधी को जिस तरह से गुजरात चुनाव के बाद से संदर्भित किया जा रहा है और कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उनके नए अवतार की चर्चा हो रही है, उसे लेकर ऐसे पर्यवेक्षक आश्चर्यचकित भी है. विश्लेषक नरेंद्र मोदी के कमजोर होते आभामंडल के कारणों को समझ सकते हैं, फिर भी वे राहुल गांधी की बढ़ती राजनीतिक चमक की व्याख्या कर पाने में असमर्थ है, इन तथ्यों के बावजूद कि राहुल गांधी लगातार गलतियां करते है और उनमें राजनीतिक परिपक्वता की स्पष्ट कमी है.

यह सच है कि पिछले कुछ समय से नरेंद्र मोदी कई विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहे है, विभिन्न राज्यों में बीजेपी सरकारों के खिलाफ एंटी-इनकमबेंसी का माहौल है. फिर भी, राहुल गांधी अभी तक वो राजनीतिक कद नहीं बना पाए है, जो उन्हें नरेंद्र मोदी का सहज विकल्प बना सके. दरअसल, ममता बनर्जी जैसी क्षेत्रीय क्षत्रप बीजेपी के खिलाफ एक मजबूत विपक्ष बनाने की कोशिश कर रही हैं. उन्होंने साफ कहा है कि अगर महागठबंधन अगले लोकसभा में सरकार बनाने की स्थिति में आता है, तो ऐसी स्थिति में कांग्रेस खुद को इसका सहज लीडर नहीं मान सकती है.

2014 में, नरेंद्र मोदी 'चेंज' (बदलाव) और 'अच्छे दिन' के संदेश के साथ मतदाताओं के पास गए थे. इसके विपरीत, राहुल गांधी सिवाए मोदी, बीजेपी और आरएसएस की खिंचाई करने के अलावा कोई भी वैकल्पिक दृष्टिकोण पेश नहीं कर सके है. राहुल गांधी ये काम 'डिफ़ॉल्ट सेटिंग' के आधार पर करते है और वह भी आधा सच या अपमानजनक आरोपों के साथ. इसलिए, ये सवाल अभी भी है कि आखिर राहुल गांधी के पक्ष में ऐसी क्या चीज है, जो काम कर रही है?

एंग्री यंगमैन!

राहुल गांधी का सबसे बेहतर और बुद्धिमतापूर्ण निर्णय ये रहा है कि उन्होंने खुद को कम्युनिकेशन, पीआर और सोशल मीडिया विशेषज्ञों की एक टीम को सौंप दिया है. कहा जाता है कि इस टीम का नेतृत्व सैम पित्रोदा जैसे शुभचिंतक कर रहे हैं. कांग्रेस में अब एक एनालिटिक्स सेल है. कैम्ब्रिज एनॉलिटिका प्रकरण के जरिए आम लोगों ने भी इस तथ्य को जाना और समझा. यह संभव है कि यह अन्य पेशेवर चुनाव रणनीतिकारों के साथ काम कर रहा हो. राहुल जाहिर तौर पर एक स्क्रिप्ट के हिसाब से अभिनय कर रहे हैं. आलोचकों को भले उनके इस अभिनय और कंटेंट में गलती मिली हो, लेकिन इसने प्रभाव डालना शुरू कर दिया है, कम से कम गुजरात और कर्नाटक से तो यह साबित हो ही रहा है.

हालांकि, उनके मंदिर दौरे और दलितों को लुभाने के तरकीबों का नतीजा सामने आना बाकी है. लेकिन उनकी गढ़ी गई एंग्री यंग मैन की छवि, मोदी पर अपने धनी दोस्तों के लिए लोगों का विश्वास तोड़ने के आरोप से कुछ हद तक उन पर असर हो रहा है, जिन्होंने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में लगातार चार बार से बीजेपी को वोट दिया था. कुल मिला कर वे उच्च स्तर की ऊर्जा प्रदर्शित कर रहे है, गंभीरता दिखा रहे है. नतीजतन, इससे वे पुराने वफादार कांग्रेसी भी प्रभावित हो रहे हैं, जिन्होंने कभी उनसे आस छोड़ दी थी.

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कुछ लोगों को राहुल गांधी का सोशल मीडिया पर होना एलिट लग सकता है. यह शायद अंग्रेजी बोलने वाले सुसंस्कृत शहरी मतदाताओं के बीच पारंपरिक कांग्रेस मतदाताओं की मान्यता हो. एक चतुराई भरे कदम के तौर पर अब जनता तक पहुंचने के लिए व्हाट्सएप पर वायरल कैंपेन का उपयोग किया जा रहा है.

सत्ता के लिए कुछ भी करेगा

मोदी के फैसले से उपेक्षित कई पुराने कांग्रेस समर्थक मीडिया भी साथ आ गया है. बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व पर भ्रष्टाचार के आरोप के लिए 'स्कूप्स' पैदा किए जा रहे है. नरेंद्र मोदी के साथ नीरव मोदी की तुकबंदी एक नई चतुराई है, जो पहले कांग्रेस में नहीं दिखती थी.

इसके अलावा, इसने पार्टी के पुरानी इको-सिस्टम को सक्रिय किया है. उनके बीच बीजेपी को हराने की इच्छा इतनी जबरदस्त है कि बीजेपी को उस 'बुराई' के रूप में चित्रित किया गया है, जिसे हर कीमत पर समाप्त किया जाना चाहिए. उस उद्देश्य को पाने के लिए मायावती या लालू यादव के भ्रष्टाचार को भी नजरअंदाज किया जा सकता है. कर्नाटक में अवसरवादी कदम उठाए जा सकते है और शपथ ग्रहण के मौके पर सीपीआईएम और तृणमूल, बीएसपी और एसपी, जेडीयू और आरजेडी जैसे दुश्मन एक साथ एक मंच पर आ सकते है.

आक्रामक कांग्रेस, रक्षात्मक बीजेपी

कांग्रेस के पास हमेशा से वफादारों की एक फौज रही है. खासतौर पर सेवानिवृत्त नौकरशाह, खुफिया अधिकारी, राजनयिक और शिक्षाविद, जो अपने पुनरुत्थान के लिए कांग्रेस को समर्थन दे कर खुश है. इसके अलावा, कानूनी जगत में भी कांग्रेस का एक बड़ा आधार है. इसका लोया मामले, ज्यूडिसियरी रिवॉल्ट और सीजेआई के खिलाफ महाभियोग में अच्छा इस्तेमाल किया गया था. इससे बीजेपी विरोधी भावनाओं को मजबूती देने में मदद की थी.

राहुल की एक कमजोरी वाला क्षेत्र है, राजनीतिक कौशल. लेकिन, यहां अहमद पटेल, गुलाम नबी आजाद और अशोक गहलोत जैसे पुराने परिवार के शुभचिंतक उनके आसपास घूमते दिखाई देते है, जैसाकि गुजरात और कर्नाटक में दिखा. दिग्विजय सिंह को हटा दिया गया है लेकिन कमलनाथ आगे आए हैं. ये आराम से कहा जा सकता है कि शतरंज की ये चाल निश्चित रूप से सोनिया गांधी के इशारे पर चली गई होंगी.

अब भी मोदी अकेले

इसके विपरीत, बीजेपी कैंपेन लड़खड़ा रहा है. वे कांग्रेस की नकारात्मक प्रचार को भेद नहीं पा रहे है और न ही सरकार की उपलब्धियों की मार्केटिंग कर पा रहे है. ऐसा लगता है कि बीजेपी के सोशल मीडिया सेल ने 2014 में दिखाए गए उत्साह को खो दिया है. वे अक्सर रक्षात्मक नजर आने लगे हैं.

ट्रोल-सेना से मदद नहीं मिलती हैं. वे कभी-कभी बीजेपी के खिलाफ ही काम कर जाते है और निष्पक्ष आवाज पर आक्रमण करने लगते है. ताजा उदाहरण वरिष्ठ नेता और नरेंद्र मोदी कैबिनेट की सबसे सफल मंत्री सुषमा स्वराज का है.

उज्ज्वला जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की सफलता का विज्ञापन भी अब संतृप्ति की अवस्था तक पहुंच चुका है, जहां से इसका प्रभाव अब घटने लगा है.

यह सब 1975 के आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सरकार के सरकारी प्रोपेगेंडा जैसा दिखने लगा है. चूंकि सरकार अब चुनाव के नजदीक पहुंच गई है, इसलिए अब पूरी जिम्मेवारी प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय पर आ गई है.

2014 में मोदी अकेले चैलेंजर थे. यूपीए सरकार के खराब रिकॉर्ड को देखते हुए, वह आशा की किरण और मसीहा नजर आ रहे थे. अब मोदी को शासन और अभियान, दोनों का प्रबंधन करना है.

नरेंद्र मोदी पूरे राजनीतिक खेल को हमेशा से एक नए स्तर पर ले जाते रहे हैं. वे मीडिया की बजाए सीधे मतदाताओं तक पहुंचते है. मन की बात, नमो एप्प पर पार्टी कार्यकर्ताओं और सरकारी योजना के लाभार्थियों से बात या वेबिनार (वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग) के जरिए, वे सीधे मतदाताओं तक पहुंचते हैं. अब, इस सब के जरिए मोदी स्थिति को अपने अनुकूल बना पाते है या नहीं, इसका पता 2019 में ही चलेगा. जाहिर है, वे एक राजनेता है, उनके पास तुरुप के कई पत्ते हो सकते है.

फिलहाल, एक सर्वेक्षण चुनाव परिणाम तय नहीं करता है. खेल अभी शुरू हुआ है.