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राहुल की ताजपोशी: नेतृत्व परिवर्तन से डर रहे हैं सोनिया के वफादार

राहुल गांधी की ताजपोशी का मामला अभी भी अधर में लटका हुआ है.

Saroj Nagi

नवंबर 2016 में जैसे ही कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने सर्वसम्मति से पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी को संगठन में सबसे ऊंचे पद पर बिठाने की पेशकश की, तभी से कांग्रेस नेताओं के मूड में एक किस्म का बदलाव देखा जा रहा है.

वरिष्ठ पार्टी नेता ये सुझाव देने में जुटे हैं कि बीमार और बुजुर्ग हो चलीं पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को अब फौरन इस बात पर विचार करना चाहिए.


चार महीने बीतने को हैं, लेकिन राहुल गांधी की ताजपोशी का मामला अभी भी अधर में लटका हुआ है. ये ऐसा कदम है जो बेहद अनिवार्य है. लेकिन इसके पूरा नहीं होने से कई तरह की आशंकाएं भी पैदा हो रही हैं.

कांग्रेस में पार्टी अध्यक्ष की चिंता

साल 2004 से ही राहुल गांधी सक्रिय राजनीति में कूद चुके हैं.

साल 2004 से ही राहुल गांधी सक्रिय राजनीति में कूद चुके हैं. साल 2011 में जब किसी अज्ञात बीमारी की वजह से सोनिया गांधी विदेश गई हुई थीं तब से लगातार वो अपनी जिम्मेदारियां राहुल पर हस्तानांतरित भी करतीं जा रहीं हैं.

इन चार महीनों के दौरान बहुत कुछ बदलता दिख रहा है. यहां तक कि नेता और समर्थक जिन्हें राहुल गांधी और उनकी नेतृत्व क्षमता पर भरोसा नहीं था. वो भी अमेठी से 46 वर्षीय इस सांसद को अब ‘बेनिफिट ऑफ डाउट’ दे रहे हैं. तो इस बात की उम्मीद भी जता रहे हैं कि राहुल गांधी की ताजपोशी से 132 साल पुराने संगठन से गांधी ब्रांड का जुड़ाव बना रह सकेगा.

इतना ही नहीं इससे कांग्रेस समर्थकों को एकजुट रखा जा सकेगा. तो इससे संगठन में एकता आएगी और किसी दिन पार्टी, बीजेपी का मुकाबला करने को तैयार हो सकेगी. लेकिन पार्टी में अब ऐसा माहौल नहीं रहा.

दरअसल, पार्टी में अंदर भारी अंसतोष है और एक तरह की बेचैन करने वाली खामोशी भी जो अपने उफान पर है. यहां तक कि पार्टी के कई नेता सिर्फ वक्त बीतने का इंतजार कर रहे हैं.

कांग्रेस अध्यक्ष से अपनी करीबी के लिए मशहूर लेकिन अब नेतृत्व परिवर्तन से चिंतित, कांग्रेस के एक नेता ने कहा कि जब तक सोनिया गांधी पार्टी की अध्यक्ष बनी रहती हैं हम लोग सभी उनके साथ हैं, लेकिन जैसे ही राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाया जाएगा, पार्टी में बिखराव शुरू हो जाएगा.

बीजेपी पहले से ही रणनीति बनाने में लग गई है

अमित शाह के साथ पीएम मोदी

पहले से ही बीजेपी उन नेताओं पर डोरे डालना शुरू कर चुकी है जो पार्टी के लिए वोट जुटा सकते हैं. बीजेपी ने ऐसा असम विधानसभा चुनाव में किया है. तो हाल ही में संपन्न हुए उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और मणिपुर में विधानसभा चुनावों के दौरान भी बीजेपी ऐसा करती दिखी.

दो राय नहीं कि इस रणनीति को बीजेपी महाराष्ट्र समेत ओडिशा में भी अमल में ला सकती है. क्योंकि महाराष्ट्र में अगर बीजेपी के संबंध शिवसेना के साथ अच्छे नहीं हैं. तो ओडिशा में सत्ताधारी बीजेडी के अंदर भारी तनाव देखा जा रहा है. जबकि हाल ही में हुए स्थानीय चुनावों में बीजेपी ने वहां बढ़िया प्रदर्शन किया है.

ऐसा कुछ नहीं है जिससे कांग्रेसियों में इस बात को लेकर उम्मीद जगाई जा सके कि राहुल की ताजपोशी से पार्टी को राजनीतिक, संगठनात्मक या फिर चुनावी फायदा होगा. क्योंकि पार्टी का प्रदर्शन पिछले कुछ सालों से लगातार गिरता जा रहा है. साल 2013 के बाद से ही पार्टी को कई राज्यों में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा है.

राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, हरियाणा, असम, गुजरात, झारखंड, पश्चिम बंगाल, जम्मू एवं कश्मीर, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर समेत गोवा के चुनावों में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है.

गठबंधन के सहारे सत्ता में कांग्रेस

देश के ज्यादातर हिस्सों में सियासी तौर पर कमजोर हो चुकी कांग्रेस फिलहाल पांच राज्यों – पंजाब, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मेघालय और मिजोरम - में सत्ता में है. तो बिहार में कांग्रेस सत्ताधारी पार्टी के साथ गठबंधन के बल पर सत्ता में बनी हुई है.

कभी देश के ज्यादातर हिस्सों में कांग्रेस का विस्तार था. लेकिन क्षेत्रीय पार्टियों और बीजेपी की लगातार मजबूत होती सियासी जमीन के चलते कांग्रेस का भारी नुकसान हुआ है. इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे ने भी कांग्रेस की रही सही ताकत को नुकसान पहुंचाया है. 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 15 राज्यों में एक भी सीट नहीं जीत सकी तो लोकसभा में कांग्रेस के सिर्फ 44 सांसद हैं.

चुनावों में लगातार होने वाली हार कांग्रेस के लिए किसी झटके से कम नहीं है. लेकिन जो बात पार्टी के आत्मविश्वास को हिलाती है वो ये कि इस हार के बावजूद पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने समस्या से निपटने के लिए कोई कदम नहीं उठाया.

पार्टी में कोई बदलाव की उम्मीद नहीं 

राहुल गांधी- अजय माकन Getty Images)

हर एक चुनावी हार के बाद शीर्ष नेतृत्व ने आत्मविश्लेषण के साथ-साथ पार्टी में सर्जरी की बात कही. संगठनात्मक बदलाव के बारे में उम्मीद जगाई. यहां तक कि पार्टी को फिर से खड़ा करने की चुनौती स्वीकार करने की बात कही. लेकिन पार्टी में बदलाव के लिए किसी तरह का कोई कदम उठता नहीं दिखा.

यहां तक कि लोकसभा चुनावों में करारी शिकस्त के बाद एंटोनी कमेटी ने राहुल गांधी के नेतृत्व की नाकामी को छोड़कर पार्टी के खराब प्रदर्शन के लिए हर दूसरे कारणों को जिम्मेदार बताया था. जबकि ज्यादातर पार्टी नेता राहुल गांधी को ही इसके लिए जिम्मेदार मानते थे.

कांग्रेस के कई नेता तो अमेठी सांसद को नाकाम बताने में भी पीछे नहीं रहे. यहां तक कई नेताओं ने उन्हें जोकर और उससे भी ज्यादा बुरा कहा. जबकि राहुल गांधी ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी से चुनावी हार के बाद बयान दिया था कि वो कांग्रेस में ऐसा बदलाव लाएंगे “जिसके बारे में कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा, लेकिन ये सिर्फ कोरी बयानबाजी तक सीमित रह गया.

उत्तर प्रदेश में जहां कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया था वहां चुनाव में शिकस्त के बाद राहुल गांधी ने 'संगठनात्मक बदलाव' का भरोसा दिलाया था.

चुनावी नतीजों के तीन सप्ताह गुजरने के बाद हालत ये है कि पार्टी ने अभी तक कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक तक आयोजित नहीं की है और न ही ऐसी समस्या जो पार्टी को इतिहास के पन्नों में समेट सकती है उसके बारे में कोई गहन विचार किया है. पार्टी के एक अन्य नेता ने जैसा कि इसका आशय निकाला और कहा कि “कांग्रेस के पास कुछ नहीं है...न ही नेतृत्व, न संगठन, न ही पैसा. जिससे पार्टी को फिर से जीवित किया जा सके.

मौजूदा हालत में कांग्रेस के पास सिवाए बीजेपी के एक दिन कमजोर होने का इंतजार करते रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. तब तक कांग्रेस सिर्फ प्रार्थना और चमत्कार के भरोसे खुद को जिंदा रख सकती है.