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राफेल विवाद: ओलांद के दावे ने बढ़ाई मोदी सरकार की मुश्किल, भारत-रूस के संबंधों पर भी संकट

ताजा घटनाक्रम पर भारत सरकार ने कहा है कि, अभी तक फ्रेंच मीडिया रिपोर्ट्स की पुष्टि नहीं हुई है, उनकी जांच-परख कराई जा रही है. बहरहाल प्रत्यक्ष रूप से इस मामले में अभी कई और नई बातें सामने आना बाकी है

Prakash Katoch

राफेल विमान सौदे को लेकर देश में सियासी घमासान जारी है. इस बीच फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद के ताजा बयान ने राफेल विवाद को और गर्मा दिया है. हालांकि ओलांद के बयान के बाद फ्रेंच सरकार ने रिलायंस का बचाव किया है. शुक्रवार रात फ्रेंच सरकार ने एक बयान जारी कर कहा कि, राफेल विमान सौदे में वह किसी भी तरह से भारतीय इंडस्ट्रियल पार्टनर्स (औद्योगिक भागीदारों) के चयन में शामिल नहीं थी. फ्रांस सरकार ने यह भी कहा कि, फ्रांसिसी कंपनियों को किसी भी सौदे या अनुबंध के लिए पसंदीदा कंपनियों का चयन करने की पूरी आजादी है.

वहीं फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का कहना है कि, राफेल सौदे के लिए भारत सरकार ने ही दसॉल्ट एविएशन के पार्टनर (साझीदार) के तौर पर रिलायंस डिफेंस का नाम आगे बढ़ाया था. ओलांद ने यह बात शुक्रवार को एक फ्रेंच अखबार को दिए इंटरव्यू में कही. उन्होंने बताया कि, रिलायंस डिफेंस को डील सौंपने में फ्रांस सरकार की कोई भूमिका नहीं थी. शनिवार को न्यूज़ एजेंसी एएफपी से बातचीत के दौरान ओलांद ने अपना बयान फिर दोहराया. उन्होंने साफ कहा कि, रिलायंस को चुनने में फ्रांस की कोई भूमिका नहीं है. जब ओलांद से पूछा गया कि, क्या रिलायंस और डसॉल्ट एविएशन को साथ काम करने को लेकर भारत की तरफ से कोई दबाव बनाया गया था, तो उन्होंने कहा कि उनके पास इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है. ओलांद ने यह भी कहा कि, सिर्फ दसॉल्ट एविएशन ही इस बारे में कोई टिप्पणी कर सकती है.


'अभी तक फ्रेंच मीडिया रिपोर्ट्स की पुष्टि नहीं हुई है, उनकी जांच-परख कराई जा रही है'

ताजा घटनाक्रम पर भारत सरकार ने कहा है कि, अभी तक फ्रेंच मीडिया रिपोर्ट्स की पुष्टि नहीं हुई है, उनकी जांच-परख कराई जा रही है. बहरहाल प्रत्यक्ष रूप से इस मामले में अभी कई और नई बातें सामने आना बाकी है. राफेल सौदे पर रोक लगाने की मांग करने वाली एक याचिका पर भी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई लंबे अरसे तक (लोकसभा चुनावों तक?) टल भी सकती है. लेकिन ओलांद के बयान के बाद से भारत के सियासी गलियारों में आरोप-प्रत्यारोप का दौर तेज हो गया है. चुनावी मौसम में मनमाफिक मुद्दा मिलने से विपक्ष पूरी तरह से मोदी सरकार पर हमलावर है. ओलांद के बयान को आधार बनाकर विपक्ष ने पूरे मामले की जेपीसी जांच की मांग भी उठा दी है.

मामला जो भी हो, नतीजा जो भी निकले, लेकिन उम्मीद है कि भारतीय वायु सेना को जल्द से जल्द 36 राफेल विमान मिल जाएंगे. हालांकि, राफेल सौदे में गौर करने वाली एक बात यह भी है कि, दसॉल्ट एविएशन और रिलायंस डिफेंस के संयुक्त उद्यम (ज्वाइंट वेंचर) में सरकार को दसॉल्ट का भारतीय साझेदार चुनने का तो विशेषाधिकार है. लेकिन हाल ही में डिफेंस सेक्टर में कदम रखने वाले अडाणी ग्रुप के साथ जब रूस की कंपनी क्लाशनिकोव ने एक ज्वाइंट वेंचर की पेशकश की, तो सरकार उसके लिए राजी नहीं हुई. दरअसल क्लाशनिकोव ने अडाणी ग्रुप के साथ मिलकर 7.62x39 एमएम कैलिबर की एके-103 असाल्ट राइफल्स बनाने की पेशकश की थी. एके-103 असाल्ट राइफल्स का निर्माण एके-47 राइफल की तर्ज किया जाना था. लेकिन सरकार ने क्लाशनिकोव-अडाणी ग्रुप के ज्वाइंट वेंचर के प्रस्ताव को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि, 'अगर रूस दो सरकारों के बीच सौदा करना चाहता है, तो वह ज्वाइंट वेंचर के लिए निजी क्षेत्र की कंपनियों के नाम का सुझाव नहीं दे सकता है.'

तो क्या, राफेल डील भारत और फ्रांस के बीच दो सरकारों का समझौता नहीं था? निश्चित रूप से राफेल डील में दोहरे मापदंड अपनाए गए. जाहिर तौर पर यह मामला राजनीतिक पतन की ओर इशारा करता है. राफेल विवाद खड़ा होने के बाद ही क्लाशनिकोव-अडाणी ग्रुप के प्रस्ताव को सरकार ने लाल झंडी दिखाई.

अमेरिका CAATSA प्रतिबंध की धमकियां देकर मुश्किलें बढ़ा रहा है  

राफेल डील को लेकर सरकार एक तरफ जहां सियासी संकट में फंसी हुई है, वहीं दूसरी तरफ अमेरिका उसकी मुश्किलें और बढ़ा सकता है. दरअसल अमेरिका लगातार भारत को 'काउंटरिंग अमेरिकाज एडवर्सरीज थ्रू सैंक्शंस ऐक्ट' यानी CAATSA प्रतिबंध की धमकियां दे रहा है. रूस से लड़ाकू विमान खरीदने की वजह से अमेरिका ने चीन पर ताजा प्रतिबंध लगाए हैं. अमेरिका की इस प्रतिबंध सूची में अब भारत का नाम भी शामिल हो सकता है. वहीं इस मामले का काला साया रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा पर भी पड़ सकता है. पुतिन 19वीं इंडो-रशियन समिट में हिस्सा लेने 5 अक्टूबर को भारत आने वाले हैं. पुतिन के इस भारत दौरे के दौरान एस-400 ट्रायंफ डील होने की प्रबल संभावना है. लेकिन CAATSA के तहत एस-400 ट्रायंफ अमेरिकी छूट से जुड़ा एकमात्र मुद्दा नहीं है.

भारत ने आधुनिकतम राफेल लड़ाकू विमानों के लिए फ्रांस से लगभग 58 हजार करोड़ रुपए का सौदा किया है

सरकार ने हाल ही में रूस के साथ तलवार श्रेणी के चार उन्नत फ्रिगेट युद्धपोतों के लिए 2.2 बिलियन डॉलर के सौदे को मंजूरी दी है. इनमें से दो युद्धपोत गोवा में बनाए जाएंगे और शेष दो सीधे रूस से खरीदे जाएंगे. अन्य सौदों में 'मेक इन इंडिया' के तहत एके-103 असाल्ट राइफल्स का उत्पादन, केए-226 लाइट यूटिलिटी हेलीकॉप्टरों का संयुक्त उत्पादन, एईवीसी सिस्टम से लैस दो आईएल-78 परिवहन विमान (ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट), और 48 एमआई-17 हेलीकॉप्टर शामिल हैं.

रूस और एचएएल 110 मिग विमानों के निर्माण के लिए भी साझीदार हैं. इन लड़ाकू विमानों को भारतीय वायुसेना को सौंपा जाना है. कहा जा रहा है कि, इन विमानों का रडार सिस्टम बेहद उन्नत है. इसके अलावा यह विमान मिसाइलों और हथियारों की नई रेंज से भी लैस होंगे. निर्माण के दौरान इन विमानों की युद्ध क्षमता में खासी वृद्धि की गई है. पुराने विमानों की अपेक्षा नए मिग विमानों की कॉम्बेट क्षमता में 50 फीसदी से ज्यादा का इजाफा किया गया है. नए विमानों में लगे रडार एक साथ 30 लक्ष्यों का पता लगाने में सक्षम हैं और उनमें से 10 को एक साथ एक बार में तहस-नहस करने की क्षमता रखते हैं. अगर प्रौद्योगिकी हस्तांतरण (टेक्नोलॉजी ट्रांसफर) और अन्य प्रतिस्पर्धियों से इन विमानों की तुलना की जाए, तो यह विमान कम से कम 20 फीसदी सस्ते हैं. इसके अलावा भारत के मानव अंतरिक्ष मिशन यानी गगनयान में रूस पूरा साथ दे रहा है. मिशन गगनयान के लिए भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों के चयन और उन्हें प्रशिक्षित करने में रूस से भरपूर मदद मिल रही है. लेकिन अमेरिका को भारत-रूस की साझेदारी और सैन्य सौदे रास नहीं आ रहे हैं. लिहाजा भारत-रूस के बीच 'प्रमुख' रक्षा सौदों के खिलाफ अमेरिका की तरफ से भारत को प्रतिबंधों की धमकियां दी जा रही हैं. ऐसे में रूस के साथ 'प्रमुख' समझौतों को लेकर भारत हिचकिचा रहा है.

COMCASA पर हस्ताक्षर की ओर कदम बढ़ाने में जल्दबाजी तो नहीं की?

भारत की रणनीतिक चिंताओं और अमेरिका की तंगदिली के बीच सवाल उठता है कि, क्या भारत ने हाल ही में अमेरिका के साथ हुई 2+2 वार्ता के दौरान कम्यूनिकेशंस कॉम्पेटिबिलिटी एंड सेक्योरिटी एग्रीमेंट (COMCASA) पर हस्ताक्षर की ओर कदम बढ़ाने में जल्दबाजी तो नहीं की? क्या हमें पहले भारत-रूस और भारत-ईरान के संबंधों की गारंटी को सुनिश्चित नहीं करना चाहिए? ऐसा इसलिए क्योंकि रूस और ईरान हमारे राष्ट्रीय हितों से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं.

नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप

अमेरिका ने 2016 में भारत को 'मेजर डिफेंस पार्टनर' का दर्जा दिया था. लेकिन भारत को सामरिक व्यापार प्राधिकरण-1 (एसटीए-1) का दर्जा उसके दो साल बाद दिया गया. हालांकि अमेरिका की ओर से भारत को एसटीए-1 का दर्जा 13 साल पहले ही दिया जाना था. दरअसल 2005 में जब भारत ने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता किया था, तब अमेरिका ने भारत से निर्यात नियंत्रण को आसान बनाने का वादा किया था.

अन्य मुद्दों के अलावा, रूस और भारत के सैन्य समझौतों को लेकर अमेरिका को जो कुछ भी पता चलेगा, उसे वह तुरंत COMCASA के तहत भारत पर थोप देगा. लेकिन पाकिस्तान और चीन से सटी हमारी सीमाओं पर होनी वाली गतिविधियों के बारे में क्या प्रासंगिक है? विशेष रूप से, तब जब अमेरिका हमारे साथ साल में एक के बजाय दो 'क्वाड' मीटिंग करना चाहता है, जबकि 2+2 वार्ता के लिए वह साल में सिर्फ एक बैठक ही करना चाहता है.

राष्ट्रपति पुतिन के आगामी भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच 'विशेष और विशेषाधिकारपूर्ण सामरिक रिश्ते' (स्पेशल एंड प्रिविलेज्ड स्ट्रेटेजिक रिलेशनशिप) अगले स्तर पर पहुंचने की उम्मीद है. लेकिन अगर अमेरिका ने भारत-रूस के बीच रक्षा सौदों पर अपनी रजामंदी नहीं दी तब क्या होगा? अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के कभी नरम कभी गरम मिजाज से हर कोई वाकिफ है. अपने पल-पल बदलते व्यवहार के चलते ही ट्रंप भारत पर कई प्रतिबंध लगा चुके हैं. भारत-रूस के बीच रक्षा सौदों में अगर अमेरिका ने अड़ंगा डाला, तो इससे रणनीतिक स्तर पर भारत के लिए संकट पैदा हो सकता है. और अगर यह रणनीतिक संकट पैदा हुआ, तो उसे मोदी सरकार को पहली प्राथमिकता के तौर पर उच्चतम स्तर पर जल्द से जल्द हल करना होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि भारत रूस के साथ अपने सामरिक संबंधों को कमजोर करने का जोखिम नहीं उठा सकता है.

रूस से अच्छे-पुख्ता संबंध बने रहें इसके लिए हर संभव प्रयास करने होंगे 

रूस से अच्छे और पुख्ता संबंध बरकरार रखने के लिए भारत को हर संभव प्रयास करने होंगे. इसके अलावा अमेरिका के अनावश्यक दबाव को कम करने के लिए भी भारत को खास रणनीति बनाना होगी. वैसे अमेरिकी दबाव कम करने का एक रास्ता अमेरिका में रहने वाला भारतीय समुदाय भी हो सकता है. क्योंकि अमेरिका निवासी भारतीय समुदाय (एनआरआई) के बीच पीएम मोदी और मोदी सरकार की गहरी पैठ है.

राफेल सौदे से जहां मोदी सरकार के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समन्वय बैठाने की चुनौती है वहीं घरेलू मोर्चे पर भी उसे विपक्षी पार्टियों के हमलावर तेवर झेलने पड़ रहे हैं

अमेरिका में नवंबर 2018 में मध्यवर्ती चुनाव होंगे. जिसमें अमेरिका के हाउस ऑफ रिप्रिजेंटेटिव्स की सभी 435 सीटों और अमेरिकी सीनेट की 100 में से 35 पर वोट डाले जाएंगे. लिहाजा मध्यवर्ती चुनाव में भारतीय समुदाय का उचित इस्तेमाल किया जा सकता है. क्योंकि चुनाव के दौरान अगर राष्ट्रपति ट्रंप को अपने देश में लोगों के असंतोष का सामना करना पड़ा, तो हर एक वोट कीमती हो जाए. लिहाजा ऐसे में अमेरिका निवासी भारतीय समुदाय भारत की चिंताओं को स्वर दे सकता है. लेकिन इसके लिए मोदी सरकार को सार्थक राजनयिक और कूटनीतिक प्रयास करना होंगे.

(लेखक भारतीय सेना के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल हैं)