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जनाब मॉल खरीदेंगे पर बहुओं को वहां जाने न देंगे!

एक औरत, जिसका एक शॉपिंग मॉल में हिस्सा है, वह अपनी होने वाली बहुओं के मॉल घूमने पर ऐतराज कर सकती है

Pallavi Rebbapragada

‘सिनेमा हॉल और मॉल जाने वाली लड़की नहीं चाहिए. घर चलाने वाली, बड़े-बुजुर्गों का आदर करने वाली, जैसे हम हैं, वैसी लड़की चाहिए.’

राबड़ी देवी के इस बयान के चंद हफ्ते पहले लालू प्रसाद यादव के परिवार पर पश्चिमी पटना के सगुना मोड़ में दो एकड़ जमीन खरीदने का मामला सामने आया था. तब लालू प्रसाद ने यह कहा था कि उनके परिवार ने मेरीडियन कंस्ट्रक्शन नाम की एक कंपनी को वह जमीन प्रॉफिट शेयरिंग मॉडल पर शॉपिंग मॉल बनाने के लिए दी थी.


बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री ने यह सवाल उठाया कि क्या उनका परिवार व्यावसायिक गतिविधियों में भाग नहीं ले सकता? उन्होंने कहा कि यह जमीन, जिसका मूल्य आज लगभग 200 करोड़ रुपए है. 2005 में राबड़ी देवी के हिस्से में तब आई थी. जब उन्होंने डिलाइट मार्केटिंग नाम की एक फर्म में अपने शेयर बेचे थे.

इन दोनों बयानों को एक साथ पढ़कर एक ऐसे व्यंग्य का एहसास होता है, जिसपर हंसी नहीं आती बल्कि गुस्सा आता है.

यह समाज में फैली हुई बनावटी नारी-शक्ति की सीमा दिखाती है. एक औरत, जिसका एक शॉपिंग मॉल में हिस्सा है, वह अपनी होने वाली बहुओं के मॉल घूमने पर ऐतराज कर सकती है.

बिहार में महिलाओं की स्थिति

अनपढ़ होने के बावजूद, राबड़ी देवी अपने पति लालू यादव के जेल जाने के आसार होने पर जुलाई, 1997 में बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं. आजादी के इतने दिनों बाद आज भी बिहार में महिला साक्षरता दर पचास फीसदी के ही आसपास है.

यह बात तो स्पष्ट है कि लोकतंत्र में खुलकर हिस्सा लेना औरतों के उत्थान का कोई विश्वसनीय संकेत नहीं है. चुनाव आयोग के डाटा के अनुसार 2015 के बिहार प्रदेश के इलेक्शन में 60.57 प्रतिशत महिलाओं ने वोट दिया, जो पुरुष मतदाताओं से लगभग सात प्रतिशत अधिक था.

ऐसा ही 2010 के मतदान में भी देखा गया था, जब 54.49 प्रतिशत महिलाओं ने वोट डाला था. सोचने वाली बात है कि 2015 में कुल वर्क फोर्स में महिलाओं की संख्या 10 प्रतिशत से भी कम थी.

2011 की जनगणना के अनुसार बिहार में 15 से 59 वर्ष के उम्र की केवल 9 प्रतिशत महिलाएं ही आर्थिक गतिविधियों में भाग ले रहीं हैं. इसके मुकाबले 78.5 प्रतिशत पुरुष वर्क फोर्स में शामिल पाए गए. सन् 2016 में बिहार में 3,830 लड़कियों की दहेज से संबंधित कारणों की वजह से मौत हुई.

पिछले साल, बिहार में 3,075 ऐसे केस सामने आए जिनमें अपहरण करके के शादियां करवाई गईं और 2015 में 4,444 औरतों का राज्य से शादी के लिए अपहरण करवाया गया.

राजनीति से पहले नीति से जोड़ें महिलाओं को 

केयर इंडिया एक ऐसा एनजीओ है जो महिला सशक्तिकरण के लिए काम करती है. इस संस्था ने बिहार के नौ जिलों (जिसमें पटना, समस्तीपुर, गया, भागलपुर, सीवान और मुंगेर शामिल थे) में रिसर्च करके खुलासा किया कि 61 प्रतिशत महिलाओं ने यह कहा कि घरेलू हिंसा का असर उनके नवजात शिशुओं के स्वस्थ्य पर पड़ा है. साथ ही 60 प्रतिशत से भी अधिक औरतों ने यह कहा कि उनके पति गर्भपात और गर्भावस्था से जुड़े अन्य फैसले लेते हैं.

इस रिसर्च ने यह भी खुलासा किया है कि 38 जिलों में 35 हेल्पलाइन और 21 संरक्षण गृह तो हैं लेकिन 86 प्रतिशत उत्तर देने वालों को इनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. इसमें कोई संदेह आज औरतों को राजनीति नहीं, नीति से जोड़ने की अधिक जरूरत है.

राबड़ी देवी के पास बिहार में महिला विकास की अगुआ बनने का सुनहरा अवसर था. वह जब सत्ता में थी तो शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के क्षेत्र में महिलाओं के लिए कुछ बड़ा काम कर सकती थीं.

विकास यदि धीरे-धीरे हो तो चिंता का विषय बन जाता है. और यह बनावटी ढंग से हो - जिसमें केवल नाम के लिए स्त्री शक्ति का डंका बजे - तो यह खतरे से खाली मामला नहीं है.

बिहार की एक बेटी ऐसी भी 

तारकेश्वरी सिंहा (तस्वीर: यूट्यूब)

किसान, खेत और गोबर के उपलों की बीच बैठे लालू प्रसाद और राबड़ी देवी की एक छवि उन लोगों के दिमाग में भी है जो बिहार यानी हिंदी हार्टलैंड के निवासी नहीं हैं. नब्बे के दशक का चारा घोटाला, जिसमें सीबीआई ने लालू प्रसाद यादव पर 1,000 करोड़ रुपए की हेर-फेर का आरोप लगाया था, आज भी लोगों को याद है.

तब ऐसा लगा था कि जिस राज्य में महिला सरकार की सबसे ऊंची कुर्सी पर जा बैठ सकती है, उस राज्य में हर महिला को उड़ने के लिए पर मिल जाएंगे. लेकिन आज ऐसा लगता है उस वक्त औरत ने केवल प्रतीकात्मक ढंग से मर्द की जगह ली थी.

बिहार में 1926 में एक ऐसी औरत ने जन्म लिया था, जिन्हें आज याद करने की जरूरत अधिक है. तारकेश्वरी सिंहा ने 26 वर्ष की उम्र में लोक सभा में कदम रखा. उनको ‘बेबी ऑफ द हाउस’ और ‘ग्लैमर गर्ल ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स’ कहा जाता था.

वह 1958-64 की नेहरू सरकार में भारत की पहली महिला उपवित्त मंत्री थीं. लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पढ़ी इस नेता ने राजनीति छोड़कर सामाजिक कार्य को अपना जीवन समर्पित कर दिया था. नालंदा की इस लड़की ने नि:शुल्क अस्पताल और सड़कें बनवाने के काम पर ध्यान दिया.

अगर वह आज जीवित होतीं तो बिहार की औरत को आर्थिक और सामाजिक हालात के साथ-साथ इस पिछड़ी सोच से लड़ते हुए देख कर उन्हें दुख ही होता.