view all

प्रियंका की एंट्री बताती है कि कांग्रेस 'वंशवादी' तमगे से शर्मसार नहीं...ब्रांड 'गांधी' अभी और भुनाया जाएगा

यहां हम मार्केटिंग की दुनिया की एक जानी-पहचानी स्थिति देख रहे हैं जब एक नन्हा ब्रांड अपने मदर ब्रांड से ज्यादा कीमती साबित हो रहा है. गांधी-परिवार इस बात को हमेशा से जानता था और यह परिवार अब मार्केट में अपने लिए अनुकूल हालात जानकर बस ब्रांड को भुनाने निकल पड़ा है.

Sandip Ghose

मार्केटिंग की दुनिया के उस्ताद ब्रांडिग की ताकत और टाइमिंग के बारे में गांधी परिवार से कुछ सबक ले सकते हैं. यह बात तो खैर नहीं पता कि फिरोज जहांगीर गांधी (Gandhy) के हिज्जे (स्पेलिंग) बदलने और नाम के बीच में आने वाले ‘जहांगीर’ को हटाने का नुस्खा किसका था लेकिन यह नुस्खा बड़ा कामयाब रहा- नाम बदलने के फैसले ने परिवार को कई पीढ़ियों तक फायदा पहुंचाया है.

अचरज की बात नहीं कि इंदिरा गांधी ने अपने शुरुआती सरनेम (वंशनाम) को एक झटके से उतार फेंका था जबकि प्रियंका अपने शुरुआती सरनेम(वंशनाम) को अपने पति के नाम के साथ कभी जोड़कर तो कभी हटाकर उसी सुविधा के साथ इस्तेमाल करती हैं जिस सुविधा के साथ उनके भाई अपने सरनेम को.


इससे पहले कि नारीवादी मुझपर पुरुषवादी (पितृसत्ताक) सोच पालने का आरोप मढ़ दें, यहां स्पष्ट कर दूं कि मैं अपनी बात सिर्फ मार्केटिंग के नजरिये से रख रहा हूं. भारत में बहुत कम परिवार इस बात को ठीक से समझ पाते हैं. टैगोर-परिवार ने इस बात को समझा था. इसी कारण शर्मिला टैगोर के नाम के साथ उनका वंशनाम जुड़ा चला आ रहा है. लेकिन गांधी-परिवार की बात ही कुछ अलग है, इस परिवार ने सरनेम के इस्तेमाल को एक नई ऊंचाई बख्शी है.

वंशवाद के पैरोकार गांधी-परिवार की तुलना अमेरिका के कैनेडी-परिवार से करते हैं. लेकिन हम जानते हैं कि इन दो परिवारों में बड़ा फर्क है. एक तो कैनेडी परिवारों में कई भाई थे और इन लोगों ने अपने वंशनाम को बढ़ाए रखने की कोई जाहिर कोशिश भी नहीं की. ऐसा ना हुआ कि इस परिवार में शादी के बाद किसी महिला ने अपने पति या ससुरालियों के नाम और साख का इस्तेमाल किया हो. कैनेडी परिवार के किसी व्यक्ति का पार्टी के ऊपर वैसा कोई दबदबा भी नहीं था, पार्टी को अपनी निजी जागीर समझने की बात तो खैर ही जाने ही दीजिए.

टाइमिंग भी बड़ी अहम है. राजीव और सोनिया ने पारिवारिक विपदा की घड़ी में सार्वजनिक जीवन में कदम रखा था जबकि राहुल और प्रियंका के मामले में बात अलग है- दोनों ने सार्वजनिक जीवन में कदम रखने का वक्त या तो अपनी मर्जी से चुना या फिर परिवार की मर्जी से. राहुल ने सार्वजनिक जीवन में कदम रखने की कई झूठी कोशिशें कीं लेकिन पार्टी के अध्यक्ष-पद पर उनका आरोहण बड़े कायदे से हुआ- गुजरात के चुनावों के साथ उसका मेल बैठाया गया.

सार्वजनिक जीवन में प्रियंका की औपचारिक शुरुआत और भी ज्यादा दिलचस्प है. वे पारिवारिक मामलों में सक्रिय हैं- यह बात तो खैर जाहिर ही थी. हाल के वक्त में यह भी स्पष्ट हो गया था कि फैसले लेने और रणनीति बनाने में भी वो भूमिका निभा रही हैं. इसलिए यह सवाल कि ‘प्रियंका राजनीति में कदम रखेंगी या नहीं’ तनिक बदल गया था और यह सोचा जाने लगा था कि देखें, ‘प्रियंका राजनीति में किस वक्त कदम रखती हैं’. लेकिन उनकी हमनाम प्रियंका चोपड़ा ने जैसे आखिरी वक्त तक लोगों को अपनी शादी के वक्त के बारे में पसोपेश में रखा कुछ वैसा ही प्रियंका के राजनीति में कदम रखने के वक्त के बारे में देखने को मिला.

सो, सवाल अभी का सवाल यह है कि आखिर प्रियंका ने इसी वक्त राजनीति में कदम क्यों रखा? इसके सवाल के कई जवाब सोचे जा सकते हैं.

इसमें तो कोई शक ही नहीं कि गांधी-परिवार के लिए इस चुनाव में बहुत कुछ दांव पर लगा है. इस चुनाव को गंवाना गांधी-परिवार के लिए बड़े जोखिम का सबब बन सकता है. यूपी कभी इस परिवार का गढ़ हुआ करता था और यहां अगर पार्टी का सूपड़ा साफ हो जाए तो फिर यह करेले के नीम जा चढ़ने की बात होगी.

याद करें कि प्रशांत किशोर ने यूपी के विधानसभा चुनावों के वक्त कहा था कि प्रियंका को अब राजनीति में आ जाना चाहिए. लेकिन गांधी-परिवार ने उस वक्त प्रशांत किशोर की सलाह नहीं मानी थी. ऐसा करने की एक वजह तो ये हो सकती है कि प्रियंका अगर उस वक्त राजनीति में आतीं तो इससे राहुल की नेतृत्व-क्षमता पर गंभीर सवाल उठ खड़े होते. पार्टी उस समय बहुत खस्ताहाल थी सो मुमकिन था कि पार्टी के नेता और कार्यकर्ता राहुल को परे कर एकबारगी प्रियंका की तरफ जा खड़े होते.

यों लगता तो यह भी है कि उस वक्त राजनीति में ना आने का प्रियंका का फैसला अच्छा साबित हुआ क्योंकि यूपी के विधानसभा चुनावों में प्रियंका के राजनीति में आने से सीटों का खास इजाफा होता या नहीं- इस पर कोई पक्की राय कायम कर पाना मुश्किल है.

मतलब, इस तमाम सोच-विचार के बाद एक बार फिर से सवाल वही उठ खड़ा होता है कि आखिर प्रियंका ने राजनीति में आने के लिए यही वक्त क्यों चुना.

बीते समय की तरह इस बार के चुनाव में भी नतीजे बहुत हद तक इसी बात से तय होने हैं कि यूपी में किसी पार्टी का प्रदर्शन कैसा रहता है. मायावती ने कांग्रेस को परे झटक दिया और कांग्रेस को बहुत तगड़ा झटका लगा है. यूपी में पार्टी तकरीबन नेतृत्व-विहीन है सो यूपी में कांग्रेस के लिए सांसत है.

राज बब्बर राजनीति की दुनिया के कोई स्टार तो है नहीं. सलमान खुर्शीद निहायत शालीन तबीयत के हैं और यूपी में सियासत का जो धमाल मचने जा रहा है उसमें बात सलमान खुर्शीद के सहारे नहीं बनने वाली. कांग्रेस के पास यूपी के चुनावी मिजाज को भांपने वाला भरोसे का कोई ऐसा जानकार भी नहीं जो वहां वैसी ही भूमिका निभा सके जैसी कि गहलोत ने गुजरात और मध्यप्रदेश में निभायी.

राहुल गांधी देश भर में चुनाव-प्रचार करने में व्यस्त रहेंगे. लेकिन यूपी के नतीजे बहुत अहम हैं सो यूपी को कांग्रेस ‘जैसा है-जिस रुप में है’ वाली शैली में नहीं छोड़ सकती. यहां राहुल को मदद की जरूरत होगी.

लेकिन यूपी प्रियंका के लिए दोधारी तलवार की तरह है-यहां उनके लिए अवसर हैं तो चुनौतियां भी. अगर कांग्रेस की सीटों के आंकड़े में खास बढ़त (सीटों की संख्या दो से ज्यादा होती है तो इसे बढ़त कहा जाएगा) होती है तो फिर पार्टी के पिछलग्गू निश्चित ही प्रियंका की जय-जयकार करेंगे. लेकिन प्रियंका सीटों की संख्या बढ़ाने में नाकाम रहती हैं तो फिर वे मायावती और अखिलेश से कुछ श्रेय हासिल करने की जुगत लगाएंगी.

यह स्थिति प्रियंका के राजनीति में आने के लिए अनुकूल है क्योंकि कुछ खास खोना नहीं पड़ रहा और इस बात का भी जोखिम नहीं है कि लोगों का ध्यान राहुल से हटकर प्रियंका पर चला आएगा.

लेकिन राहुल गांधी के पार्टी-अध्यक्ष बनने के मात्र तेरह माह के भीतर प्रियंका ने सक्रिय राजनीति में कदम रखने का फैसला किया है- सो इसके कुछ गंभीर निहितार्थ भी हैं. प्रियंका ने राजनीति में कदम रखने का फैसला उस वक्त किया है जब बीजेपी का वंशवादी राजनीति के विरुद्ध अभियान जोर-शोर से जारी है और मोदी का ‘नामदार बनाम कामदार’ का मुहावरा लोगों की जुबान पर है. इससे यही पता चलता है कि गांधी परिवार ने अब ठान लिया है कि चाहे कोई कांग्रेस को एक परिवार की जागीर बताता रहे लेकिन ऐसी बातों का अब असर नहीं लेना है.

इसे एक सकारात्मक पहलकदमी के रूप में भी देखा जा सकता है. पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद से राहुल के कदमों को जो रफ्तार मिली है उसे जाहिर होता है कि ‘गांधी’ का नाम अब भी लोगों के बीच कारगर है. सिर्फ मतदाता ही नहीं बल्कि विपक्ष के साथी, बड़े व्यावसायी, विदेशी ताकतें तथा अनिवासी भारतीय- सब ‘गांधी’ के ब्रांडनेम से कांग्रेस पर दांव लगा सकते हैं.

यहां हम मार्केटिंग की दुनिया की एक जानी-पहचानी स्थिति देख रहे हैं जब एक नन्हा ब्रांड अपने मदर ब्रांड से ज्यादा कीमती साबित हो रहा है. गांधी-परिवार इस बात को हमेशा से जानता था और यह परिवार अब मार्केट में अपने लिए अनुकूल हालात जानकर बस ब्रांड को भुनाने निकल पड़ा है.