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इंदिरा गांधी जैसी नहीं हैं प्रियंका, प्रभावी राजनीति के लिए उन्हें अतीत के खुमार से निकलना होगा

अगर, प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी छाप छोड़ने को लेकर गंभीर हैं, तो पहले तो उन्हें अतीत की सुनहरी यादों की कैद से खुद को आजाद करना होगा.

Ajay Singh

निर्माता-निर्देशक गुलज़ार ने सुचित्रा सेन और संजीव कुमार के अभिनय से सजी फिल्म 'आंधी' 1975 में बनाई थी. ये वो दौर था, जब भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी की तूती बोलती थी. ये फिल्म, लेखक कमलेश्वर के उपन्यास, 'काली आंधी' पर आधारित थी. उपन्यास में एक महिला सियासी लीडर का किस्सा बयां किया गया था. माना जाता था कि ये उपन्यास काफी हद तक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जिंदगी पर आधारित था.

अभिनेत्री सुचित्रा सेन ने भी अपने किरदार में इंदिरा गांधी की नकल करने की कोशिश की थी. उनका जो बोलने का और साथी नेताओं से दबंगई से पेश आने अंदाज था, सुचित्रा सेन ने उसकी कॉपी करने की कोशिश की थी. वो फिल्म के दृश्यों में इंदिरा गांधी की ही तरह तेजी से दौड़ते हुए सभा के मंच पर चढ़ती दिखाई गई थीं.


जाहिर है कि देश के प्रधानमंत्री की जिंदगी पर आधारित फिल्म 'आंधी' बनने के साथ ही विवादों में घिर गई थी. इस पर इतना हंगामा हुआ था कि फिल्म को 1977 तक रिलीज ही नहीं किया जा सका था. जब इंदिरा गांधी ने देश से इमरजेंसी हटाई और वो चुनाव हार गईं, तब जाकर फिल्म आंधी बड़े पर्दे का मुंह देख सकी थी. इस फिल्म में हमें 1970 के दशक की राजनीति के अनदेखे पहलू नजर आए थे. लेकिन, आज की राजनीति को समझने के लिए शायद ही कोई आंधी फिल्म को याद करे. आज का सियासी माहौल नए नियम-कायदों पर आधारित है. आज राजनीति की दशा-दिशा बहुत ही बदली हुई है.

किसी खास दौर की ऐसी राजनीति, जो मृत्युशैया पर हो, उसके लिए बस सुनहरे दौर की यादें ही सहारा होती हैं. कांग्रेस, उत्तर प्रदेश में वही करती दिख रही है. आज जो लोग इंदिरा गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा में समानताएं तलाश रहे हैं. जो लोग प्रियंका को कांग्रेस की राजनीति का तुरुप का इक्का बता रहे हैं, वो मानो तूफानी हवाओं से बचने के लिए घास-फूस का सहारा ले रहे हैं.

आज इससे वाहियात कोई और तर्क नहीं हो सकता कि इंदिरा गांधी से मिलते-जुलते चेहरे वाली प्रियंका वाड्रा, (35 साल से कम उम्र के वोटरों की तादाद 60 फीसद है) युवा वोटरों को अपनी पार्टी के पक्ष में ले आएंगी. इंदिरा गांधी की हत्या हुए करीब 35 साल बीत चुके हैं. हकीकत ये है कि अपने आखिरी दिनों में इंदिरा गांधी, बड़े सियासी चक्रव्यूह में फंसी हुई थीं.

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ऑपरेशन ब्लू स्टार की वजह से वो विवादों में थीं. जिस वक्त उनकी हत्या हुई, उस वक्त उनके सत्ता में वापसी करने की संभावनाएं बहुत कमजोर थीं. लेकिन, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चली सहानुभूति की लहर ने 1984 में उनके बेटे राजीव गांधी को ऐतिहासिक बहुमत से प्रधानमंत्री बना दिया था. उसके बाद से किसी और चुनाव में इंदिरा गांधी कोई बड़ा चुनावी मुद्दा बनी हों, ऐसा याद नहीं पड़ता.

इंदिरा गांधी को गुजरे हुए तीन दशक से ज्यादा वक्त बीत चुका है. तब से अब तक भारतीय राजनीति का मंजर बहुत बदल चुका है. देश के दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस पार्टी अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रही है. कांग्रेस की बुरी स्थिति का हाल ये है कि इन राज्यों में वो तीसरे नंबर की पोजीशन पर भी बमुश्किल आ पा रही है.

आज पार्टी की उन सीटों पर भी हालत बेहद खराब है, जो कभी कांग्रेस का अजेय गढ़ मानी जाती थीं. एक दौर वो भी था, जब कांग्रेस के क्षेत्रीय नेताओं को हरा पाना नामुमकिन सा लगता था. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास कमलापति त्रिपाठी, वीर बहादुर सिंह, वीपी सिंह और एनडी तिवारी जैसे दिग्गज नेता थे. यूपी की राजधानी लखनऊ में मॉल एवेन्यू स्थित कांग्रेस का प्रदेश कार्यालय कभी सियासी ताकत का इतना बड़ा केंद्र था कि इसे समानांतर राज्य सचिवालाय का दर्जा हासिल था.

लेकिन, वो पुराना सुनहरा दौर अब किसी काम का नहीं है. ये बात उस वक्त जाहिर हो गई, जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी बहन प्रियंका वाड्रा के साथ लखनऊ की सड़कों पर रोड शो किया. इस रोड शो में उमड़ी भीड़ में शामिल ज्यादातर लोग अब राजीव गांधी की यादों से भी वाबस्ता नहीं हैं.

इंदिरा गांधी की तो बात ही छोड़ दीजिए. इसके अलावा, 1989 के बाद से उत्तर प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस हाशिए पर है. और, इसमें कोई शक नहीं कि लगातार तीन दशक से राज्य की राजनीति में कमजोर हालत में होने की वजह से देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के जमीनी संगठन का ढांचा कमोबेश नेस्तनाबूद हो चुका है. जिस पार्टी की कभी तूती बोलती थी, उस आलीशान महल के अब खंडहर भी नहीं बचे हैं.

इसमें भी कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस के पास अपने आप को फिर से जिंदा करने और मजबूत संगठन खड़ा करने की अपार संभावनाएं हैं. लेकिन, इसके लिए दूरदर्शिता और लगातार कड़ी मेहनत करने की जरूरत होगी. अब जिस तरह से प्रियंका गांधी वाड्रा लखनऊ में रोड शो करने के बाद अपने पति रॉबर्ट वाड्रा के साथ मौजूद रहने के लिए भागीं, उससे तो लोगों का प्रियंका की गंभीरता में भरोसा नहीं जगता.

वाड्रा के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय की जांच चल रही है. जाहिर तो ऐसा होता है कि वो खुद को पीड़ित दिखाने की कोशिश कर रही हैं. ताकि, वो नरेंद्र मोदी सरकार पर ये इल्जाम लगा सकें कि मोदी सरकार बदले की राजनीति कर रही है, इसीलिए वो अपने पति रॉबर्ट वाड्रा के साथ हैं. लेकिन, प्रियंका को पहले अपनी कमजोरियों को अच्छे से समझ लेना होगा.

प्रियंका के पति रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ चल रही जांच की तुलना, जनता पार्टी सरकार के इंदिरा को गिरफ्तार करने की नाकाम कोशिश से करना ही बचकाना होगा. इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की सरकार ने इंदिरा गांधी को जिस तरह गिरफ्तार करने की कोशिश की, वो बचकानी सियासी हरकत थी. उससे मोरारजी देसाई सरकार की बड़ी फजीहत हुई थी.

याद रखने वाली बात ये है कि इंदिरा गांधी को सियासत की विरासत अपने पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिली थी. 1966 के बाद, इंदिरा गांधी ने मोरारजी देसाई, एस निजलिंगप्पा और के. कामराज जैसे नेताओं को 1971 में पटखनी देकर खुद को कद्दावर और मजबूत नेता के तौर पर साबित और स्थापित किया था. उन्होंने गरीबी हटाओ का नारा देकर, देश के गरीबों को अपने साथ जोड़ा था. इसकी तुलना प्रियंका गांधी वाड्रा से कीजिए, जो अपने पति रॉबर्ट वाड्रा के साथ खड़ी नजर आती हैं. वाड्रा पर गैरकानूनी तरीके से भारी मात्रा में देश-विदेश में संपत्ति जमा करने का आरोप है. आप को इंदिरा गांधी और प्रियंका वाड्रा के बीच फर्क साफ नजर आएगा.

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ऐसे हालात में प्रियंका गांधी एक मजबूत और मंझी हुई सियासी लीडर दिखने के बजाय, बेहाल परेशान धर्मपत्नी ज्यादा नजर आती हैं, जो अपने पति की अवैध करतूतों को जबरन जायज ठहराने की कोशिश कर रही हैं. हो सकता है कि इससे उन्हें थोड़ी-बहुत सहानुभूति हासिल हो जाए. पर, इससे प्रियंका को बहुत सियासी नफा होने की उम्मीद कम ही है.

अगर, प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी छाप छोड़ने को लेकर गंभीर हैं, तो पहले तो उन्हें अतीत की सुनहरी यादों की कैद से खुद को आजाद करना होगा. वो इंदिरा गांधी नहीं हैं. और उन्हें ये भी याद रखना होगा कि राजनीति में बहुत से नेता वक्त के साथ बनते और बिगड़ते आए हैं.

एक वक्त के बाद वो सिर्फ इतिहास के नजरिए से प्रासंगिक रह जाते हैं. प्रियंका को अपने खानदान का थोड़ा-बहुत फायदा तो हो सकता है. थोड़ा काम उनका ग्लैमर भी करेगा. इससे वो सुर्खियां तो बटोर सकेंगी. लेकिन, सुर्खियां भर बटोर लेने से प्रियंका गांधी वाड्रा एक नेता के तौर पर अपनी स्वीकार्यता नहीं बढ़ा सकती हैं.

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