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क्या पसंद की बजाय मजबूरी में लिया गया है प्रियंका के राजनीति में आने का फैसला?

ऐसा लगता है कि प्रियंका ने पसंद से ज्यादा जरूरत के चलते सक्रिय राजनीति में कदम रखा है, परिवार का यह अभी नहीं तो कभी नहीं का फैसला है

Sanjay Singh

लखनऊ में पिछले हफ्ते एक ठेकेदार अचानक राजगीरों की एक पलटन के साथ मॉल एवेन्यू पर बने उत्तर प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय नेहरू भवन पहुंचा और झटपट काम में जुट गया. इस दोमंजिला इमारत का बाहरी हिस्सा शानदार है, लेकिन बीते 30 सालों से पार्टी के राज्य में सत्ता से बाहर रहने और कोई गतिविधि नहीं होने से इसका इंटीरियर खस्ताहाल हो चुका था.

बडे़ पैमाने पर रेनोवेशन, नई साज-सज्जा, फिटिंग्स और फर्नीचर लगता देख यहां के लोग अचंभित थे. पार्टी हाईकमान की अचानक जागी रुचि और इसे फटाफट पूरा करने के निर्देश ने उन्हें कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया. वे इस बारे में अंदाजा लगाते रहे कि इसका क्या मतलब हो सकता है. उनमें से कुछ ने अंदाजा लगाया कि यह प्रियंका की कांग्रेस में शानदार दाखिले की तैयारी थी और जिसके बाद वह यूपीसीसी मुख्यालय का दौरा करेंगी, यहां अपना दफ्तर बनाएंगी और बैठकें करेंगी. अंदाजा सही साबित हुआ.


कांग्रेस ने आखिरकार वही पत्ता खेला, जिसे उसका तुरुप का इक्का माना जाता था. प्रियंका गांधी अब कांग्रेस पार्टी की महासचिव हैं, वही पद जिससे उनके पिता राजीव गांधी और भाई राहुल गांधी ने राजनीति में प्रवेश किया और पार्टी की कमान संभाली. अमेठी पहुंचने के बाद राहुल गांधी ने कहा, 'मैं बहुत खुश हूं कि मेरी बहन जो बहुत सक्षम है, वह मेरे साथ काम करेंगी. ये बहुत अच्छा कदम है, बीजेपी वाले भी घबराए हुए हैं. अब हम फ्रंटफुट पर खेलेंगे, बैकफुट पर नहीं.'

उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश में पार्टी की संभावनाओं को फिर से जिंदा करने का काम सौंपा गया है. एक और राजवंश के उत्तराधिकारी ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पार्टी की संभावनाओं को परवान चढ़ाने का काम सौंपा गया है. 40 सीटों की प्रभारी प्रियंका होंगी और 40 सीटों के प्रभारी ज्योतिरादित्य होंगे.

इस तथ्य को देखते हुए कि कांग्रेस की उम्मीदें पहले ही आसमान छू रही हैं, यह एक आसान काम नहीं होगा. औपचारिक घोषणा के चंद मिनटों के अंदर, कुछ कांग्रेस नेताओं की तरफ से दावा किया गया कि पार्टी यूपी में 30 सीटें जीतेगी. वो मानते हैं कि चूंकि वह बहुत अच्छी कम्युनिकेटर हैं और अपनी दादी इंदिरा गांधी की तरह दिखती हैं, उनमें पार्टी की किस्मत बदल देने का दम है. राहुल ने बोला है कि अगर मायावती और अखिलेश यादव कांग्रेस के साथ नए सिरे से (गठबंधन के लिए) बातचीत करना चाहते हैं, तो उन्हें बात करने में कोई दिक्कत नहीं है. उन्हें लगता है कि बीएसपी और एसपी अब कांग्रेस को महागठबंधन से बाहर रखने के अपने फैसले पर दोबारा विचार करने पर मजबूर होंगे.

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क्या प्रियंका कामयाब होंगी, यह अहम सवाल है? परिदृश्य देखें-

मौजूदा चुनावी परिदृश्य में, कांग्रेस दो ताकतवर ध्रुवों के बीच पिसी हुई दिख रही जिसमें एक तरफ बीएसपी-एसपी गठबंधन है, और दूसरी तरफ बीजेपी है. इसके बीच कांग्रेस कहां टिकती है, जिसके पास बमुश्किल ऐसे जुझारू नेता-कार्यकर्ता हैं जो जमीनी लड़ाई लड़ने और पसीना बहाने के लिए तैयार हों. पूर्वी उत्तर प्रदेश, जहां प्रियंका को 40 सीटों की देखभाल का जिम्मा सौंपा गया है, वहां गोरखपुर से यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से आते हैं और बनारस से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीजेपी के सांसद हैं. एसपी-बीएसपी का हमेशा से बड़ा जनाधार रहा है. राहुल गांधी का कहना है कि अब यूपी में एक नया विचार-मंथन होगा, जिस पर फैसला होना बाकी है.

यूपी के राजनीतिक रण में सचमुच उतर जाने के बाद प्रियंका को दो धारणाओं से भी जूझना होगा. पहली यह कि उन्हें औपचारिक रूप से कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे में इसलिए शामिल किया गया है, क्योंकि भाई राहुल गांधी कुछ कर पाने में नाकाम रहे. देशभर के कांग्रेस कार्यकर्ता हमेशा से ऐसा मानते रहे हैं कि वह राहुल की तुलना में नेता बनने के लिए ज्यादा उपयुक्त हैं. मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग वास्तव में राजनीति में वंशवाद देखना पसंद नहीं करता है. गांधी परिवार के मामले में, तीनों- मां सोनिया और उनकी दो संतानें राहुल और प्रियंका आधिकारिक रूप से कांग्रेस में शक्ति के केंद्र हैं.

दूसरी बात, उनके पति रॉबर्ट वाड्रा के बारे में धारणा का बोझ. हालांकि वाड्रा के खिलाफ आरोपों में से किसी में भी कानूनी अर्थों में महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई है, लेकिन जनमत के संदर्भ में कहें तो, वाड्रा खलनायक जैसे ही हैं. अमेठी और रायबरेली के दोस्ताना इलाकों से बाहर, प्रियंका के लिए अपने पति के बारे में बनी धारणा का जवाब देना मुश्किल हो सकता है.

यूपी विधानसभा चुनाव में भी उठी थी प्रियंका की हवा

यूपी में पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान, तब के कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने गांधी परिवार में सहमति बनाने के लिए एक अभियान चलाया था कि प्रियंका गांधी वाड्रा मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार होंगी. लेकिन वह पीछे हट गईं. तब उन्हें समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कराने का श्रेय दिया गया था और किसी अन्य ने नहीं खुद अहमद पटेल ने साल 22 जनवरी, 2017 को एक ट्वीट के माध्यम से कहा था, 'यह कहना गलत है कि कांग्रेस पार्टी की ओर से मामूली लोग बातचीत कर रहे थे. बातचीत उच्चतम स्तर पर थी- सीएम (यूपी), इंचार्ज महासचिव और प्रियंका गांधी के बीच.'

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कुछ अन्य कांग्रेसी नेताओं का अंदाजा था कि वह एसपी-कांग्रेस की प्रचंड जीत सुनिश्चित करने के लिए पूरे राज्य में प्रचार करेंगी, लेकिन यह हकीकत में नहीं बदला. कहा गया कि नेतृत्व इस बात को लेकर सशंकित था कि कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तो क्या होगा. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और यूपी के तत्कालीन प्रभारी गुलाम नबी आजाद ने कहा कि प्रियंका ने पार्टी के लिए सभी तरह की रणनीति की कमान संभाली थी और राज्य के कार्यकर्ताओं के साथ बैठकें कर रही थीं. लेकिन यूपी चुनाव में कांग्रेस के भुला दिए जाने लायक प्रदर्शन के बाद किसी ने भी प्रियंका की भूमिका के बारे में बात नहीं की.

पसंद नहीं कांग्रेस की जरूरत के चलते लिया फैसला

ऐसा लगता है कि अंत में उन्होंने पसंद से ज्यादा जरूरत के चलते सक्रिय राजनीति में कदम रखा है. यूपी में बीएसपी और एसपी ने कांग्रेस का हाथ झटक दिया है, बिहार में महागठबंधन से सीट की बातचीत संकट में है, जहां आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने कांग्रेस को राज्य में अपनी ताकत के बारे में यथार्थवादी होने को कहा है और इसी के मुताबिक सीटों की मांग करने को कहा है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कांग्रेस के लिए ज्यादा जगह छोड़ने को अनिच्छुक हैं, कर्नाटक में सहयोगी दल जेडी(एस) बड़ी संख्या में सीटें मांग रहा है और मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने एक बयान में साफ कर दिया है कि वह प्रधानमंत्री के रूप में राहुल पर ममता को तरजीह देंगे. इस तरह प्रियंका और गांधी परिवार के लिए अभी नहीं तो कभी नहीं की हालत थी.

यूपी में कांग्रेस के लिए उम्मीद सिर्फ दो सीटों- अमेठी और रायबरेली तक सीमित हैं, जो मायावती और अखिलेश ने राहुल और सोनिया के लिए छोड़ दी हैं. यूपी में बाकी 78 सीटों पर कांग्रेस की किस्मत तकरीबन तालाबंद थी. यूपी पार्टी के नेताओं में निराशा की भावना थी. अब कांग्रेस को लगता है कि सीन में प्रियंका की एंट्री से हालात बदल जाएंगे.

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पिछले संसदीय चुनाव में 2009 में, राहुल गांधी की जीत का अंतर 3.70 लाख से घटकर 1.07 लाख हो गया था. रायबरेली में सोनिया गांधी की भी जीत का अंतर बहुत कम था. प्रियंका ने इन दोनों निर्वाचन क्षेत्रों में व्यापक प्रचार किया था. 2012 के विधानसभा चुनाव में इन दोनों निर्वाचन क्षेत्रों में प्रियंका के नुक्कड़ से नुक्कड़ अभियान के बावजूद, कांग्रेस के लिए नतीजे बेहद निराशाजनक थे- रायबरेली संसदीय सीट पर पार्टी सारी विधानसभा सीटें हार गई. उन्होंने 2017 के विधानसभा चुनाव में अमेठी और रायबरेली में ज्यादा प्रचार नहीं किया था. कांग्रेस ने रायबरेली संसदीय सीट की पांच में से दो विधानसभा सीटें जीतीं और अमेठी संसदीय क्षेत्र की सभी पांच सीटें हार गई.