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यूपी चुनाव: प्रियंका की बंद मुट्ठी खुलेगी 2019 में

कांग्रेस अपनी सबसे कीमती बंद मुठ्ठी 2019 के चुनाव से पहले नहीं खोलना चाहती

Sitesh Dwivedi

2014 के आम चुनाव में मिली शर्मनाक पराजय के बाद भी कांग्रेस वहीं ठिठकी हुई है. लगभग ढाई साल बाद भी केंद्र में मजबूत बहुमत वाली सरकार के खिलाफ ठीक से खड़े होना तो दूर कांग्रेस अपनी पार्टी के भीतर ही यक्ष प्रश्नों के जवाब तलाशने में नाकाम रही है.

पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी अब 'संघर्ष' की राजनीति 'उत्तराधिकारी' को सौंपना चाहती हैं. लेकिन, पिछले दस सालों से राजनीति में सक्रिय राहुल गांधी खुद असमंजस में दिखते हैं.


राहुल पर उठते सवाल

पार्टी में पदाधिकारियों से लेकर कार्यकर्ताओं का एक बड़ा तबका राहुल की क्षमताओं पर सवाल उठाता रहा है. लगभग हर कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता को प्रियंका गांधी में अपना तारणहार दिखता है. वहीं, पार्टी संविधान में संशोधन के बाद जनवरी 2013 में कांग्रेस उपाध्यक्ष बनाए गए राहुल गांधी का दूसरे राजनीतिक दलों के क्षत्रपों के साथ 'राजनीतिक संवाद' न के बराबर है.

गौरतलब है कि 17 मार्च, 2015 को जब मोदी सरकार खिलाफ 14 राजनीतिक दलों की राष्‍ट्रपति भवन तक पदयात्रा की अगुवाई कर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने एक जो माहौल बनाया था, राहुल उसे आगे तक नहीं बढ़ा सके थे.

जाहिर है कि मोदी सरकार को घेरने व विपक्ष को अपने पाले में खड़ा करने के 'कौशल' के लिए राहुल अभी भी पार्टी अध्यक्ष और अपनी मां सोनिया गांधी के आसरे हैं. बीते लोकसभा चुनाव के बाद देश में राजनीतिक लिहाज से सबसे बड़ी परीक्षा माने जाने वाले यूपी विधानसभा चुनाव के पहले राहुल को पार्टी अध्यक्ष बनाए जाने की लहर उठ कर बैठ चुकी है. कांग्रेस के सामने सबसे बड़ा सवाल ये है कि राहुल गांधी अध्यक्ष कब बनेंगे.

प्रियंका की स्वीकार्यता

कांग्रेस पार्टी के सामने दूसरा यक्ष प्रश्न प्रियंका गांधी वाड्रा को लेकर है. लंबे समय से पार्टी को परदे के पीछे से देख रही प्रियंका की सक्रियता भले ही अपनी मां और भाई के संसदीय क्षेत्र तक सीमित हो, लेकिन उनकी स्वीकार्यता का दायरा बहुत बड़ा है. देश के राजनीतिक नक्शे पर हाशिये पर खड़ी कांग्रेस के लिए वे एक ऐसा नाम हैं, जो कार्यकर्ताओं में स्थिति बदलने का भरोसा पैदा करता है.

उनकी उपस्थिति ही पार्टी को खबरों में ला देती है, तो उनके सक्रिय राजनीति में आने की 'सुगबुगाहट' थकी दिख रही पार्टी में ऊर्जा भर देती है. यूपी में चुनाव की तैयारियों के लिए राहुल गांधी की तीन सप्ताह से लंबी यात्रा व 'खाट पाल' का कार्यक्रम संचार माध्यमों में जितनी सुर्खी व कार्यकर्ताओं में जितना जोश भर पाया होगा, उतना प्रियंका के महज राज्य भर में प्रचार करने की 'अफवाह' से हासिल हो जाता है.

राजनीति पर सकारात्मक 

राजनीति को लेकर प्रियंका हमेशा सकारात्मक और खुली रही हैं. पार्टी के महासचिव व संगठन प्रभारी जनार्दन द्विवेदी ने प्रियंका के संबंध में कहा था कि 'राजनीति घटनाओं और राजनीतिक भाषा को वे शुरू से ही समझना चाहती थीं, मेरे

पास इसके कुछ प्रमाण भी हैं. प्रियंका की भूमिका के संबंध में 1990 में राजीव जी ने मुझसे कुछ कहा था. अभी बस इतना ही.' जाहिर है कभी न कभी इसके बाद की बात भी सामने आएगी.

शायद यह की खुद राजीव गांधी अपने उत्तराधिकारी को लेकर क्या सोचते थे? दूसरी तरफ इन सब से इतर कार्यकर्ताओं को उनमे पार्टी की सबसे मजबूत नेता इंदिरा गांधी की छवि दिखती है, तो तमाम पार्टी नेता उनमे पार्टी का भविष्य देखते हैं.

हालांकि, सक्रिय राजनीति में उनका आना अभी दूर की कौड़ी है. दरअसल, प्रियंका की पार्टी में सक्रिय भूमिका पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी की पदोन्नति से जुडी हुई है. राहुल गांधी को पारिवारिक विरासत की 'मशाल' सौंपी जा चुकी है. लेकिन अपनी 'संघर्षशील दौड़' के बावजूद वे हमेशा 'फिनिश लाइन' से पीछे ही दिखते हैं.

आगे नहीं आ रहे राहुल 

ऐसे में न तो राहुल आगे बढ़कर अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत दिखा रहे हैं, न ही उनकी ताजपोशी के लिए अच्छे और उचित समय का इंतज़ार कर रहा पार्टी नेतृत्व निकट भविष्य में ऐसे किसी अवसर को देख पा रहा है. उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले एक बार फिर राहुल को अध्यक्ष पद देने को लेकर विमर्श की लंबी प्रक्रिया चली, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला रहा.

राहुल ने हिचकिचाहट के साथ 'न मिश्रित हां' बोली तो उत्तर प्रदेश की सत्ता से बीते  27 साल से बाहर पार्टी भी ऐन चुनाव से पहले उन पर दांव लगाने का साहस न कर सकी. ऐसे में राहुल की ताजपोशी के साथ प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने पर भी अल्पविराम लग गया है.

दरअसल, राहुल गांधी के असफल राजनीतिक सफर के मद्देनजर कांग्रेस नेतृत्व नहीं चाहता की उनके उपाध्यक्ष रहते प्रियंका पार्टी में पद संभालें. पार्टी शीर्ष नेतृत्व को डर है की ऐसी स्थिति में राहुल को अध्यक्ष बनाने में दिक्कत आएगी और पार्टी का एक बड़ा तबका प्रियंका के पक्ष में लामबंद होकर राहुल के अध्यक्ष पद के रास्ते में आ सकता है.

प्रियंका के राजनीति में आने हिमायती राहुल

जबकि, राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद इस तरह की स्थिति नहीं रही रहेगी. संगठन भी दोनों के नेतृत्व में आगे बढ़ेगा. वैसे खुद राहुल गांधी भी प्रियंका के राजनीति में आने के हिमायती हैं. उनके मुताबिक 'मैं किसी अन्य व्यक्ति के मुकाबले अपनी बहन पर सबसे अधिक भरोसा करता हूं. मैं तो चाहता था कि वह सक्रिय राजनीति में आएं, लेकिन कब और कैसे आएं, इसका फैसला उन्हें ही लेना है.'

उत्तर प्रदेश कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष राजबब्बर कहते हैं, ‘यह तय किया गया है कि वह राज्य चुनावों में पार्टी के लिए प्रचार करेंगी.' जबकि, पार्टी राज्यसभा सांसद व प्रदेश कांग्रेस प्रचार समिति के अध्यक्ष संजय सिंह के मुताबिक प्रियंका ने चुनाव प्रचार के लिए अभी तक अपनी सहमति नहीं जताई है. वहीं राज्य में पार्टी के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर चाहते हैं कि प्रियंका राज्य की कम से कम 85 सीटों पर चुनाव प्रचार करें. इनमें वे क्षेत्र शामिल हैं, जहां कांग्रेस के विधायक हैं या जहां  2012 के चुनावों में कांग्रेस प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे थे.

इन सीटों की संख्या क्रमश: 28 और दूसरे नंबर पर रहने वालों की संख्‍या 31 है. हालांकि, प्रशांत के इस प्रस्ताव को प्रियंका ने स्वीकार नहीं किया है. दो दिन पहले इलाहाबाद दौरे पर आई प्रियंका ने एक बार फिर सारी अटकलों को विराम देते हुए अभी अपनी राजनितिक सक्रियता को लेकर कहा की 'अभी कुछ तय नहीं किया, जब तय होगा तब आपको पहले बताउंगी.

जाहिर है कांग्रेस अपनी सबसे कीमती बंद मुठ्ठी 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले नहीं खोलना चाहती. उत्तर प्रदेश में तो कतई नहीं.

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