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मोदी सरकार के 3 साल: आखिर कैसे काम करता है मोदी का जादू

बीजेपी के अन्दर की समस्याओं से जूझने के बाद नरेंद्र मोदी की राह आसान नहीं थी

Madhukar Upadhyay

भारतीय राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्थिति इस समय एक मेहनती और अपनी कला में दक्ष जादूगर जैसी है, जिसका जवाब लगभग अनुपस्थित विपक्ष के पास नहीं है. बड़ी संख्या में आबादी जादूगर के मोहपाश में है. उसे वही दिखता है जो जादूगर दिखाना चाहता है. वही सुनाई पड़ता है जो जादूगर सुनाता है. सपना वही होता है जो जादूगर चाहता है कि बंद आंखें देखें.

प्रधानमंत्री के तीन साल के कार्यकाल में कार्यशैली और फैसलों की आलोचना की ढेर सारी वजहें हैं. चाहे वो विदेश नीति हो, घरेलू राजनीति हो या अर्थव्यवस्था बेहतर बनाने के लिए उठाए गए नोटबंदी जैसे कदम. लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसे लोग भी मोदी को अपना उद्धारक मानते हैं जिनका भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कोई नाता नहीं है.


ये नरेंद्र मोदी के जादू का एक पहलू है. उसका एक दूसरा पक्ष भी है जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता.

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भारतीय जनता पार्टी और उसके नेताओं ने अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सहित वाकई कई काम किए हैं. इसे दो हिस्से में बांट दिया है. जिसमें पहला है कि जो कुछ पहले था, बुरा था और उसी की वजह से देश का यह हाल है.

दूसरा कि इसका सुधार केवल महाउद्धारक ही कर सकता है. वह वाकई ऐसा कर सकता है, इसका पहला नमूना खुद बीजेपी के अंदर से 2013 में आया. तब तक नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं बने थे लेकिन उनके आते ही बड़े-बड़े दिग्गज दरकिनार हो गए. इसने मोदी की छवि अपराजेय व्यक्ति की बनाने में बड़ी भूमिका निभाई.

जब नरेंद्र मोदी बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं थे

ये कहना कि जादूगर का पूरा तामझाम हवा में है और किसी दिन वो भरभरा कर गिर पड़ेगा, उस तिलिस्म के खुद टूटने के विश्वास पर टिका है. यानी तब तक अच्छा बुरा जो भी करना है, नरेंद्र मोदी को करना है.

दिल्ली और बिहार में बीजेपी का जादू नहीं चला

विपक्ष हाथ पर हाथ धरे बैठा है कि किसी दिन मोदी इतनी बड़ी गलती कर बैठेंगे कि लोग उनके इंद्रजाल से खुद बाहर आ जाएंगे और तब उनके दिन बदलेंगे.

जादूगर हाथ की सफाई दिखाता है, सम्मोहित करता है, जरूरी होने पर काला जादू करता है, इसे मानने का वैज्ञानिक आधार नहीं हो सकता. दिक्कत यही है कि मोदी ने सब कुछ इतना अतियथार्थवादी या सरियल बना दिया है कि लोकतंत्र खुद तर्कातीत मजाक की तरह दिखने लगता है.

दिल्ली और बिहार में बीजेपी का जादू नहीं चला, ये उस जादूगर को मालूम है. उसे यह भी पता है कि जादू क्यों नहीं चला? अन्य दलों और मोदी में यही अंतर है. बाकी के यहां ना अंदरूनी लोकतंत्र था ना है. कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, द्रमुक, अन्ना द्रमुक, और तृणमूल सब व्यक्ति केंद्रित पार्टियां हैं.

मोदी ने अपनी पार्टी को भी व्यक्ति केंद्रित बनाया है, अंतर यह है कि उसके पास संघ जैसा संगठन है जो बाकी के पास नहीं है.

मोदी जानते हैं कि संघ के लिए सत्ता साधन है साध्य नहीं. साध्य वही है जो पहले था और जिसे तमाम राजनीतिक दल गुप्त एजेंडा कहकर खारिज किया करते थे. तीन साल बाद अब वो एजेंडा गुप्त नहीं है. सब कुछ सामने है.

इसी से एक संभावना पैदा होती है कि देश में बहुकेंद्रीयता की जगह अभी बची हुई है. विपक्षी राजनीतिक दलों में सत्ता का केंद्रीकरण इतना अनगढ़ और फूहड़ है कि नरेंद्र मोदी की केंद्रीयता एक जमात को ललित कला की तरह लगती है. राजनीति की कला दीर्घा कुछ को एकरस, बेरस और नीरस दिखती है लेकिन देश की कला दीर्घा के रंग दूसरे हैं.

आखिर नरेंद्र मोदी का जादू काम कैसे करता है?

इसका कोई सीधा जवाब ना है, ना हो सकता है. इसे केवल धर्मभीरु, आम आदमी की सोच और उसकी अकाट्य आस्था में ही ढूंढा जा सकता है.

साल 2013 में नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उस साल इलाहाबाद कुम्भ में जाना चाहते थे. तब उन्होंने कहा था कि देश में सबसे बड़ी ताकत आम आदमी की आस्था है और कुम्भ उसका उदहारण है. अगर कुम्भ जैसी आस्था हो तो करोड़ों लोग सारी तकलीफ उठा कर बिना शिकायत आते हैं और संतुष्ट होकर लौट जाते हैं.

2013 में मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए इलाहाबाद कुम्भ गए थे

नोटीबंदी में शायद यही प्रयोग दोहराया गया जो धार्मिक नहीं आर्थिक कुम्भ बन गया. लोगों ने कष्ट उठाए, कतारों में खड़े रहे, जान गंवाई पर व्यापक विरोध नहीं हुआ. लोगों ने मान लिया कि इसके बाद सब ठीक हो जाएगा. जैसे त्रिवेणी में डुबकी लगाने के बाद होता है.

हालांकि बीजेपी के अन्दर की समस्याओं से जूझने के बाद नरेंद्र मोदी की राह आसान नहीं थी लेकिन उतनी कठिन भी साबित नहीं हुई. प्रधानमंत्री अब भी उसी राह पर हैं. नई राह आगे चल कर कहां मुड़ेगी, कहां पहुंचेगी, कहां उतरेगी यह सवाल ही काफी होगा कि पूछने वाले को देशद्रोही या देशभक्त के खांचे में खड़ा कर दिया जाए. भावी की प्रतीक्षा में.

यह और बात है कि बुलेट ट्रेन गुजरेगी तो हो सकता है देशद्रोही और देशभक्त दोनों छूट जाएं. ट्रेन उनके स्टेशन पर पता नहीं रुकेगी भी या नहीं.