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प्रणब के प्रति मोदी की कृतज्ञता कुछ कहती है

मोदी ने प्रणब को पिता-तुल्य बताकर बेशक अपनी कृतज्ञता और सम्मान को प्रकट किया है, पर क्या इस सम्मान के ज्यादा बड़े हकदार आडवाणी नहीं हैं?

Pramod Joshi

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को पिता-तुल्य बताना पहली नजर में सामान्य औपचारिकता है. प्रणब दा के विदा होने की बेला है. ऐसे में औपचारिक बातें ही होती हैं. पर दूसरी नजर में दोनों नेताओं का एक दूसरे की तारीफ करना कुछ बातों की याद दिला देता है.

रविवार के राष्ट्रपति भवन में एक पुस्तक के विमोचन समारोह में नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘जब मैं दिल्ली आया, तो मुझे गाइड करने के लिए मेरे पास प्रणब दा मौजूद थे. मेरे जीवन का बहुत बड़ा सौभाग्य रहा कि मुझे प्रणब दा की उंगली पकड़ कर दिल्ली की जिंदगी में खुद को स्थापित करने का मौका मिला.’


मोदी की इस बात में एक कसक है. सवाल है कि दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण के रहते उन्हें प्रणब मुखर्जी की उंगली पकड़ कर क्यों चलना पड़ा? अटल जी अपने स्वास्थ्य के कारण उन्हें गाइड करने की स्थिति में नहीं हैं. पर आडवाणी जी ने अपना हाथ क्यों खींचा?

राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के इस रिश्ते को कांग्रेस और मोदी के रिश्तों की रोशनी में देखें तो दोनों के बयान औपचारिकता से ज्यादा कुछ कहते हैं. औपचारिक अवसरों पर कांग्रेसी नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के प्रति नरमी दिखाते हैं. पर मोदी के प्रति वे औपचारिकता भरी नरमी भी नहीं बरतते.

प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल को लेकर हाल ही में जो टिप्पणियां आईं हैं, उनमें ‘कांग्रेस-मुखी’ विश्लेषकों के लेखन में प्रणब मुखर्जी की मोदी के प्रति नरमी को लेकर भी कुछ खलिश नजर आती है. उन्हें लगता है कि प्रणब मुखर्जी चाहते तो कई अवसरों पर मोदी की फजीहत कर सकते थे.

मसलन ‘पुरस्कार वापसी’ के दौर में उन्होंने कहा, ‘राष्ट्रीय पुरस्कारों का सम्मान किया जाना चाहिए और उन्हें संरक्षण देना चाहिए.’ इसी तरह संसद में शोर मचाने वाले विपक्ष की भी उन्होंने खबर ली. उन्होंने कहा, लोकतंत्र की हमारी संस्थाएं दबाव में हैं. संसद परिचर्चा के बजाय टकराव के अखाड़े में बदल चुकी है.

यह बात उन्होंने तब कही, जब लगता था कि कांग्रेस पार्टी सोच-विचार कर आक्रामक हो रही है. बेशक राष्ट्रपति को राजनीति में हिस्सा नहीं लेना चाहिए, पर वे चाहते अपने झुकाव को व्यक्त कर सकते थे. उन्होंने ऐसा भी नहीं किया.

सन 2014 में त्रिशंकु संसद होती तब शायद प्रणब मुखर्जी की समझदारी की ज्यादा बड़ी परीक्षा होती. ऐसा मौका आया नहीं. पर पिछले तीन साल में जब भी उन्हें मौका मिला उन्होंने, परिपक्व राजपुरुष (स्टेट्समैन) के रूप में अपनी राय गोष्ठियों और सभाओं में जाहिर की.

नरेंद्र मोदी के वक्तव्य से यह भी पता लगता है कि प्रणब मुखर्जी ने अपने अनुभव के आधार पर उन्हें रास्ता भी दिखाया. यह उनका अनुभव ही था कि जब वे इजरायल की यात्रा पर गए तो उन्होंने सरकार को सुझाव दिया कि हमें इसके साथ फलस्तीन को भी जोड़ना चाहिए, क्योंकि हमारी विदेश नीति दोनों के साथ रिश्ते बनाकर रखने की है.

प्रणब मुखर्जी राजनीतिक दृष्टि में सबसे विकट वक्त के राष्ट्रपति बने. मोदी सरकार के आते वक्त अंदेशा था कि राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री कार्यालय के बीच रिश्ते बिगड़ भी सकते हैं. ऐसा हुआ नहीं.

हाल में प्रणब दा ने मोदी की जनता से संवाद की शैली की तारीफ करते हुए कहा, आज के दौर में बेहतरीन ढंग से बात कहने वालों में मोदी विशेष हैं. इस मामले में उनकी तुलना जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी से की जा सकती है.

लालकृष्ण आडवाणी ने मोदी की रक्षा की थी

मोदी ने उन्हें पिता-तुल्य बताकर बेशक अपनी कृतज्ञता और सम्मान को प्रकट किया है, पर क्या इस सम्मान के ज्यादा बड़े हकदार लालकृष्ण आडवाणी नहीं हैं? बेशक यह मौका प्रणब दा का था और मोदी जी ने खुले मन से अपने उद्गार व्यक्त किए. लगता नहीं कि मोदी जी कभी आडवाणी जी के प्रति भी ऐसी ही कृतज्ञता व्यक्त करेंगे.

यह सच है कि मोदी जी के राजनीतिक गुरु आडवाणी जी है, पर वक्त ने कुछ ऐसा सितम किया कि दोनों के रास्ते बदल गए. सन 2002 के गुजरात दंगों के कारण राजनीतिक प्रतिस्पर्धियों ने जब मोदी के खिलाफ मोर्चा खोला था, तब आडवाणी ने उनकी रक्षा की थी.

सन 2004 की पराजय के बाद आडवाणी ने अपनी छवि उदार राजनेता की बना ली, जिसके लिए उन्होंने जिन्ना का सहारा लिया. फिर सन 2009 की पराजय से उनका राजनीतिक भविष्य काफी कुछ अंधेरे में चला गया. दूसरी ओर नरेंद्र मोदी तमाम विरोध के बावजूद उभरते गए.

मोदी की सफलता आडवाणी को रास क्यों नहीं आई इस पर अलग से विश्लेषण की जरूरत है. अलबत्ता सन 2012 में जब मोदी को गुजरात विधानसभा के चुनाव में भारी सफलता मिली तो आडवाणी जी ने उन्हें सार्वजनिक रूप से बधाई नहीं दी.

जून 2013 में जब गोवा में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाया गया तब आडवाणी जी ने पार्टी के सारे पदों से इस्तीफा दे दिया. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अध्यक्ष मोहन भागवत के हस्तक्षेप के बाद उन्होंने अपने हाथ खींचे थे.

उसके बाद 13 सितम्बर 2013 को बीजेपी संसदीय बोर्ड की बैठक में जब मोदी को प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में सामने लाने का फैसला हुआ, वे बैठक में नहीं आए. जबकि आशा थी कि वे खुद यह प्रस्ताव रखेंगे.

लगभग बारह साल से ‘हट मोदी कैम्पेन’ का सामना करते-करते नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह बना ली और सन 2014 के चुनाव में विस्मयकारी सफलता हासिल करने में सफल हुए. पर चुनाव परिणाम आने के बाद अपनी पहली सार्वजनिक प्रतिक्रिया में आडवाणी ने मोदी की न तो उस अंदाज में तारीफ की जिसमें पूरा देश कर रहा था और न उन्हें बधाई दी.

इस विजय के दो साल पहले आडवाणी जी अपने ब्लॉग में लिख चुके थे कि सन 2014 में किसी पार्टी को बहुमत मिलने वाला नहीं है. उन्हें लगता था कि पार्टी के भीतर का मूड उत्साह से भरा नहीं है. पर जब उत्साह छलका तो वे गमगीन हो गए.