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राष्ट्रपति चुनाव: प्रणब मुखर्जी होंगे जुलाई में रिटायर, ऐसे चुने जाएंगे नए राष्ट्रपति!

राष्ट्रपति के चुनावों पर प्रकाशित हो रही इस श्रृंखला की दूसरी कड़ी में हम देखेंगे कि अलग-अलग पार्टियां और धड़े अलग-अलग जगहों पर किस समीकरण के साथ मौजूद हैं

Amitabh Tiwari

संपादकीय नोट : पांच राज्यों और दिल्ली नगर निगम की जोरदार चुनावी लड़ाई के बाद एक बार फिर से चुनावी समर का मैदान सज रहा है- जुलाई महीने में चुनावी लड़ाई राष्ट्रपति पद के लिए होनी है. दिल्ली नगर निगम के चुनावों में बीजेपी ने पूरे विपक्ष को हैरान करते हुए चुनावी जीत हासिल की . इस बार विपक्ष अपना एक साझा उम्मीदवार खड़ा करने के लिए एड़ी-चोटी का जोड़ लगाये हुए है. बीजेपी अभी अपने उम्मीदवार के नाम पर सोच-विचार कर रही है. अब भी यह उम्मीद बाकी है कि विपक्ष और बीजेपी के बीच किसी एक उम्मीदवार के नाम पर सहमति बन जायेगी. आइए, फ़र्स्टपोस्ट पर प्रकाशित तीन लेखों की एक ऋंखला के जरिए समझते हैं कि राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है, सीट और वोटों के मामले में कौन-सी पार्टी किस मुकाम पर है और क्या विपक्ष इस हालत में है कि उसका साझा उम्मीदवार बीजेपी के प्रत्याशी को राष्ट्रपति के चुनाव में हरा सके. श्रृंखला की यह पहली कड़ी है-

लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली में राष्ट्रपति देश का प्रधान और इसकी सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर होता है. राष्ट्रपति का चुनाव निर्वाचित जन-प्रतिनिधि यानी सांसद और विधायक करते हैं. राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष रीति से होता है. इस कारण राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की तुलना में कम शक्तियां हासिल होती हैं. प्रधानमंत्री का चुनाव सीधे देश की जनता करती है.


 निर्वाचक-मंडल और एक जटिल फार्मूला

भारत के राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक-मंडल के जरिए होता है. इस निर्वाचक मंडल में शामिल हैं :

  • लोकसभा के निर्वाचित प्रतिनिधि यानी सांसद (543)
  • राज्य सभा के निर्वाचित प्रतिनिधि (233)
  • राज्यों की विधानसभा के निर्वाचित प्रतिनिधि जिसमें दिल्ली और पडुचेरी विधानसभा के भी निर्वाचित प्रतिनिधि शामिल हैं (4120)
  • राष्ट्रपति के चुनाव के लिए वोटों की गिनती एक फार्मूले के आधार पर होती है. इस अहम फार्मूले(सूत्र) की चरणवार जानकारी नीचे लिखी जा रही है:

    एक विधायक के वोट का मोल =राज्य की कुल जनसंख्या (1971 की जनगणना के अनुसार)

    राज्य के कुल निर्वाचित विधायक × 1000

    किसी विधानसभा के कुल विधायकों के वोट का मोल= किसी एक विधायक के वोट का मोल × विधानसभा में मौजूद निर्वाची सीटों की संख्या

    31 राज्यों के विधायकों के वोट का कुल मोल= 31 विधानसभा के सभी विधायकों के वोट के मोल का योगफल = 549474

    सांसद के वोट का मोल =सभी विधायकों के वोट के मोल का योगफल (549474)

    संसद के निर्वाचित प्रतिनिधियों की कुल संख्या (776)

    =708

    सभी सांसदों के वोट का कुल मोल= एक सांसद के वोट का मोल × सांसदों की कुल संख्या

    = 549408

    निर्वाचक मंडल के वोटों का कुल मोल= सभी विधायकों के वोटों का कुल मोल  + सभी सांसदों के वोटों का कुल मोल

    =549474 + 549408

    = 1098882

    कैसी होती है चुनाव-प्रक्रिया

    राष्ट्रपति चुनाव में राज्यसभा और लोकसभा के मनोनीत सदस्यों को मतदान करने की अनुमति नहीं है. मतदान मतपत्र के सहारे होता है और किसने किसे वोट डाला इसे गुप्त रखा जाता है.

    राष्ट्रपति चुनाव में सियासी दल के प्रतिनिधि अपनी पार्टी के ह्विप से बंधे नहीं होते. विधायकों के वोट का मोल राज्यवार अलग-अलग होता है. लेकिन सांसदों के वोट का मूल्य तय होता है. निर्वाचक मंडल में सांसद और विधायकों के वोट की वैल्यू को बराबर (प्रत्येक को 50 फीसदी) की अहमियत दी गई है.

    चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के हिसाब से होता है. एकल संक्रमणीय मतदान (सिंगल ट्रांसफरेबल वोट) की पद्धति अपनायी जाती है. हर वोटर को राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के लिए अपनी पसंद की वरीयता तय करनी होती है.

    कैसे तय होती है वरीयता?

    मतदाता अगर किसी प्रत्याशी को अपनी पहली पसंद मानता है तो उसके नाम के आगे 1 लिखता है, दूसरी पसंद मानता है तो उसके नाम के आगे 2 लिखता है. इसी तरह मतदाता 3, 4, 5 या इसके आगे के अंकों के सहारे राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के बीच अपनी वरीयता का इजहार करता है.

    राष्ट्रपति चुनाव में जितने ज्यादा उम्मीदवार खड़े होंगे, वरीयताओं की संख्या भी उतनी ही अधिक होगी. मतदान तभी वैध माना जाता है जब वोटर ने किसी प्रत्याशी के नाम के आगे अपनी पहली वरीयता का इजहार किया हो.

    वोटर चाहे तो अपनी शेष वरीयता ( दूसरी तीसरी, चौथी पसंद आदि) का इजहार नहीं भी कर सकता है. शेष वरीयताओं का इजहार वैकल्पिक रखा गया है. जिस प्रत्याशी को वैध पाये गये वोटों का '50 प्रतिशत +1' ( प्रथम वरीयता वाले वोट का कोटा) हासिल होता है वह चुनाव जीत जाता है.

    अगर यह कोटा किसी भी उम्मीदवार को हासिल नहीं होता तो जिस प्रत्याशी को प्रथम वरीयता के वोट सबसे कम मिले हों उसे सूची से हटा दिया जाता है.

    इस प्रत्याशी को दूसरी वरीयता के जितने वोट हासिल होते हैं उन्हें शेष प्रत्याशियों में बांटा जाता है. सूची से प्रत्याशियों को बाहर हटाने की यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जबतक कि किसी एक को विजयी होने लायक कोटा हासिल ना हो जाये.

    सर्वाधिक कम वोट हासिल करने वाले प्रत्याशी को सूची से बारी-बारी से हटाने के बाद भी अगर किसी प्रत्याशी को कोटे का जरूरी वोट हासिल होता नहीं दिखता और आखिर में कोई एक प्रत्याशी ही सूची में बचा रह जाता है तो उसे ही राष्ट्रपति पद के चुनाव का विजयी उम्मीदवार घोषित किया जाता है.

    क्यों अपनायी जाती है ऐसी मतदान प्रक्रिया

    ऊपर बताये गये फार्मूले के आधार पर राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव करवाने के पीछे संविधान में दो कारण बताये गये हैं:

  • राष्ट्रपति पद के लिए हो रहे चुनाव में सभी राज्यों को समान प्रतिनिधित्व हासिल हो-अनुच्छेद 55 (1)
  • राज्यों और संघ (केंद्र) के प्रतिनिधित्व में समरुपता सुनिश्चित करने के लिए - अनुच्छेद 55(2).
  • भारत का राष्ट्रपति देश के सभी राज्यों और केंद्र का समान रुप से प्रतिनिधि हो, इस जरुरत को देखते हुए ऊपर बताये गये जटिल फार्मूले के आधार पर राष्ट्रपति पद का चुनाव होता है.

    ऐसा करना भारतीय संविधान की भावना के अनुरुप है क्योंकि भारतीय संविधान अपने चरित्र में ना तो 'शुद्ध रुप से संघीय है ना ही एकात्मक' बल्कि इसका निर्माण सहयोगात्मक संघवाद के सिद्धांतों के आधार पर हुआ है.

     एक व्यक्ति एक वोट बनाम यह जटिल फार्मूला

    हो सकता है, आप अचरज में पड़ें और सोचें कि आखिर राष्ट्रपति के चुनाव के लिए हमारे संविधान में निर्वाचकों के मत का मोल निर्धारित करने के लिए ऐसा जटिल फार्मूला क्यों अपनाया गया. सीधे-सीधे ‘एक व्यक्ति एक वोट’ के सिद्धांत को ही क्यों नहीं मान लिया गया.

    आखिर किसी विधानसभा सीटों की संख्या का सीधा संबंध राज्य की आबादी से होता है. ऐसा करने से आनुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत का पालन हो जाता जिसे इस ख्याल से जरुरी माना गया है कि कहीं अल्पसंख्यक आबादी राज्यसत्ता के फायदों से वंचित ना हो जायें.

    दरअसल 'एक व्यक्ति एक वोट' के सिद्धांत में एक कमी है. यह सिद्धांत राष्ट्र के प्रधान (राष्ट्रपति) के निर्वाचन के पीछे की मूल भावना की ठीक-ठीक नुमाइंदगी नहीं करता.

    राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों (विधायकों) की संख्या सांसदों की तुलना में ज्यादा है और इसी कारण एक व्यक्ति एक वोट के सिद्धांत का पालन किया जाय तो राष्ट्रपति के चुनाव में केंद्र और राज्यों को हासिल वोट में बराबरी नहीं हो सकेगी.

    संविधान में व्यवस्था है कि 75000 की आबादी तक एक ही विधायक होना चाहिए, इससे ज्यादा नहीं. संविधान में यह नहीं कहा गया कि आबादी की ‘अमुक’ तादाद का प्रतिनिधित्व अनिवार्य रुप से किसी एक विधायक के जरिए होना चाहिए.

    संविधान में राज्यों के विधानसभा का अधिकतम आकार निश्चित करते हुए विधायकों की अधिकतम संख्या 500 नियत की गई है. इन दो व्यवस्थाओं के रहते ‘एक व्यक्ति एक वोट’ के सिद्धांत का पालन करने पर राष्ट्रपति के चुनाव में केंद्र और राज्य के बीच वोटों के बंटवारे के मामले में समरुपता कायम नहीं की जा सकती.

    फिलहाल अलग-अलग राज्यों में एक विधायक आबादी की अलग-अलग संख्या का प्रतिनिधित्व करता है. मिसाल के लिए ओडिशा में प्रति 1.47 लाख आबादी पर एक विधायक है, आंध्रप्रदेश में एक विधायक 1.49 लाख आबादी की नुमाइंदगी करता है तो यूपी में एक विधायक पर आबादी की तादाद 2.08 लाख बैठती है. (इस गिनती में 1971 की जनगणना को आधार बनाया गया है)

    सघन आबादी वाले राज्यों की भूमिका अहम

    निर्वाचक-मंडल के विधायकों के कुल वोटों में सबसे ज्यादा आबादी वाले ये पांच राज्यों ( उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल तथा तमिलनाडु) की हिस्सेदारी 48 फीसदी है. यहां के सांसदों के कुल वोटों में इन राज्यों की हिस्सेदारी 45 प्रतिशत की है.

    आबादी के लिहाज से शीर्ष के इन पांच राज्यों में से दो में बीजेपी का शासन है जबकि दो अन्य राज्यों में बीजेपी-विरोधी पार्टी का. तमिलनाडु में एआईएडीएमके का शासन है लेकिन यह पार्टी नेतृत्व के संकट से गुजर रही है.

    बेशक संविधान में इस बात का भरपूर ध्यान रखा गया है कि राष्ट्रपति के चुनाव में अल्पसंख्यक आबादी का प्रतिनिधित्व ठीक से हो लेकिन प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत से देखें तो स्वाभाविक है कि जिन राज्यों में आबादी ज्यादा है वे राष्ट्रपति के चुनाव में ज्यादा अहम भूमिका निभायेंगे.

    यह सच्चाई यह भी है कि लोकसभा में कोई एक दल पूर्ण बहुमत से शासन कर रहा हो तो राज्यों में किसी दूसरे दल की पूर्ण बहुमत की सरकार हो. यह स्थिति भी केंद्र और राज्यों को हासिल वोटों के मोल में संतुलन स्थापित करने का काम करती है. सारी बातों को एक साथ मिलाकर देखें तो कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की विविधता और पद्धति की जटिलता के कारण राष्ट्रपति का चुनावी मुकाबल बड़ा दिलचस्प साबित होने वाला है.

    नीचे एक तालिका बनायी गई है. इसमें अलग-अलग राज्यों की विधानसभा की सीटों की संख्या और विधायकों के वोट का मोल दर्ज किया गया है:

    क्रम. संख्या.राज्य का नामविधानसभा में सीटों की संख्याप्रत्येक विधायक के वोट का मोलराज्यों के वोटों का कुल मोल
    1आंध्रप्रदेश17514825,900
    2अरुणाचल प्रदेश608480
    3असम12611614,616
    4बिहार24317342,039
    5छत्तीसगढ़9012911,610
    6दिल्ली70584,060
    7गोवा4020800
    8गुजरात18214726,754
    9हरियाणा9011210,080
    10हिमाचल प्रदेश68513468
    11जम्मू एवं कश्मीर87726,264
    12झारखंड8117614,256
    13कर्नाटक22413129,344
    14केरल14015221,280
    15मध्यप्रदेश23013130,130
    16महाराष्ट्र28817550,400
    17मणिपुर60181,080
    18मेघालय60171,020
    19मिजोरम408320
    20नगालैंड609540
    21ओड़ीशा14714921,903
    22पडुचेरी3016480
    23पंजाब11711613,572
    24राजस्थान20012925,800
    25सिक्किम327224
    26तमिलनाडु23417641,184
    27तेलंगाना11914817612
    28त्रिपुरा60261,560
    29उत्तरप्रदेश40320883,824
    30उत्तराखंड70644,480
    31पश्चिम बंगाल29415144,394
    कुल4,120549,474

     

    राष्ट्रपति के चुनावों पर प्रकाशित हो रही इस श्रृंखला की दूसरी कड़ी में हम देखेंगे कि अलग-अलग पार्टियां और धड़े अलग-अलग जगहों पर किस समीकरण के साथ मौजूद हैं