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राष्ट्रपति चुनाव की हार मीरा कुमार के लिए नई शुरुआत हो सकती है

मीरा कुमार बीजेपी के लिए चौंकाने वाली प्रतिद्वंद्वी बनकर उभर सकती हैं.

Sandipan Sharma

राष्ट्रपति का चुनाव मीरा कुमार भले ही हार जायें लेकिन यह उनकी कहानी की शुरुआत साबित हो सकता है. राष्ट्रपति पद के चुनाव में हार के बाद 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए वे विपक्ष की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार हो सकती हैं.

तीन दशक पहले विपक्ष के लिए एक अच्छी बात हुई थी जब वीपी सिंह इलाहाबाद से उपचुनाव जीते थे और अब वैसी ही अच्छी बात विपक्ष के लिए मीरा कुमार के रूप में हुई है. अगर विपक्ष ने अपना मेलभाव कायम रखा, उसके सिपहसालारों का अहम सिर चढ़कर न बोला तो फिर 2019 में नरेंद्र मोदी के मुकाबले के लिए विपक्ष को मीरा कुमार के रुप में एक बना-बनाया उम्मीदवार हासिल हो चुका है.


सोमवार को हुए चुनाव में मीरा कुमार की हार एकदम पक्की है. उनके प्रतिद्वंद्वी रामनाथ कोविन्द के पाले मे तकरीबन 70 फीसदी वोट हैं. हालांकि विपक्ष ने निर्वाचन में भाग ले रहे सांसदों-विधायकों से कहा है कि वे अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट करें तो भी ऐसा नहीं लगता कि मीरा कुमार सत्ताधारी गठबंधन की एकता में सेंध लगा पायेंगी. चूंकि उनके पाले में लगभग 30 फीसदी वोट हैं सो उनका बड़े अंतर से हारना तय है.

लेकिन उनकी उम्मीदवारी से दो मकसद सधे हैं. एक तो इससे विपक्षी दलों में एकता का भाव पैदा हुआ है. दूसरे, मीरा कुमार की शख्शियत चमकी है, उन्हें भारत भर में एक पहचान हासिल हुई है. ये दोनों ही बातें अगले लोकसभा चुनाव के लिए विपक्ष की रणनीति के शुरुआती मुकाम साबित हो सकती हैं.

अभी भी मजबूत है मोदी का वोटबैंक

अगला आम चुनाव अभी भले ही कुछ महीने दूर हो लेकिन उसका रूप-रंग अभी से दिखने लगा है. यह बात तकरीबन तय है कि अगड़ी जाति के मतदाता मोदी की तरफदारी में वोट डालेंगे. प्रधानमंत्री की शहराती, बिजनेस-फ्रेंडली अपील और हिंदू-हृदय-सम्राट की छवि ने शहरी मतदाताओं और गांवों में अगड़ी जातियों के बीच उनका एक मजबूत वोटबैंक तैयार किया है. यह वोटर 2019 में बीजेपी और मोदी के पीछे मजबूती से खड़ा रहेगा.

बीजेपी अपने इस बुनियादी वोट-बैंक का विस्तार दलितों के बीच में पैठ बनाकर करना चाहती है. इसी रणनीति के तहत रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया. 2019 में विपक्ष बीजेपी को कड़ी टक्कर तभी दे सकता है जब वह दलितों को लुभाने की बीजेपी की रणनीति की काट कर सके.

मीरा कुमार बीजेपी की राह रोकने के लिहाज से आदर्श उम्मीदवार साबित हो सकती हैं. वो विदुषी हैं और प्रधानमंत्री बनने के लिए जरूरी अनुभव और साख उन्हें हासिल है, सो उनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि मात्र दलित पहचान के आधार पर उन्हें उम्मीदवार बनाया गया है. उनका रिकॉर्ड बेदाग है, साख पर कभी सवालिया निशान नहीं लगे. सियासत में उनका अतीत कभी भी विवादों के साये में नहीं आया. इस वजह से वो अपनी उम्र के राजनेताओं के बीच सबसे अलग नजर आती हैं. एक बात यह भी है कि वो बिहार से हैं और यह सूबा अपनी 40 सीटों के दम पर लोकसभा के चुनावों की तस्वीर बदल सकता है.

बिहार एक मायने में अपवाद कहा जायेगा क्योंकि उसने मोदी लहर को रोकने की अपनी इच्छा और सलाहियत का मुजायहरा किया है. 2015 के चुनावों में बिहार के मतदाताओं ने साबित किया कि विकल्प मौजूद हो तो वे मोदी और बीजेपी से परे जाकर सोचने को तैयार हैं. अगर मीरा कुमार को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाता है तो इससे बिहार के वोटरों को उनके नाम पर गोलबंद किया जा सकता है. साथ ही नीतीश कुमार के लिए दुविधा की स्थिति खड़ी होगी. उन्हें या तो मीरा कुमार का समर्थन करना पड़ेगा या फिर उन्हें प्रधानमंत्री बन सकने की वास्तविक सलाहियत वाली सूबे की एक दलित महिला का विरोध करने के नतीजों को भुगतने के लिए तैयार होना पड़ेगा.

इतनी आसान नहीं होगी डगर

प्रधानमंत्री पद के लिए मीरा कुमार की संभावित दावेदारी बेशक कई अन्य बातों पर निर्भर है. एक तो कांग्रेस को अपने वंशवाद से ऊपर उठना होगा. यह मानकर कि राहुल गांधी की महत्वाकांक्षा प्रधानमंत्री बनने की है, कांग्रेस को इससे परे जाकर इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए सोचना होगा कि उसे विपक्ष को एक स्वरुप देना है, 2019 के चुनावों के मद्देनजर विपक्ष को एकजुट करने की भूमिका निभानी है. कांग्रेस को अपनी इस सोच से किनारा करना होगा कि उसे अपनी शर्तों पर विपक्ष की अगुवाई करने का अधिकार हासिल है. अगर कांग्रेस ऐसी भूमिका अख्तियार करती है, पूरी विनम्रता से अपने हाथ जोड़ लेती है और अपने अहंकार से परे जाकर सोचती है तो ही वह 2019 में मोदी के खिलाफ विपक्ष का साझा उम्मीदवार खड़ा कर पाने का एक वास्तविक आधार तैयार कर पायेगी.

देखने वाली एक और बात यह होगी कि खुद विपक्ष एकता की कोशिशों को कितना कामयाब होने देता है. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का चयन करते वक्त विपक्ष की फूट साफ-साफ सामने आई और साबित हुआ कि विपक्षी दलों को एक कर पाना कितना कठिन है. फिर भी एक शुरुआत हो गई है.

एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने इंडियन एक्सप्रेस को कहा भी यही कि बीते तीन सालों में पहली बार ऐसा हुआ है जब विपक्ष ने एकजुट होकर अपनी ताकत दिखाई है. इससे आगे के बारे में बहुत बातों का अंदाजा लगाया जा सकता है. उपराष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए जेडीयू ने विपक्षी खेमे में वापसी की है, इससे विपक्ष की एकता को फिर से बल मिला है.

लेकिन अभी बड़ा सवाल यह है कि क्या विपक्ष 2019 तक एकजुट रह पायेगा. क्या विपक्ष तृणमूल कांग्रेस और वाममोर्चे की सियासत के अंतर्विरोध के बीच संतुलन साध पायेगा, क्या वह उपराष्ट्रपति पद के लिए एकजुट हुए 18 दलों के राजनेताओं और मायावती तथा मुलायम सिंह यादव की महत्वाकांक्षाओं की टकराहट के बीच कोई मेल कायम कर पाएगा?

मोदी को हराने के कॉमन एजेंडे को आधार बनाकर अगर विपक्ष अपने को एकजुट रखने में कामयाब रहा और सोनिया गांधी ने जिसे विचारधारा की लड़ाई कहा है उसके प्रति विपक्ष ने प्रतिबद्धता दिखाई तो फिर मीरा कुमार बीजेपी के लिए चौंकाने वाली प्रतिद्वंद्वी बनकर उभर सकती हैं.