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ओबीसी पीएम, दलित 'राष्ट्रपति'... इस देश को और क्या चाहिए?

कोई बता सकता है कि रामनाथ कोविंद ने दलितों के उत्थान के लिए क्या किया?

Vivek Anand

आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद के दलित उम्मीदवार बताकर प्रचारित किए जाने पर तंज कसा. ट्विटर पर उन्होंने लिखा,

सत्तर बरस बिताकर सीखी लोकतंत्र ने बात


महामहिम में गुण मत ढूंढो, पूछो केवल जात ?

इसके बाद उन्होंने ऐसे ही तंज वाली महाकवि दिनकर की कविता शेयर की. जो इस तरह है-

मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का

धनुष छोड़कर और गोत्र क्या होता है रणधीरों का ?

पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,

'जाति-जाति ' का शोर मचाते केवल कायर, क्रूर !

तो कुल मिलाकर बात ये है कि जाति ही असल मसला है. दलित जाति के हैं इसलिए राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं. दलित जाति के हैं इसलिए विपक्ष विरोध तक नहीं कर पा रहा. दलित जाति के हैं इसलिए उनके मुकाबले में विपक्ष भी दलित उम्मीदवार उतारे तभी बात बनेगी.

राजनीति से लेकर आम जिंदगी तक में जातिवादी मानसिकता कितने गहरे पैठी है इसे आप यूं समझिए कि जैसे ही रामनाथ कोविंद का नाम राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के बतौर घोषित हुआ. सबसे पहले लोगों ने गूगल पर उनकी जाति सर्च की.

नहीं जानना कि रामनाथ कोविंद कौन हैं. उन्होंने अपनी जिंदगी में किस बूते क्या-क्या हासिल किया. किन संघर्षों से गुजरकर उन्होंने कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ी. जानना तो बस इतना है कि वो किस जाति से आते हैं. ये कोई इत्तेफाक की बात नहीं है कि लोग सबसे ज्यादा उनकी जाति के बारे में जानना चाहते हैं. हमारी महान राजनीतिक परंपरा ने जातिवादी मानसिकता की जड़ें इतनी गहरे जमा दी हैं कि हम इसके आगे कुछ सोच ही नहीं पाते.

रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनने के बाद टीएमसी नेता डेरेक ओ ब्रायन ने ट्वीट किया. उन्होंने लिखा, ‘ कितने लोगों ने आज विकिपिडिया से जानकारी ली. मैंने तो ली.’ बड़ी सच्ची बात लिखी उन्होंने. लेकिन सवाल है कि ये दलित राजनीति की बदौलत बिहार के गवर्नर हो जाने वाले एक शख्स की पहचान का संकट है या फिर संपूर्ण तौर पर दलित राजनीति का संकट.

रामनाथ कोविंद का दलित राजनीति में क्या योगदान है?

रामनाथ कोविंद विनम्र हैं, मृदुभाषी हैं, वो किसी विवाद में नहीं फंसे, उनके राजनीतिक जीवन में कोई दाग नहीं लगा. लेकिन इन सबके साथ क्या कोई बता सकता है कि रामनाथ कोविंद ने दलितों के उत्थान के लिए क्या किया ?

ये मजे की बात है कि जो राजनीति पहले प्रतीकात्मक तरीके से जातीय बंधनों को तोड़ने की बातें करती है, वो उसी के सहारे जातिवादी पहचान पुख्ता करने की तमाम कोशिशें भी करती हैं. उसी का नतीजा है कि दलितों के उत्थान के नाम पर इसकी जातीय राजनीति सिर्फ एकाध चेहरों को आगे बढ़ाकर दलितों को भ्रमित करने की राजनीति करती है और इसमें सारी पार्टियां भागीदार है.

इसी राजनीति के बूते रामनाथ कोविंद की पहचान इतनी भर है कि वो दलित वर्ग का नेतृत्व करते हैं. दलित न होते तो बीजेपी के प्रवक्ता न बनते, दो बार राज्यसभा के सांसद न चुने जाते, बिहार के महामहिम का भारीभरकम पद सुशोभित न कर रहे होते और सबसे बड़ी बात इतना कुछ बन या हो जाने के बाद भी उन्हें कम ही लोग जानते अगर दलित होने के विशेष गुण की वजह से उन्हें राष्ट्रपति का उम्मीदवार न बनाया गया होता.

तस्वीर: न्यूज़18 हिंदी

रामनाथ कोविंद के बहाने एक तीर से कई निशाने

एक बड़ा साफ और स्पष्ट संदेश देने की कोशिश की जा रही है. रोहित वेमुला, ऊना में दलितों की पिटाई से लेकर सहारनपुर दंगे का जवाब है ये चयन. एक प्रतीकात्मक चेहरे को उठाकर कई सुलगते मुद्दों को धराशायी करने की कोशिश की जा रही है. एक तीर से कई निशाने लगाए जा रहे हैं. गुजरात में एक और संदेश देने की कवायद चल रही है. बीजेपी अपने इस कदम से गुजरात में ओबीसी जातियों लुभाने की तैयारी कर रही है.

रामनाथ कोविंद कोली समुदाय से आते हैं. गुजरात में कोली कम्युनिटी ओबीसी जातियों में शामिल है. रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाए जाने के कदम को ओबीसी जातियों के बीच प्रचारित किया जा रहा है. कोली समुदाय के कार्यक्रमों में कोविंद के सम्मानित-अंलकृत करने की तैयारी हो रही है. गुजरात में कोली और ठाकुर जातियों की आबादी 20 फीसदी से भी ज्यादा है. इसे एक बड़े वर्ग को आकर्षित करने के कदम के बतौर देखा जा रहा है. जातीय प्रतीकों के इस खेल में तमाम जोड़-तोड़ चल रहे हैं.

इन सबके बीच असल सवाल प्रतिनिधित्व का है. मूल बात ये है कि अगर किसी जाति विशेष के हितों की बात की जाती है तो उन्हें किस स्तर और कितनी मात्रा में सत्ता की हिस्सेदारी मिलती है. जातीय गणित बिठाने की कोशिशों के बीच सरकार में हिस्सेदारी को लेकर घोर विसंगतियां हैं.

एक आंकड़े के मुताबिक मोदी कैबिनेट में अब तक सबसे ज्यादा सवर्ण जातियों के मंत्री शामिल हैं. मंत्रियों की फौज में सिर्फ 4.6 फीसदी हिस्सेदारी दलितों को दी गई है. जबकि कुल आबादी में दलितों की संख्या 16.6 है. इसमें भी कैबिनेट स्तर के मंत्रियों में ज्यादातर सवर्ण हैं. ओबीसी जातियों के प्रतिनिधियों को राज्य मंत्री का प्रभार देकर जातीय संतुलन साधने की कोशिश की गई है. बिना वाजिब हिस्सेदारी दिए जातीय हितों की आवाज बुलंद करने की कोशिश खोखली ही नजर आती है.

इन तमाम बातों के बीच एक आखिरी सवाल... क्या रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति पद के अच्छे उम्मीदवार हैं... नहीं....वो राष्ट्रपति पद के जिताऊ उम्मीदवार हैं.