view all

लालू से गठबंधन की भारी कीमत वसूल रहे हैं नीतीश

ऐसा पहली बार है जब लालू और नीतीश की कामयाब लेकिन अस्वभाविक दोस्ती बिहार की सत्ता पर काबिज हुई थी

Vivek Anand

गुरुवार को जब 17 दलों का विपक्षी गठबंधन अपने राष्ट्रपति उम्मीदवार के तौर पर मीरा कुमार का नाम लेकर मीडिया के सामने आया तो सबसे ज्यादा नजरें लालू यादव को ढूंढ रही थीं. सवाल दर सवाल लालू के चेहरे पर कई भाव आ-जा रहे थे.

पहले शांत भाव से बोले- नीतीश को हम मना लेंगे. हम जाकर बात करेंगे. फिर थोड़ा झल्लाते हुए बोले- मैं उनको निर्णय पर विचार करने को कहूंगा. बोलूंगा कि ऐसी ऐतिहासिक गलती मत कीजिए. आपका फैसला गलत है. फिर थोड़ा तंज कसते हुए बोले- उनकी पार्टी से ज्‍यादा विधायक होने के बाद भी नीतीश कुमार को सीएम बनाया. उन्‍हें कभी परेशान नहीं किया.


इसके बाद भी उनके बयानों का दौर जारी रहा. फेसबुक पोस्ट में भी विस्तार से मान मनौव्वल की बातें हुईं. लेकिन नीतीश के खेमे से बार-बार एक ही बात सामने आती रही. अब तो फैसला हो चुका है.

जब लालू ने नरेंद्र मोदी को सीधी चुनौती दी थी

ये बात हर बार दोहराई जाती है कि गठबंधन नहीं टूटेगा लेकिन बिहार के दो दिग्गजों की दोस्ती जिस ओर जा रही है, उसमें कुछ भी यकीनीतौर पर कहना मुश्किल है. जिस तरह से नीतीश अपने फैसलों से बार-बार चौंकाते रहे हैं, उसमें गठबंधन का कल आशंकाओं से भरा है.

इतना जरूर है कि लालू की मजबूरी है ये गठबंधन और इस मजबूरी में लालू यादव बड़े कमजोर दिखने लगे हैं. आपको याद होगा जब बिहार में 2015 में नीतीश-लालू के महागठबंधन ने शानदार जीत हासिल की थी. 10 साल बाद लालू के चेहरे पर चौड़ी वाली मुस्कान लौटी थी.

अपने पुराने फॉर्म में लौटे उत्साहित लालू ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके ऐलान किया था कि अब बिहार की गद्दी नीतीश कुमार संभालेंगे और वो दिल्ली में जाकर मोदी के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे. रिजल्ट आने के तीसरे दिन उन्होंने राघोपुर की एक सभा में कहा था, ‘अब हमारी लड़ाई देश की गद्दी से नरेंद्र मोदी को उखाड़ने की है.’

गठबंधन को दो साल से भी कम वक्त हुआ है उखड़ने की नौबत लालू यादव की आन पड़ी है. राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी बन पड़ी हैं कि लालू यादव की दमदार आवाज कहीं खो गई लगती है. नीतीश कुमार के साथ दोस्त-दोस्त ना रहा वाली नौबत आ गई है. खुद चारा घोटाले के मामले में झारखंड की कोर्ट में पेशी दर पेशी से परेशान हैं.

रामनाथ कोविंद को जेडीयू के समर्थन देने की बात से ही लालू के हाथ खाली हो गए हैं

लालू यादव के पास मीरा कुमार को समर्थन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है

बिहार बीजेपी के नेता सुशील कुमार मोदी खोद-खोद कर जमीन जायदाद के कागजात निकाल कर उनकी पोल पट्टी खोलने में जुटे हैं. होनहार बेटों पर कभी मिट्टी घोटाले का आरोप लगता है, कभी मंत्रीपद के बेजा इस्तेमाल पर सवाल उठते हैं तो कभी पेट्रोल पंप का लाइसेंस कैंसिल हो जाता है. बिटिया मीसा भारती इनकम टैक्स डिपार्टमेंट के चक्कर काट रही है. और तो और यादव परिवार के दामाद जी भी इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में गुरुवार को घंटों सफाई देकर आते हैं.

राष्ट्रपति पद के एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को जेडीयू के समर्थन देने की बात से ही लालू यादव का हाथ खाली हो गया है. गठबंधन के नेता लाख सफाई दें, जून महीने में बिहार की राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी बदली हैं कि गर्मी भी लग रही है और पसीने भी नहीं छूट रहे. आखिर करें भी तो करें क्या.

लालू यादव के सामने 17 दलों वाले विपक्षी गठबंधन के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार मीरा कुमार को समर्थन देने के अलावा कोई और उपाय नहीं है. हालांकि इसके बाद भी वो चैन से बैठ नहीं सकते. विपक्षी गठबंधन से अलग जाकर रामनाथ कोविंग के समर्थन किए जाने पर नीतीश कुमार का कहना है कि उन्होंने अपने निर्णय के बारे में सोनिया गांधी को पहले ही बता दिया था.

वो इस राजनीतिक 'धोखेबाजी' का पुराना हवाला भी देते हैं. नीतीश कुमार का कहना है कि उन्होंने 2012 में भी ऐसा ही किया था. 2012 के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान वो एनडीए के साथ थे. लेकिन इसके बावजूद उन्होंने एनडीए से दोस्ती के दायरे से बाहर निकलकर यूपीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का समर्थन दिया था. इसलिए आज अगर वो महागठबंधन की लक्ष्मणरेखा से बाहर निकलकर एनडीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का समर्थन कर रहे हैं तो इस पर सवाल नहीं उठाए जाने चाहिए.

लेकिन इसी पुराने उदाहरण के हवाले से उनकी राजनीतिक उछलकूद को ज्यादा अच्छे तरीके से समझा जा सकता है. 2012 में एनडीए के साझीदार रहते उन्होंने यूपीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था और इसके एक साल बाद एनडीए से नाता तोड़ लिया था. आज वो विपक्षी गठबंधन के साथ रहते एनडीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का समर्थन कर रहे हैं क्या पता एकाध साल बाद महागठबंधन को ठीक वैसे ही बाय-बाय बोल दें.

नीतीश को समर्थन करना लालू की मजबूरी

अखिलेश और मायावती के भी साथ आने की खबर है

लालू यादव 2015 से विपक्ष को एकजुट करने की कोशिशों में लगे थे. नीतीश विपक्ष के सर्वमान्य चेहरा थे तो लालू उसके पीछे की धुरी. चेहरा गायब हो चुका है तो धुरी की गति बिगड़नी तय है. 27 अगस्त को लालू यादव पटना में गैर बीजेपी दलों की बड़ी रैली करने वाले हैं.

खबर थी कि रैली दरअसल विपक्ष की 2019 की सबसे बड़ी तैयारी का आगाज है. बीजेपी के सारे दुश्मन एकसाथ इकट्ठा होने वाले हैं. यूपी के दो धुर विरोधी अखिलेश और मायावती के भी साथ आने की खबर है. अब पता नहीं उस रैली का क्या होगा. क्योंकि एक बड़ा झटका तो अभी ही लग गया है.

पहली बार जब लालू और नीतीश की कामयाब लेकिन अस्वभाविक दोस्ती बिहार की सत्ता पर काबिज हुई थी. तो लोगों ने कहा था लालू राजनीति के ऐसे मंझे हुए खिलाड़ी हैं कि वो नेपथ्य में रहकर भी सत्ता की चाबी अपने हाथ ही रखेंगे. जब उन्होंने अपने दोनों बेटों को बिहार के दो बड़े मंत्रालय दिलवा दिए तो इस बात को बल भी मिला. लेकिन आज देखिए, लालू बिहार के सत्ता के साझीदार हैं. उनके पास सबसे ज्यादा विधायक हैं. जिस पल चाहें सरकार गिरा दें. लेकिन वो ऐसा कर नहीं सकते. वो नीतीश से दोस्ती निभाने की याचना कर सकते हैं. जो वो कर रहे हैं. बिहार की राजनीति में अभी सिर्फ तेज धूलभरी आंधी उड़ रही है. मौसम का मिजाज कब बदल जाए और तेज बारिश बहुत कुछ बहा ले जाए, कहा नहीं जा सकता.