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एक्सक्लूसिव: 2019 के मद्देनजर नीतीश की लोकप्रियता विपक्षी दलों को रास नहीं आ रही- केसी त्यागी

बिहार सीएम की बढ़ती लोकप्रियता को दूसरे विपक्षी दल पचा नहीं पा रहे हैं और राजनीति प्रेरित आरोप लगा रहे हैं

KC TYAGI

मैंने एक वक्तव्य दिया है कि हम एनडीए में ज्यादा सहज थे. जिस संदर्भ में ये वक्तव्य दिया है. सबसे पहले इसका मतलब समझना जरूरी है.

इस बयान का हमारा तात्पर्य अटल बिहारी वाजपेयी के व्यापक और उदार नेतृत्व को लेकर है.


उस वक्त जॉर्ज फर्नांडिस एनडीए के संयोजक थे. जॉर्ज साहब के अलावा नीतीश कुमार, शरद यादव, रामविलास पासवान और स्वर्गीय दिग्विजय सिंह के पास महत्वपूर्ण मंत्रालय था.

नीतीश कुमार तो अटल जी के सबसे लाडले और प्रिय थे. जिनको उन्होंने आधा दर्जन मंत्रालयों में समय-समय पर जिम्मेदारी दी.

बीजेपी के साथ जेडीयू की सीटों का बंटवारा कर हम राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल भी हो गए थे. ये तमगा हमारे पास अभी नहीं है.

उस वक्त गोधरा-कांड और उसके बाद का माहौल और कंधमाल की घटनाएं जरूर गलत थीं. जिसको दबी जुबान में अटल जी भी अच्छा नहीं मानते थे. बिहार में 243 में से 140 सीटें जेडीयू के खाते में थी जबकि, लोकसभा की 40 में से 24 सीटें जेडीयू के हिस्से में थीं.

ये सच है कि ऐसी सहज स्थिति आज नहीं है. पिछले विधानसभा चुनाव के वक्त हम उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और सपा के गठबंधन का हिस्सा होना चाहते थे. लेकिन, एक भी सीट कन्सीडर करने के लिए यूपी का ये गठबंधन जेडीयू के लिए तैयार नहीं था. जबकि आधे दर्जन से ज्यादा कार्यकर्ता सम्मेलन कर के नीतीश कुमार ने पूर्वांचल में खलबली मचा दी थी. नीतीश कुमार की इन सभाओं में 20 से 30 हजार कार्यकर्ता पहुंचे थे.

उस वक्त एनडीए में हमारे कई सासंद, विधायक और मंत्री भी थे. लेकिन, ये सच है कि बीजेपी के नए नेतृत्व के फ्रेम वर्क में हम सही नहीं बैठते. जो सवाल अटल जी के नेतृत्व में ठंढे बस्ते में पड़े थे, आज वो बढ़ा-चढ़ा कर सामने लाए जा रहे हैं.

प्रधानमंत्री के सबका साथ सबका विकास के दावे के बावजूद हिंसा और अप्रिय घटनाएं हो रही हैं. धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों पर जुल्म ज्यादा तेज हो गए हैं. लॉ कमिशन में तीन तलाक की आड़ में यूनीफार्म सिविल कोड थोपने की तैयारी हो रही है. कश्मीर अबतक के सबसे खराब दौर से गुजर रहा है.

लेकिन, इन प्रश्नों को लेकर बड़ी पार्टी के नाते कांग्रेस की जो भूमिका है वो भी बड़ी सीमित है. मंदसौर के बाद समूचे देश का किसान आंदोलित था. न्यूनतम समर्थन मूल्य देश की राजनीति का फोकस प्वाइंट बन चुका था. किसी असरदार किसान नेतृत्व के अभाव में और विपक्षी दलों के असमंजस के अभाव में ये आंदोलन आज मृतप्राय है. ये भी विपक्षी एकता की बड़ी धुरी बन सकता था.

बजाए इन सवालों को एकत्रित करके व्यापक मोर्चा बनता. गुलाम नबी आजाद सरीखे विपक्ष के बड़े नेता ने नीतीश कुमार को ही कठघरे में खड़ा करके आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी लगा दी. ये सच है कि कई बुनियादी सवालों पर बीजेपी के उस वक्त के नेतृत्व से अलग राय थी लेकिन, कभी दुर्भावना से किसी नेता ने जॉर्ज साहब और नीतीश कुमार को गलत नजरों से नहीं देखा.

राष्ट्रपति चुनाव की बात करें तो प्रारंभिक विचार-विमर्शों में गोपाल कृष्ण गांधी का नाम विपक्ष की तरफ से फ्रंट रनर के रूप में था. पश्चिम बंगाल के गवर्नर के रूप में काम कर चुके गोपाल कृष्ण गांधी ममता जी की पहली पसंद थे. एनसीपी, जेडीयू और जेडीएस इन पर अपनी सहमति जता चुके थे.

गोपाल कृष्ण गांधी

3 जून को करुणानिधि के जन्मदिवस के अवसर पर जब विपक्षी जमावड़ा चेन्नई में हुआ था तो उस वक्त नीतीश कुमार ने गोपाल कृष्ण के नाम पर हामी भर दी थी. शायद ये नाम कांग्रेस के नेताओं की पहली पसंद नहीं हो सका. इसीलिए टाल मटोल जारी रही.

किसी एक नाम पर सर्वसम्मति बनती नजर नहीं आ रही थी. कांग्रेस के नेताओं ने या फिर अन्य सहयोगी दलों ने कभी किसी एक स्टेज पर मीरा कुमार के नाम का विचार विमर्श नहीं किया.

ये भी सच है कि रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा करते वक्त बीजेपी ने विपक्षी दलों को विश्वास में नहीं लिया. दोनों मुख्यधारा के दल अपने–अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए शतरंज की बिसात के रूप में दलित विचार को आगे बढ़ाने में लगे थे.

इसी बीच में बीजेपी ने बिहार के गवर्नर रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा कर दी.

रामनाथ कोविंद जी लंबे समय से बिहार के गवर्नर रहे थे. बिहार बूटा सिंह जैसे बदनाम गवर्नर की भूमिका का दंश भी झेल चुका है. कोविंद का कार्यकाल लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और संविधान की मर्यादा को सुरक्षित करने वाला रहा.

यूपी और अन्य राज्यों की तरह से बिहार का राजभवन बीजेपी नेताओं का अखाड़ा नहीं बन पाया.

यहां गवर्नर और मुख्यमंत्री के रिश्ते सौहार्दपूर्ण रहे. बीजेपी नेताओं को भी कई बार उनके आचरण से उलझन होती थी.

उनका नाम आने के बाद नीतीश कुमार की चिंताएं बढ़नी स्वाभाविक थीं. उन्होंने सोनिया गांधी, लालू प्रसाद यादव, सीताराम येचुरी से अपनी परेशानी और वर्तमान परिस्थिति पर विचार विमर्श किया और सूचित भी किया कि उनके लिए कोविंद का विरोध करना संभव नहीं होगा.

जेडीयू के शीर्ष नेतृत्व की बैठक पटना में हुई. इसमें शरद यादव, वशिष्ठ नारायण सिंह और मैं भी था तो सर्वसम्मति से फैसला लिया गया कि उनका समर्थन किया जाए.

पार्टी ने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की कि इससे हमारी विपक्षी एकता के प्रयास प्रभावित नहीं होगे. क्योंकि ये एक 'आईसोलेटेड इंसिडेंट' है और 'वन टाइम एफेयर' है. लेकिन, बावजूद इस पर हमारे मित्र दलों की प्रतिक्रिया जिस तरह की थी उसने हमें बेचैन किया.

नीतीश कुमार पर राजनीति से प्रेरित आरोप लगाए गए

नीतीश कुमार पर वैचारिक भटकाव से लेकर राजनीतिक अवसरवाद तक के आरोप लगाने शुरू कर दिए गए. और इसकी पराकाष्ठा विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद के उस वक्तव्य से हो गई जिसमें उन्होंने खुले तौर पर नीतीश कुमार को राजनीतिक अवसरवादी करार दिया.

क्या विपक्षी एकता सिर्फ राष्ट्रपति के चुनाव तक है? क्या 17 जुलाई के बाद कोई राजनीतिक घटनाक्रम नहीं होगा जिसमे समूचे विपक्ष को एक होना पड़े. मित्र दलों के इस असहिष्णु व्यवहार को लेकर हम कई दिन व्यथित रहे.

हमारी भावी भूमिका को लेकर भी प्रश्न उठाए गए. जबकि हम स्पष्ट कर चुके थे कि महागठबंधन अपना कार्यकाल पूरा करेगा और बिहार की जनता से जो वायदे किए गए हैं वो पूरे होंगे.

लेकिन, एक ऐतिहासिक अवसर हमलोगों ने गंवा दिया. गोपाल कृष्ण गांधी के नाम की घोषणा अगर हमलोगों ने पहले कर दी होती. तो ना जेडीयू को बाहर जाने का अवसर मिलता, बल्कि शिवसेना और बीजेडी भी इस फैसले के साथ होते.

संवैधानिक मर्यादाओं के बड़े रक्षक के रूप में गोपाल कृष्ण गांधी देश के अगले राष्ट्रपति भी हो सकते थे.

2019 के लिए सिविल सोसायटी और मीडिया के निष्कर्ष थे वो भी हमारे कई राजनैतिक मित्रों को असहज किए हुए थे. जिसमें नीतीश कुमार 2019 के लिए एक राष्ट्रीय विकल्प के रूप में इमर्ज कर रहे थे.

पहले डिमोनिटाइजेशन को समर्थन करने के सवाल पर उनके खिलाफ निंदा अभियान चलाया गया. उसके बाद सैन्य कारवाई के मुद्दे पर. कौन देश प्रेमी नागरिक भारतीय सेना के शौर्य के गुणगान से अलग रह सकता है? इसे भी गलत संदर्भों में लिया गया. क्या अब सेना के पराक्रम भी राजनैतिक चर्चाओं के केंद्र बिंदु बनेंगे.? अब तो हमारे कई मित्र दल हमारे मना करने के बावजूद भी हमें एनडीए में भर्ती करने पर तुले हुए हैं.

( लेखक जेडीयू के पूर्व राज्यसभा सांसद और पार्टी प्रधान महासचिव हैं )