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सियासत के ‘नादान परिंदे’ अपने बेतुके बयानों से ना बनें ‘पाकिस्तान के बंदे’

आतंकी हमले जैसे संवेदनशील मसले पर भी राजनीतिक दल अपना फायदा देखने की कोशिश कर रहे हैं

Kinshuk Praval

अमरनाथ यात्रियों पर हुए आतंकी हमले के बाद देश भर में आक्रोश है. मारे गए लोगों के परिवार गम में डूबे और गुस्से में भरे हुए हैं. उधर अमरनाथ यात्रा नए हौसलों के साथ भक्ति के मार्ग पर जारी है. आतंकी अपना काम कर चुके हैं और अब सियासत के सूरदास हमले में नए एंगल तलाश रहे हैं.

इसे भारतीय राजनीति में संजीदगी के अवसान का दौर कहें या फिर राजनीतिक अपरिपक्वता का नायाब नमूना कि आतंकी हमले में भी सियासत का नफा-नुकसान बयानों के तराजू में तौला जा रहा है. जब बात भारत की अखंडता, अस्मिता, सांप्रदायिक सौहार्द पर मंडराते खतरे की हो तब नेताओं की जुबानें जले पर नमक छिड़कने का काम कर रह हैं.


हार्दिक पटेल जैसे ‘समय की खोज’ के चलते ‘आकस्मिक बने नेता’ आतंकी हमले की टाइमिंग को गुजरात चुनाव से जोड़ रहे है. लेकिन उनसे दो कदम आगे अलका लांबा तो इस हमले में अपनी राजनीतिक दूरबीन से गहरी साजिश देख रही हैं.

'गुजरात की बस पर हमला होने से किसे फायदा होगा? सोचो..'

अलका लांबा आम आदमी पार्टी की विधायक हैं और उन्हें आतंकी हमले के पीछे साजिश दिखाई देती है. अल्का ने अपने ट्विटर हैंडल पर लिखा कि ‘साजिश गहरी है, बस गुजरात की है, यात्रा में मारे जाने वाले सभी गुजराती हैं, जत्थे से यह बस ही क्यों अलग हुई, कारण के पीछे छिपी हमले की सच्चाई.’

अलका लांबा आतंकी हमले में साजिश देख रही हैं जिससे उनका इशारा समझा जा सकता है. वहीं दूसरी तरफ हार्दिक पटेल गुजरातियों की मौत को गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव से जोड़ कर देखते हैं.

अपने ही मुल्क के नेताओं को हमले में मारे गए लोगों की जगह अगर राजनीति और साजिश दिखाई देने लगे तो फिर संजीदगी की उम्मीद किससे की जाए.

इनके ट्वीट पर गौर करें तो इनकी सियासी सोच का बिगड़ता संतुलन दिखाई देता है. खासतौर से ऐसे मौके और मुद्दे पर इन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट को ‘मिसहैंडल’ किया है जो भटकती मानसिकता का उदाहरण है.

अलका लांबा ने ठीक वही बात की जो उनकी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल करते आए हैं. सर्जिकल स्ट्राइक पर अरविंद केजरीवाल ने मोदी सरकार से सबूत तक मांग लिया था.

अलका लांबा का ट्वीट भी इसी तरह की नादानी का पुरजोर एलान है. तकरीबन बीस साल तक कांग्रेस से राजनीति का ककहरा सीखा फिर आम आदमी पार्टी की विचारधारा की लाइन पकड़ कर चांदनी चौक से विधायक बनीं. जिस कांग्रेस से अलका लांबा ने अपनी राजनीतिक करियर की शुरुआत की उसके इतिहास में इमरजेंसी से लेकर 84 के सिख दंगों के भी अध्याय है.

उसके बाद उन्होंने आम आदमी पार्टी को ज्वाइन किया. आम आदमी पार्टी ने नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक और ईवीएम को सरकार की साजिश करार दिया.

सियासत का चश्मा और साजिश की नजर

सियासत का नया स्टाइल पहले सीबीआई की कार्रवाई में सियासी साजिश देखता था तो अब आतंकी हमलों में भी देखने लगा है.जब देश बाहरी और आंतरिक खतरों से एक साथ कई मोर्चों पर जूझ रहा हो तो उस वक्त नेताओं के ये बयान उनकी सोच पर सवाल खड़े करते हैं. ऐसे ही बयानों की वजह से सोशल मीडिया जंग का मैदान बन जाता है जहां सारी सीमाएं तार तार हो जाती हैं. राष्ट्रीयता बनाम छद्म राष्ट्रीयता की बहस के तले दब जाते हैं वो असल मुद्दे जो वाकई देशहित और सुरक्षा से जुड़े होते हैं.

बयानबाजों को देखें तो ऐसा लगता है कि ये खास मौकों का इंतज़ार करते हैं. किसी खास वर्ग को खुश करने के लिये इनके पास संकुचित सोच के बयानों की कमी नहीं होती. अपने मंच या फिर ट्वीटर से ये कभी दहाड़ते हैं तो कभी ललकारते हैं.  ऐसा ही एक नाम है असदउद्दीन ओवैसी. ओवैसी को अमरनाथ यात्रियों पर हुए हमले के बाद बीजेपी सरकार का इतिहास याद आ गया. ओवैसी  ने कहा कि पहले भी जब अमरनाथ यात्रियों पर हमला हुआ तब भी बीजेपी की सरकार थी. राज्य में भी बीजेपी की सरकार है और केंद्र में भी बीजेपी की सरकार है.

यही बोल सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के ट्विटर से फूटे. येचुरी ने ट्वीट किया कि कश्मीर में बीजेपी की सरकार के वक्त घाटी के हालात लगातार बिगड़े हैं. जब 2000 में हमला हुआ था तब भी बीजेपी की सरकार थी. और अब 2017 में भी बीजेपी की ही सरकार है.

हर दौर की सरकारों के वक्त आतंकी हमले हुए हैं. लेकिन देखने वाली बात ये होती है कि किस दौर की सरकार के वक्त आतंक के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हुई. वहीं दूसरी तरफ आतंकियों का मकसद किसी सरकार को कटघरे में खड़ा नहीं करना होता है. उनका मकसद बेगुनाहों के खून बहाने से जुड़ा होता है.

अमरनाथ यात्रा के वक्त गुजरात की ही बस पर आतंकी हमला किसी बड़ी साजिश की तरफ इशारा कर सकता है. इसका खास मकसद घाटी और देश में हिंदू-मुसलमानों के बीच नफरत की दीवार खड़ा करना हो सकता था. भारत पर जब भी आतंकी हमला हुआ तो आतंकियों का मंसूबा हमेशा यहां की फिजां को खराब करने का भी रहा. लेकिन जिस तरह से अमरनाथ यात्रियों पर हमले के बाद स्थानीय लोगों ने मदद की उसने उस अहसास को बरकरार रखा कि कश्मीरियत जिंदा है अभी और मजहब से ऊपर इंसानियत भी.

इससे बड़ी और क्या मिसाल हो सकती है कि गुजरात की उस बस में पचास यात्रियों को अपनी जान पर खेल कर सलीम नाम के शख्स ने बचाया. लेकिन दुर्भाग्य से देश के सियासतदां दूर कोने में बैठकर कश्मीर के हालातों को साजिशों के चश्मे से देख रहे हैं. उनके बयान ना सिर्फ सेना का मनोबल गिराने वाले होते हैं बल्कि देश का माहौल भी बिगाड़ने वाले भी होते हैं.

सुरक्षा में चूक के मामले में केंद्र और राज्य सरकार पर सवाल उठाए जा सकते हैं. जवाबदेही आखिर सरकार की होती है चाहे वो किसी भी सरकार क्यों न हो.सरकार ने सुरक्षा के इंतजामों में कोई कसर छोड़ी भी नहीं. सरकार की दलील भी है कि सौ में से सौ हमलों में सुरक्षा बल चौकस रह कर हर हमले को नाकाम करते हैं लेकिन आतंकियों को सिर्फ एक ही हमले को कामयाब बनाना होता है. जिसमें वो कामयाब हो जाते हैं. ऐसा इस बार भी हुआ.

ऐसे वक्त में आपसी मतभेद भुलाकर साथ खड़े रहने की जरूरत होती है. यही सोच एक स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान भी है. लेकिन दुर्भाग्यवश नेता अपने सियासी हित के चलते ऐसे बयान देने लगते हैं जो सीमा पार बैठे दुश्मनों के लिये भी दवा का काम करते हैं. पाकिस्तान ने भी सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगा था क्योंकि इस देश में भी वो सबूत मांगा जा रहा था.