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मोदी का कब्रिस्तान वाला बयान: आलोचना में दबी 'अन्याय' की असल बात

‘धर्मनिरपेक्ष’ यानी ‘सेक्युलरिज्म’ को हथियार बनाकर राजनीतिक पार्टियां एक खास वर्ग को डराकर रखती हैं

Sreemoy Talukdar

भारतीय संविधान के निर्माता जब एक आधुनिक राष्ट्र के निर्माण में जुटे थे तो उन्होंने संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ यानी ‘सेक्युलरिज्म’ शब्द शामिल नहीं किया था. यह शब्द तो 1976 में एक संविधान संशोधन के तहत जोड़ा गया था. जिन विद्वानों ने आधुनिक भारत की रूपरेखा तय की, वे मूर्ख नहीं थे. उन्हें अच्छी तरह पता था कि पश्चिमी सेक्युलरिज्म की अवधारणा भारत जैसी विविध और बहुसांस्कृतिक जगह के साथ चल नहीं पाएगी.

पश्चिमी सेक्युलरिज्म की अवधारणा आम तौर पर ईसाई धर्म के मुताबिक चलने वाले राज्यों से व्यक्तिगत आजादी की मांग करने वाले आंदोलन की देन है.


पश्चिमी समाज में सेक्युलरिज्म का मतलब राज्य और धर्म को एक दूसरे से अलग करना है. वहीं भारत में इस शब्द का इस्तेमाल सभी धर्म को एक समान बताने के लिए किया गया- एक जैसा सम्मान, एक जैसी आजादी और अहमियत. यह बहुत अहम है. बयालीसवें संशोधन में साफ किया गया है कि भारतीय राज्य पक्षपात का खेल नहीं खेलेगा. किसी भी धर्म को कोई विशेष दर्जा नहीं दिया जाएगा. या कम से कम ऐसी योजना थी.

क्या से क्या हो गया ‘सेक्युलरिज्म’

इस संविधान संशोधन को हुए 40 साल हो गए हैं और इन 40 सालों में जितना दुरुपयोग ‘सेक्युलरिज्म’ शब्द का हुआ है, उतना शायद ही किसी और शब्द का हुआ होगा. जिस मकसद से इस शब्द को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया, आज उसका उल्टा ही मतलब निकाला जा रहा है. अब तो यह एक कोड वर्ड बन गया है. इस शब्द के जरिए जबरदस्त पक्षपात हो रहा है और एक धर्म को दूसरे धर्म के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है. अपने इन बदले अर्थों में 'सेक्युलरिज्म' भारतीय राज्य के लिए कैंसर बन गया है.

इस शब्द का अर्थ बिगाड़ने का पूरा श्रेय एक बार फिर कांग्रेस को ही जाता है जिसने 'सेक्युलरिज्म' यानी धर्मनिरपेक्षता को 'अल्पसंख्यक वाद में' बदल दिया है. इसका यह मतलब कतई नहीं है कि कांग्रेस ने देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति सुधारने के लिए बहुत मेहनत की है. अगर ऐसा होता तो यह बहुत ही काबिले तारीफ बात होती. राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर कांग्रेस ने देश पर सबसे लंबे समय तक राज किया है. अपनी सेक्युलर पहचान को साबित करने के लिए कांग्रेस को वोटों से परे जाकर भी मुसलमानों के हितों की बात करनी चाहिए थी.

क्यों पिछड़े हैं मुसलमान

लेकिन मुसलमान आज भी हर क्षेत्र में पिछड़े हैं. वे न सिर्फ बहुसंख्यक हिंदुओं के मुकाबले पीछे हैं, बल्कि अन्य छोटे धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों से भी पिछड़े हुए हैं. मुसलमानों की बहुत बड़ी आबादी आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रही है. इसीलिए भारत में सत्ता के ढांचे में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है. इसका मतलब है कि वे राष्ट्र के निर्माण में भी बहुत कम योगदान दे सकते हैं.

हालात यहां तक क्यों पहुंचे, जबकि राहुल गांधी के शब्दों में कहें तो भारत का 'डिफॉल्ट ऑपरेटिंग सिस्टम' काम कर रहा था. जवाब आसान है. अगर मुसलमानों का असल मायनों में सामाजिक और आर्थिक उत्थान हुआ होता तो वे उठ खड़े होते और एक बेहतर भविष्य की मांग करते. तब वे कम असुरक्षित होते और ज्यादा महत्वाकांक्षी. वे अपनी पसंद का चुनाव ज्यादा समझदारी से कर पाते और उन्हें घीटो में (एक निश्चित इलाके तक सीमित करना) रखना इतना आसान नहीं होता. ये बातें देश के लिए बहुत अच्छी हैं, लेकिन सियासी दलों के लिए नहीं.

कांग्रेस और उससे विचारधारा उधार लेकर बनी इस तरह की अन्य पार्टियों के लिए एक ऐसा माहौल बनाना अहम था, जहां भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा उन्हें डर के कारण वोट दे. ऐसा माहौल जहां लोग अपने सामाजिक-आर्थिक उत्थान की मांग करते हुए वोट डालने न जाएं बल्कि इसलिए जाएं कि उन्हें एक हौव्वा दूर रखना है.

अगर एक समुदाय की असुरक्षाओं के कारण भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की यह खाई ज्यादा ही चौड़ी हो गई तो उस समुदाय के सदस्य इसकी दरारों में फिसल जाएंगे और हमेशा के लिए अंधकार में रहेंगे.

मीडिया पर भी सवाल

कांग्रेस और उसके नक्शे कदम पर चलने वाली पार्टियों को इस कला में महारथ हासिल है. वे अपने करतबों से मुसलमानों को भरमाती हैं और उन्हें उन्हीं की पहचान के जाल में फंसा देती हैं. यह सब करते हुए ये पार्टियां सेक्युलर शब्द की धज्जियां उड़ाती हैं और इस काम में मीडिया भी उनका साथ देता है. मुख्यधारा का मीडिया कम जिम्मेदार नहीं है. वह अकसर ऐसा माहौल बनाए रखता है कि किसी को पता ही नहीं चलता कि सेक्युलरिज्म शब्द कैसे समानता के अर्थों को पीछे छोड़ पक्षपात के मुहाने पर आ पहुंचा. वह भी झूठा पक्षपात क्योंकि इससे आखिरकार भला नहीं, बल्कि बुरा ही होगा.

यही वजह है कि जब कलकत्ता हाई कोर्ट ने 'जनता के अल्पसंख्यक वर्गों का तुष्टिकरण करने के प्रयासों' पर पश्चिम बंगाल सरकार को फटकार लगाई तो कोई विवाद नहीं दिखाई दिया.

जब हाईकोर्ट ने इमाम और मुएज्जिनों को मासिक भत्ता देने के ममता बनर्जी सरकार के कदम को 'असंवैधानिक' कहा तो किसी को कोई बुराई नजर नहीं आई. किसी ने उस वक्त भी कोई हायतौबा नहीं मचाई जब समाजवादी पार्टी के एक मंत्री ने कहा कि मुसलमान इसलिए ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं क्योंकि उनके पास करने को और कोई काम नहीं है.

हमें तब भी कोई खराबी नजर नहीं आती जब मायावती चुनावों से पहले मुस्लिम मौलवियों और उलेमाओं का समर्थन मांगती हैं.

भेदभाव की सियासत

हमारे सेक्युलरिज्म की सुई बहुत इधर-उधर घूमती है. खास कर तब जब कोई तुष्टीकरण और बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक वाले भेद को खत्म करने की बात करता है. हमारे जमीर को तब धक्का नहीं लगता जब कोई मुसलमानों से एक समुदाय के तौर पर वोट डालने को कहता है. लेकिन धक्का तब लगता है जब कोई मतदाताओं से जाति और समुदाय के गणित से ऊपर उठ कर वोट डालने को कहता है.

हमारी ‘भारत की अवधारणा’ उस वक्त हिल जाती है जब कोई भेदभाव की राजनीति को खत्म करने और देश के संसाधन सीधे उन लोगों को देने की बात करता है जिन्हें उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है, अब वे चाहे हिंदू हो या मुसलमान.

प्रधानमंत्री के हालिया बयान को लेकर हो रहा विवाद भी सेक्युलरिज्म शब्द के दुरुपयोग की तरफ ही इशारा करता है. यह देखकर हैरानी होती है कि तथाकथित सेक्युलर राजनीतिक दलों और मीडिया के सामान्य संदिग्धों ने प्रधानमंत्री की टिप्पणी पर ‘ध्रुवीकरण’ की तोहमत लगा दी. जबकि प्रधानमंत्री की बात हर तरह से निष्पक्ष, न्यायपूर्ण और संतुलित है. यह इस बात की मिसाल है कि किसी मामले को किस तरह अलग ही रंग दे दिया जाता है.

क्या कहा था

रविवार को एक रैली के दौरान दिए गए नरेंद्र मोदी के बयान पर नजर डालिए:

'अगर किसी गांव में कब्रिस्तान बनता है तो वहां शमशान भी बनना चाहिए. अगर रमजान के दौरान बिजली आती है तो दीवाली के दिन भी बिजली आनी चाहिए. अगर होली पर बिजली आती है तो ईद पर भी बिजली जरूर आनी चाहिए. किसी तरह का भेदभाव नहीं होना चाहिए...'

कहीं से भी यह बांटने वाला बयान नहीं है, बल्कि यह संविधान की प्रस्तावना में दी गई सेक्युलरिज्म की अवधारणा के बहुत करीब है.

उन्होंने कहा, 'भेदभादव अन्याय की जड़ है.. दलित कहते हैं कि उन्हें उनके अधिकार नहीं मिल रहे हैं, सब कुछ ओबीसी को मिल रहा है. ओबासी कहते हैं कि सरकार सब कुछ यादवों को दे रही है. यादव कहते हैं सिर्फ वो लोग जो ‘परिवार’ से जुड़े हैं, उन्हें ही अधिकार मिल रहे हैं, और बाकी मुसलमानों को चला जाता है. ये भेदभाव नहीं चल सकता.. भले ही आपको किसी ने जन्मा हो.. सबको बराबर अधिकार मिलने चाहिए, यही है सबका साथ, सबका विकास'. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में प्रधानमंत्री का यह बयान छपा है.

मोदी की तारीफ करिए

चुनाव बहस का स्तर ऊंचा करने के लिए प्रधानमंत्री की तारीफ होनी चाहिए. मायावती जहां सत्ता पाने के लिए दलित-मुसलमान गठजोड़ की जी तोड़ कोशिश में लगी हैं. वहीं समाजवादी पार्टी ने मुसलमान वोटों के बंट जाने के डर से कांग्रेस से हाथ मिला लिया है. यह पहला मौका नहीं है जब मुसलमान वोटों तक सिमट कर रह गए हैं. प्रधानमंत्री का बयान इस मकड़जाल से निकलने का रास्ता दिखाता है.

हालांकि इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि कांग्रेस ने क्यों चुनाव आयोग में जाने की धमकी दी है. वामपंथी पार्टी और साथ ही साथ नव वामपंथी आम आदमी पार्टी के चेहरे क्यों तमतमाए हुए हैं. अगर ये पार्टियां ऐसे मुद्दों को नहीं उठाएंगी तो फिर इनसे इनके किए काम का हिसाब मांगा जाएगा. फिर न वह डर काम आएगा जिसे दिखाकर ये पार्टियां वोट मांगती हैं और न ही कोई और झुनझुना.

आखिर में मीडिया को मेरी नसीहत है कि वह अपने अंदर झांके और जबाव दे कि, उस वक्त क्यों कोई हायतौबा नहीं मचाई गई जब एक प्रतिद्वंद्वी पार्टी के नेता ने प्रधानमंत्री को आतंकवादी कहा. ईमानदारी से इस सवाल का जवाब अगर मीडिया ढूंढ लेगा तो आम लोगों से उसकी दूरी कम हो जाएगी.